जनमानस
संवेदनाओं में कैसा अन्तर
हमारे राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखजऱ्ी ने कल (14.12.2015) एशियाटिक सोसाइटी,कोलकता में एक कार्यक्रम में कहा कि हमें अल्पसंख्यकों के अधिकारों और संवेदनाओं का आदर करना सीखना चाहिये और इसका पालन करना चाहिये।
क्या इस प्रकार एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में धर्म के आधार पर ही बनाये गए अल्पसंख्यक समाज की चिंता करने का परामर्श देना अनुचित नहीं? क्या राष्ट्रपति जी को समस्त भारतवासी एक सामान नहीं लगते कम से कम उनको तो अपने पद की गरिमा रखते हुए समस्त नागरिको के अधिकारों व संवेदनाओं का आदर करना चाहिये। वे एक सर्वोच्च संवैधानिक पद को सुशोभित कर रहे है अत: उन्हें इस प्रकार की समाज को भ्रमित करने वाली राजनीति से बचना चाहिये। यहां यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि विश्व के किसी भी कोने में अल्पसंख्यकों का जितना सम्मान व आदर भारत में है वह कहीं भी नाममात्र को भी नहीं मिलेगा। फिर भी बहुसंख्यकों को अनावश्यक परामर्श देने की परम्परा रुक नहीं रही, क्यों? क्या भारत में बहुसंख्यक होना कोई अपराध हो गया जो विभन्न अवसरों पर अनेक नेताओं व बुद्धिजीवियों द्वारा उपेक्षित होते रहते है। क्यों नहीं कोई अल्पसंख्यकों को दिए गए विशेषाधिकारों के कारण हो रहे बहुसंख्यकों के उत्पीडऩ पर चिंता करता? धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा संविधान में अस्पष्ट है परंतु धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होगा यह स्पष्ट है। धर्मनिरपेक्षता की वास्तविकता को समझना होगा, यह किसी पक्षपात को बढ़ावा नहीं देती। जबकि इसके अनुचित प्रयोग से अल्पसंख्यकों को निरन्तर विशेषाधिकार दिए जाते रहे है।
अत: सबको सोचना होगा कि सांप्रदायिक सौहार्द बना रहें और राष्ट्र प्रगति करे तो सभी की भावनाओं व संवेदनाओं का एक समान आदर रखना होगा।
विनोद कुमार सर्वोदय