ज्योतिर्गमय
समृद्धि के मायने
समृद्धि हर युग का सपना रहा है और जीवन की अनिवार्यता में इसे शामिल भी किया जाता रहा है। सापेक्ष दृष्टि से सोचें तो समृद्धि बुरी नहीं है, लेकिन बुरी है वह मानसिकता जिसमें अधिसंख्य लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं को लील कर कुछ लोगों को उनके शोषण से अर्जित वैभव पर प्रतिष्ठित किया जाता है। बुरा है समृद्धि का वह वैभव प्रदर्शन, जिसमें अपराधों को पनपने का खुला अवसर मिलता है। अपनों के बीच संबंधों में कड़वाहट आती है। ऊंच-नीच की भेद-रेखा खींची जाती है।
आवश्यकता से ज्यादा संग्रह की प्रतिस्पर्धा होती है। अनियंत्रित मांग और इंद्रिय असंयम व्यक्ति को स्वच्छंद बना देता है। हिंसा और परिग्रह के संस्कार जागते हैं। समृद्धि के साथ व्यक्ति की आदत, अभिरुचि, आकांक्षा, बहुत कुछ अपसंस्कृति से प्रभावित होकर गलत दिशा पकड़ लेते हैं। व्यक्ति फैशन की चकाचौंध में झूठे प्रदर्शन करता है। खान-पान की मर्यादा को तोड़ता है। समृद्धि की कथित आधुनिक जीवनशैली ने जीवन मूल्यों के प्रति अनास्था को पनपाया है। समृद्धि को हम भले ही जीवन विकास का एक माध्यम मानें, लेकिन समृद्धि के बदलते मायने तभी कल्याणकारी बन सकते हैं, जब समृद्धि के साथ चरित्र निष्ठा और नैतिकता भी कायम रहे।
शुद्ध साध्य के लिए शुद्ध साधन अपनाने की बात इसीलिए जरूरी है कि समृद्धि के रूप में प्राप्त साधनों का सही दिशा में सही लक्ष्य के साथ उपयोग हो। संग्रह के साथ विसर्जन की चेतना जागे। पदार्थ संयम के साथ इच्छा संयम हो, भोग के साथ संयम भी जरूरी है। समृद्धि की बदलती फिजा सद्संस्कारों को शिखर दे, वैचारिक दृष्टिकोण को रचनात्मकता दे, आधुनिकता के साथ पनपने वाली बुराइयों को विराम दे, ईमान और इंसानियत बटोरते हुए आगे बढ़े। आज कहां सुरक्षित रह पाया है-ईमान के साथ इंसान तक पहुंचने वाली समृद्धि का आदर्श? कौन करता है अपनी सुविधाओं का संयमन? कौन करता है ममत्व का विसर्जन? कौन दे पाता है अपने स्वार्थों को संयम की लगाम? भले हमारे पास कार, कोठी और कुर्सी न हो, लेकिन चारित्रिक गुणों की काबिलियत अवश्य हो, क्योंकि इसी काबिलियत के बल पर हम अपने आपको महाशक्तिशाली बना सकेंगे।