ज्योतिर्गमय

राष्ट्र प्रेम


भारतवर्ष देशवासियों के लिए मात्र एक भूमि का टुकड़ा नहीं है। यह देश इससे बढ़कर देवधरा है और सांस लेती देवात्मा है, जिसे भारत माता के रूप में पूजा जाता है। जब यह आस्था, विश्वास के साथ आत्मा के अंत:करण से आध्यात्मिक आवरण को आत्मसात कर भावनात्मक रूप से अभिव्यक्त होती है तो इसे राष्ट्र प्रेम कहा जा सकता है। राष्ट्र प्रेम भारत की सनातन संस्कृति का मूल है, जो ईश्वर प्रेम के समतुल्य है। राष्ट्र धर्म संस्कृति की नि:स्वार्थ, निर्भीक और अहंकाररहित साधना की धुरी है, यह केंद्रीय भाव है जो भारत माता की रक्षा, सुरक्षा और समृद्धि के लिए प्रत्येक भारतीय को अपना सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा देता है।
वर्तमान में देश का दुर्भाग्य है कि सत्ता का स्वार्थ, सामाजिक शोषण, भेदभाव या असमानता का भय समाज को राष्ट्र प्रेम के तत्व अपनत्व और एकात्मकता को खंडित कर रहा है और आने वाले कल का कुरुक्षेत्र निर्मित कर रहा है। प्रभु श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से भारत को संबोधित करते हुए कहा था कि जब-जब धर्म की हानि होगी, अधर्म, असत्य और आसुरी प्रवृत्तियों का उदय होगा, तब-तब धर्म के संस्थापनार्थ मैं इस धरा पर जन्म लूंगा। यह पवित्र पावन भूमि ईश्वरीय प्रेम का भी चर्मोत्कर्ष है। सद्संस्कृति का संरक्षण, संवद्र्धन, सुरक्षा करना और आसुरी प्रवृत्ति का नाश करने का आचरण, व्यवहार, और संस्कार ही राष्ट्र प्रेम की विशुद्धतम अभिव्यक्ति है। आज आतंकवाद, अलगाववाद, राष्ट्र विरोधी गतिविधियां और संस्कृति को दूषित करने का कृत्य भारत का दुर्भाग्य बन गया है। ऐसे में राष्ट्र प्रेम के संघर्ष, बलिदान और त्याग पर आधारित शौर्य, शक्ति व संगठन से युक्त उत्साह व ऊर्जा से परिपूर्ण व्यावहारिक अभिव्यक्ति ही भारत का भाग्य बदल सकती है। तभी राष्ट्र निर्माण का नया अध्याय लिखा जा सकता है। इस संदर्भ में यह बात याद रखी जानी चाहिए कि देश के नव निर्माण में युवा वर्ग की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसी युवा वर्ग को स्वामी विवेकानंद ने परिवर्तन का वाहक माना था। उन्होंने कहा था कि युवा शक्ति जब सकारात्मक कार्यो में लग जाती है तब उस समाज व देश से अन्याय, उत्पीडऩ, अपराध और अंधविश्वास आदि कुरीतियां दूर हो जाती हैं। 

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