ज्योतिर्गमय
इच्छाओं से निबटने का उपाय
अभिलाषाएं अपने आप उत्सव होती हैं। वे तुमसे पूछकर नहीं आती। जब इच्छाएं उत्पन्न हो जाती हैं, तुम उनका क्या करते हो?
यदि तुम सोचते हो कि तुम इच्छाहीन हो जाओ, तो यह भी एक और इच्छा है। मैं एक उपाय बताता हूं- हवाई जहाज पर जाने के लिए, या सिनेमा देखने के लिए, टिकट खरीदना पड़ता है। यह टिकट प्रवेश-द्वार पर देनी पड़ती है। यदि तुम उस टिकट को पकड़े रखोगे, तो अन्दर कैसे जाओगे? यदि तुम किसी कॉलेज में दाखिल होना चाहते हो तो आवेदन-पत्र की जरूरत है। उसे भरकर जमा कर देना पड़ता है।
उसे पकड़ कर नहीं रख सकते। इसी प्रकार जीवन-यात्रा में भी अपनी इच्छाओं को पकड़कर मत रखो, उन्हें समर्पित करते चले जाओ। जैसे-जैसे समर्पण करते जाओगे, इच्छाएं भी कम उत्पन्न होंगी. उनसे कुछ भाग्यवान हैं वे जिनकी इच्छाएं विलम्ब से पूरी होती है। और अधिक भाग्यवान हैं वे जिनकी इच्छा उत्पन्न होते ही पूरी हो जाती है। सौभाग्यवान वे हैं जिनमें कामना उत्पन्न ही नहीं होती, क्योंकि इच्छा जागृत होने के पहले ही वे तृप्त हैं।
सांसारिक व्यक्ति जब दु:खी होता है तो आसपास के लोगों को, सामाजिक पद्धति को और समस्त संसार को दोषी ठहराता है। जब एक साधक दु:खी होता है, वह भी संसार को दोष देता है किन्तु इसके अतिरिक्त, वह अपने पथ को, ज्ञान को और स्वयं अपने आपको भी दोष देता है। अच्छा यही है कि तुम साधक न बनो ताकि दोषारोपण कम करो। परन्तु एक साधक हर चीज का आनन्द भी अधिक लेता है।
उसके जीवन में प्रेम भी अधिक है, और दर्द भी। जब आनन्द अधिक होता है तब उसकी प्रतिकूलता का अनुभव भी अधिक होता है। जीवन की वास्तविकता को समझने के लिए विशेष गंभीरता, प्रौढ़ता की आवश्यकता है जिसमें हम अपने पथ को स्वयं को या संसार को दोषी न ठहरायें। यदि कोई आरोप और दु:ख की सीमा को पार कर जाये, तो वहां कोई पतन नहीं। यही पर्याप्त कदम है। ईश्वर तुम्हारी परीक्षा नहीं लेते।