ज्योतिर्गमय

निष्काम कर्म करें


सामान्य व्यक्ति कर्म में आसक्त होकर शास्त्र के अनुसार सकाम कर्म करते हैं। जैसे कोई हर पूर्णिमा और अमावस्या को घर में सत्यनारायण की पूजा करते हैं, जिससे हमारे परिवार का कल्याण हो। यह अच्छी बात है। अब कोई कहे कि क्या कथा पूजा कराना है। ये पंडित लोग पैसा के लिए करते हैं, इससे कुछ नहीं होता है। ये कथा पूजा करना बंद करो। ऐसा व्यक्ति लोकसंग्रही नहीं है। वैसे लोगों के लिए भगवान कहते हैं कि तुम दूसरे की बुद्धि को भ्रमित मत करो। बल्कि तुम भी उसी प्रकार निष्ठा से कर्म करो, जिससे दूसरों को प्रेरणा मिले।
जो सामान्य जन कर्म में आसक्त हैं, अज्ञानी हैं, उनकी बुद्धि में भेद उत्पन्न नहीं करना चाहिये। वे ज्ञानियों की तरह शास्त्रों का या वेदान्त का चिन्तन नहीं कर सकते हैं, भगवान के नाम का दिन भर जप नहीं कर सकते, पर सकाम रूप से सत्यनारायण की कथा करवाते हैं, जिससे उनके मन को थोड़ी शांति मिलती थी। तुमने उसे भी बहुत प्रकार के तर्क देकर उसकी सकाम पूजा बंद करवा दी। उसकी बुद्धि में भेद कर दिया, वह बिचारा भ्रष्ट हो गया। इससे बहुत बड़ी हानि होती है। अत: भगवान आदेश दे रहे हैं कि ऐसी भेद-बुद्धि कभी न उत्पन्न करो। बुद्धि भेद कहते हैं किसी की आस्था को हिला देने को।
कई बार हमने देखा है, सुना है, आप लोग भी जानते हैं विशेषकर ये महिलायें जो कोई सोमवार को, कोई तुलसीमाता के दिन, कोई अन्य दिन व्रत उपवास करती हैं। कोई कहती हैं, हमको पंडितजी ने बताया है कि इतना और ऐसा उपवास करने से आपका दु:ख दूर हो जाएगा। बेटा, पति, घर के सब लोग अच्छे हो जाएंगे तो महिलायें ये उपवास कर रही हैं। वे कोई पाप तो नहीं कर रही हैं, कोई बुरा काम तो नहीं कर रही हैं। वह बच्ची इसलिये उपवास करती है कि सालभर वह मंगलवार का उपवास करेगी, तो उसके पति का, बच्चे का कल्याण होगा, सास बीमार है, तो उनका कल्याण होगा। अब कोई तथाकथित ज्ञानी यह कहें कि यह सब गलत है, इसे छोड़ दो, तो बुद्धि भेद हो जायेगा। बल्कि उससे कहेंगे कि ठीक है, निष्ठा से करो, और आवश्यक हो तो स्वयं भी अनासक्त होकर करो। यदि चित्तशुद्धि के लिये, पत्नी को उत्साह देने के लिये आप अगर मंगलवार का उपवास करें, तो अच्छा है, पतिदेव को कोई आकांक्षा नहीं है, वे अच्छे साधक है, वे लोक-संग्रह के लिए, दूसरों को सिखाने के लिए ये सब करते हैं तो आपकी पत्नी और दस महिलाओं को कहेगी कि मेरे पति ऐसा अच्छा कार्य करते हैं। उससे सुनकर सभी महिलायें अपने पतियों को ये बात कहेंगी, इससे दस परिवार को प्रेरणा मिली। इससे निष्कर्ष निकलता है कि बुद्धिभेद कभी भी नहीं उत्पन्न करना चाहिए। हम खुद ही अनाधिकारी हैं। उपदेश देने का हमें कोई अधिकार नहीं है, किन्तु हम दूसरों को उपदेश देते हैं। सारी दुनिया में यह रोग सर्वव्यापी है, और इतना व्यापी है कि आज तक उसकी कोई दवा नहीं निकली।
वह रोग है-हम सारी दुनिया को बदल देंगे, पूरे समाज को बदल देंगे। आपकी यह योजना ठीक है, किन्तु जब तक आप ऐसा सोचकर करेंगे, तब तक प्रकृति आपकी देह बदल देगी। अत: आप दूसरों को न बदलकर स्वयं को ही बदलने का प्रयास करें। किसी को भी भ्रमित न करें, अपितु दूसरों को सत्कर्म हेतु उत्साहित करें।
सकाम कर्म करते-करते धीरे-धीरे निष्काम कर्म करने की भी प्रवृत्ति आयेगी। कभी लगेगा कि जिन लोगों ने नि:स्वार्थ कर्म किया, कभी किसी से कुछ मांगा नहीं, वे बहुत शांत और प्रसन्न रहते थे। हमें उस जीवन का अनुभव करना चाहिये।

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