जनमानस

कथनी और करनी के अन्तर की शिकार 'हिन्दी'

स्वतंत्रता के बाद गांव के अलावा कथनी और करनी का यदि सबसे अधिक दंश किसी ने झेला है तो वह है 'हिन्दी'। जिस तरह से शहरों के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर संगोष्ठियों एवं भाषणों के माध्यम से हम गांव के विकास की चर्चा करते रहे हैं, उसी तरह अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों, कॉलेजों एवं विदेश में पढ़ाकर हमारे राजनेता, नौकरशाह एवं प्रभावशाली लोग स्वतंत्रता के बाद से ही हिन्दी को बढ़ावा देने एवं प्रोत्साहित करने का पाखण्ड करते रहे हैं। हालांकि भोपाल में इसी वर्ष सितम्बर में आयोजित हुए दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के बाद हिन्दी को बढ़ावा देने की दिशा में प्रदेश में कुछ सकारात्मक प्रयास नजर आ रहे हैं। दिनांक 11-12 दिसंबर, 2015 को जीवाजी विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय हिन्दी विज्ञान सम्मेलन-2015 का आयोजन होना इसी दिशा में उठाया गया एक सकारात्मक कदम है।
जिस तरह से शहरों की चर्चा किये बिना हम गांव की वास्तविक स्थिति का आंकलन नहीं कर सकते हैं, उसी तरह अंग्रेजी की चर्चा किये बिना हिन्दी की वास्तविक स्थिति का आंकलन एवं उसकी कराह हमें सही ढंग से सुनाई नहीं देगी। गांव के विकास की बात करने वालों से पूछा जाये, कि आपने एवं आपके परिवार ने गांव में कितना समय गुजारा है। इसी तरह हिन्दी की पैरवी करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि आप अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम में पढ़ा रहे हैं अथवा नहीं। इससे बड़़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि जिस देश की आधी से अधिक आबादी गांव में रह रही हो, वहां पर स्वतंत्रता के 68 वर्षों बाद भी माननीय सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ रहा है कि कोर्ट की भाषा अंग्रेजी है। हमारी कथनी और करनी के अन्तर के कारण ही ऐसा लगता है कि हमें अभी आधी स्वतंत्रता ही मिली है, क्योंकि देश से सिर्फ अंग्रेज गये हैं, अंग्रेजी नहीं।

प्रो. एस.के. सिंह

Next Story