नेताजी के परिजनों की जासूसी के मायने क्या हैं
- लाजपत राय अग्रवाल
तुम मुझे खून दो मै तुम्हें आजादी दूंगा का उद्घोष गुंजाने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की यादों को करोड़ों देशवासी भुला नहीं पाए हैं और न ही भुला पाएंगे। अंग्रेजी हुकूमत के सामने हमारे नेता जब वार्ताओं के दौर चला रहे थे, तब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने हुंकार भरी थी कि तुम मुझे खून दो मै तुम्हें आजादी दूंगा। नेताजी का यह घोष भारतवासियों ने ब्रह्मवाक्य के रूप में अंगीकार किया और महिलाओं ने अपने कर्णफूल, बेंदा और मंगलसूत्र तक नेताजी को अर्पित कर दिए थे। यह वह दौर था जब मोहनदास करमचन्द गांधी नमक तोड़ो और असहयोग आंदोलन से देशवासियों में चेतना फूंक रहे थे,लेकिन अन्र्तमन को छूने वाला अगर कोई शख्स था तो वह सिर्फ और सिर्फ सुभाष चन्द्र बोस। सुभाष की लोकप्रियता तब से और बढ़ गई थी जब 1933 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में अध्यक्ष चुने जाने के बाद गांधी और प.जवाहर लाल नेहरू से उनके मतभेद हो गए तो सुभाष ने अध्यक्ष पद को ठोकर मार दी । बाद के वर्षों में वे कांग्रेस की कलुषित राजनीति को छोड़कर जापान चले गए। जापान में रहते हुए उन्होंने आजाद हिन्द फौज का न सिर्फ गठन किया बल्कि दिल्ली चलो का नारा देकर अंग्रेजी हुकूमत की चूल्हें भी हिला दी थीं। यह पहला मौका था जब अंग्रेज किसी भारतीय से इतने विचलित हुए होंगे।
देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु का सच क्या है, क्या यह जानने का हक भारत वर्ष को नहीं है। कहा जाता है कि 18 अगस्त 1945 को ताईवान के निकट एक विमान दुर्घटना में उनकी मौत हो गई थी तो आज तक भारत सरकार ने उनकी मृत्यु की तारीख घोषित क्यों नहीं की। 23 जनवरी को नेताजी की जयंती तो मनाई जाती है उनकी पुण्यतिथि क्यों नहीं ? क्या रहस्य है नेताजी की मौत का, किसके स्वार्थ छिपे हैं उनकी मौत का सच छिपाकर रखने में । अभी तक तो देश पर कांग्रेस का शासन था, बात समझ में आती थी, लेकिन अब तो भाजपा की सरकार है। नेताजी के मामले में कांग्रेस को निशाना बनाती रही भाजपा अब क्यों चुप है। क्यों नहीं नेताजी की मौत से जुड़े सच पर पड़े पर्दे को हटाने का काम करती। यह सच सामने आए, इसलिए भी जरूरी है क्योंकि पिछले दिनों ही यह बात उजागर हुई है कि देश के पहले प्रधानमंत्री प.जवाहर लाल नेहरू ने आजादी के बाद से बीस साल तक सुभाष चन्द्र बोस के परिजनों की जासूसी कराई थी। उनके परिजनों से कौन मिलता है। नेताजी के परिवार में आने वाले और जाने वाले सभी पत्र खोलकर पहले आईबी के एजेंट पढ़ते थे और एक नोट् बनाकर अपने मुख्यालय को अवगत कराते थे। 1948 से लेकर 1968 तक आईबी चंूकि प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन रही है,इसलिए यह अंगुलियां प.नेहरू पर उठीं।
इंडिया बिगेस्ट कवर अप पुस्तक के लेखक अनुज धर ने खुलासा किया है कि जनवरी 2015 में प.बंगाल सरकार की कुछ फाइलें अनायास ही उन्हें पढऩे को मिल गईं थींं और यह तथ्य सार्वजनिक हो गया। सवाल उठ रहा है कि आखिर नेताजी के भतीजे शिशिर बोस और अमिय बोस पर नजर क्यों रखी जाती थी? इसके पीछे किसका हेतु छिपा था। जर्मनी में रह रहीं नेताजी की बेटी अनीता बोस भी जासूसी की बात से हैरान हैं। उन्हें भी समझ में नहीं आ रहा कि उनके परिजनों की जासूसी क्यों कराई जाती रही थी?
विश्लेषकों का मानना है कि नेताजी सुभाष चन्द्र के व्यक्तित्व का जादू ही ऐसा था अगर वे दुबारा देशवासियों के सामने आ जाते तो 1977 से पहले ही कांग्रेस अपदस्थ हो चुकी होती। संभव है प.जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद पहला आमचुनाव 1967 में हुआ था उसी दौर में कांग्रेस काल-कवलित हो जाती। इसीलिए नेताजी को लेकर कांग्रेस की सरकारें सदैव सशंकित रहीं । ऐसा माना जाता है कि भारत सरकार के पास नेताजी की रहस्यम मृत्यु से संबंधित डेढ़ सैक ड़ा ऐसी फाइलें हैं जिन पर पड़ी धूल हटाई जाए तो देश के सामने अब तक का सबसे बड़ा खुलासा हो सकता है। हम यह जानकर हैरान हैं कि जिस महामानव ने वर्ष 1945 में ही दुनिया से महाप्रयाण कर लिया उसे लेकर अब तक यानि सत्तर साल बाद भी हमारी सरकारों की चूल्हें हिल रहीं हैं। कुछ तो अनसुलझा पेंच है जिसे दिल्ली के तख्त पर बैठने वाली कोई भी सरकार चुप्पी साध जाती है। केन्द्र के गृह राज्य मंत्री हरिभाऊ प्रति भाऊ चौधरी का 17 दिसंबर 2014 को राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में दिया यह बयान ज्यादा परेशान कर रहा है कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु से जुड़ा कोई भी तथ्य वे इसलिए खुलासा नहीं कर सकते क्योंकि मित्र देश नाराज हो जाएंगे। अब यह निर्णय पाठकों को ही लेने दिया जाए कि भारत में बसने वाले सवा सौ करोड़ भारतीयों के लिए मित्र देशों की नाराजगी ज्यादा महत्वपूर्ण है या नेताजी सुभाष चन्द्र बोस।