जनमानस
पीडि़तों पर मरहम मृत्युदंड
मृत्युदंड की प्रासंगिकता पर प्रश्न हमेशा से ही उठते रहे हैं। मृत्युदंड के विरोध में मुख्यत: दो बातें बड़ी ही ठोस तरीके से रखी जाती हैं। पहली कि यह सभ्य समाज के लिए सरासर गलत है और दूसरी मृत्युदंड प्राप्त व्यक्ति के मानव अधिकारों का उल्लंघन। उक्त दोनों तथ्यों में जवाब में कुछ तर्कों पर चिंतन आवश्यक है। पहले तो मृत्युदंड बिरले से बिरला मामले में ही दिया जा रहा है, उस बिरले मामले को निर्णित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य में मार्गदर्शक सिद्धांत जारी किए गए हैं। सिर्फ अति जघन्य अपराधों में जिसमें अपराधी ने व्यक्ति ही नहीं पूरे समाज को झकझोर दिया है और किसी भी प्रकार की सहानुभूति का सामाजिक व्यवस्था पर एवं पीडि़त पक्ष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, ऐसे में मृत्युदंड ही एकमात्र उपचार है। मानव अधिकारों के हनन के विषय में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि मृत्युदंड से पात्र व्यक्ति द्वारा किए गए अपराध से समाज के निर्दोष व्यक्तियों के प्रभावित हुए मानव अधिकारों के अनुपात में उसे मिल रही मृत्युदंड की सजा अत्यंत ही न्यून है। जिसे हम आज सभ्य समाज कह रहे हैं।
पंकज वाधवानी