जंगल में सजा मां रतनगढ़ का दरबार
दतिया। ग्वालियर चम्बल संभाग के प्रसिद्ध धार्मिक तीर्थ स्थलों में सुमार माँ रतनगढ़ वाली माता का दरबार मनोहारी सजा है। माँ रतनगढ़ मंदिर पर श्रद्धालु पूजा अर्चना कर मनोकामना पूर्ण होने की कामना लेकर पहुँचते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां पर आकर मनोकामना मांगने वाला कभी खाली हाथ नहीं जाता।
माता मण्डला देवी के नाम से प्रसिद्ध माँ रतनगढ़ वाली का मंदिर मप्र के साथ उत्तर प्रदेश के कई जिलों में प्रसिद्ध है। जहां हजारों की संख्या में भक्त पैदल एवं पैड़ भरते हुए, माँ के दरबार में आते हंै। ्रमुख्यालय से तकरीबन 70 किलो मीटर दूर तहसील सेंवढ़ा के घने जंगल में पहाड़ चोटी पर स्थित मॉ रतनगढ़ के दरबार में नवरात्र प्रारंभ होते ही हवन भजन, एवं देवी के नौ दिन चलने वाले अनुष्ठान पूरी आस्था के साथ शुरू हो गये हंै, देवी रतनगढ़ माता का मंदिर एेतिहासिक है।
ऐसे हुई माँ की स्थापना
इतिहास में उल्लेखित प्रमाणों की माने तो मुगल शासक औरंजेब की कैद में शिवाजी आगरा में थे तब सबसे पहले गुरू समर्थ रामदास रतनगढ़ आए थे। उन्होंने यहां पर माँ की आराधना की और इसके बाद शिवाजी कैद से बाहर निकले।
एक प्राचीन कथा यह भी है
बुन्देलखण्ड की उत्तरीवृत्त में विंध्य पर्वतमाला के छोर पर स्थित रतनगढ़ पहले परमार राजवंश की राजधानी थी। 13वीं शताब्दी के प्रारंभ में अलाउद्दीन खिलजी ने इटावा के रास्ते जब बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया उस समय रतनगढ़ के राजा रतन सेन परमार थे। राजा रतन सेन के एक अवयस्क राजकुमार और एक राजकुमारी थी। राजकुमारी का नाम ''माण्डूला था। खिलजी से युद्घ के दौरान राजकुल के लोग जब मारे गए बस केवल राजकुमार एवं राजकुमारी ही जीवित रह गए थे। दुश्मनों के हाथ न लग पाएं इसलिए दोनों ने घास-फूस एकत्रित कर आग लगाकर अपने प्राण त्याग दिए थे। जहां राजकुमारी ने प्राण त्यागे उसी जगह छोटी सी मढिय़ा बना दी गई थी और राजकुमार के प्राण त्यागने के स्थान पर एक चबूतरा। यही वह दो प्राचीन स्थान हंै जिन्हे देवी रतनगढ़ एवं कुंवर बाबा के नाम से जाना जाता है।