ज्योतिर्गमय
शरणागति
संसार में आकर जीव को भगवान की शरण में जाना चाहिए। आपकी अंतस चेतना में जो सद्वृत्तियां निहित हैं वे ईश्वर की ही देन हैं। इसलिए समय गंवाए बगैर उनकी शरणागति प्राप्त कर लेना चाहिए। ईश्वर की शरणागति प्राप्त कर लेने पर जीव आश्वस्त हो जाता है कि अब उसे कोई पूर्ण रूप से संभालने वाला मिल गया है। उसे ऐसा आभास होने लगता है कि उसकी चित्तवृत्तियों व विचारों को सही दिशा की ओर ले जाने वाला अब सदैव उसके साथ है। यही बल सत्य के पथ पर आगे बढऩे में सहायता प्रदान करता है और इस मार्ग में आने वाली अनेक बाधाओं व तकलीफों में आत्मबल को भी क्षीण नहीं होने देता।
आत्मबल के सहारे आगे का मार्ग प्रशस्त होता जाता है। व्यावहारिक जगत में मनुष्य के सामने जब कोई संकट उपस्थित होता है, तो सर्वप्रथम वह वाच्य शक्तियों का सहारा लेकर उससे उबरना चाहता है। जब उसका वह संकट सभी प्रकार के प्रयास कर लेने के बाद भी समाप्त नहीं होता, तब वह परमात्मा की शरण में मात्र संकट से उबरने के लिए जाता है। यह तो स्वार्थसिद्धि के लिए भगवान की शरण में जाना हुआ। इससे जीव का कोई आध्यात्मिक उत्थान नहीं होता। मनुष्य को ऐसा सोचकर भगवान की शरण में होना चाहिए कि भगवान ही इस जगत की रचना करने वाले हैं। फिर वे ही जगत के कर्ता-धर्ता व नियंता हैं। वह ही संसार सागर में पड़ी मानव रूपी नौका को पार लगाने वाले हैं। इस प्रकार के विचार को मन में रखकर भगवान की शरण में जाना चाहिए। ऐसे शरणागत होने पर भगवान उस जीव को तत्काल अपना लेते हैं। फिर वह जीव परमात्मा के अधीन हो जाता है।
भगवान भक्त के भीतर छिपी गंदगी व खोट को बाहर निकालकर फेंक देते हैं। अपने भक्त में वह किसी
प्रकार के विकार को रहने नहीं देते। उसे परिष्कृत करते हुए उसके आत्मबल को बढ़ाते रहते हैं। भक्त भगवान की शरण में जाकर मालामाल हो जाता है। उसका जीव भाव समाप्त होता जाता है और आत्मभाव प्रकाशित होता जाता है। भगवान के शरणागत होने के फलस्वरूप अपने निज स्वरूप को प्राप्त कर वह जीव शाश्वत शांति प्राप्त कर लेता है।