चाबहार से ग्वादर शिकंजा संभव, लेकिन...
चाबहार से ग्वादर शिकंजा संभव, लेकिन...
डॉ. रहीस सिंह
23 मई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तेहरान यात्रा के दौरान भारत एवं ईरान के मध्य सम्बंधों को एक नया आयाम देने के लिए 12 समझौते किए गये। इसके साथ ही चाबहार बंदरगाह के विकास से जुड़े द्विपक्षीय समझौते के अलावा भारत, अफगानिस्तान और ईरान ने परिवहन और ट्रांजिट कॉरिडोर पर एक त्रिपक्षीय समझौते पर दस्तखत भी किए जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्षेत्र के इतिहास की धारा बदल सकने वाला करार दिया है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस समझौते को 'एक नए अध्याय' की शुरुआत करार देते हुए कहा कि 'आज हम इतिहास बनते देख रहे हैं, न सिर्फ हम तीन देशों के लोगों के लिए बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए। यह संपर्कों का बंधन तैयार करेगा।' यह सच है कि यदि भारत-अफगानिस्तान-ईरान ट्रांजिट कॉरिडोर का भारत सही अर्थों में प्रयोग करने में सफल हुआ तो एक नया अध्याय आरम्भ होगा? लेकिन क्या वास्तव में भारत इसका प्रयोग ठीक उसी तरह से कर पाएगा जिस तरह से चीन 'चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर' का प्रयोग करेगा? क्या भारत चाबहार बंदरगाह का प्रयोग उसी प्रकार से कर पाएगा जिस तरह से चीन ग्वादर का प्रयोग कर रहा है या करना चाह रहा है? जब तक इन प्रश्नों के उत्तर से जुड़ा व्यवहारिक पक्ष सामने नहीं आता है, तब तक नये अध्यायों को उस श्रेणी से आगे बढऩे का हक क्या प्राप्त हो जाते है जिसमें पिछले अध्याय पूरे इतिहास की रचना कर रहे हैं?
भारत-ईरान के मध्य जो 12 समझौते हुए हैं यदि उनका प्रकृति एवं प्रभाव की दृष्टि से वर्गीकरण किया जाए तो दो समझौते, जिनमें भारत ईरान सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम और सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ाने हेतु संस्थागत सहयोग सम्बंधी कदम शामिल हैं, ट्रैक दो की कूटनीति को कामयाब बनाने के लिए पीपल-टू-पीपल कांटेक्ट को प्रोत्साहित कर सकते हैं। चूंकि भारत और फारस के इतिहास के बहुत से अध्याय कॉमन हैं। 11-12वीं सदी से ही फारसी परम्पराओं को लेकर आए सूफियों ने भारत की माटी के साथ ऐसा तालमेल बनाया जो आज तक जीवंत है। शासकों ने भी इस्लाम की उन मान्यताओं और रूढिय़ों से अलग, जिन्हें धार्मिक नेता लागू करने के प्रति प्रतिबद्ध थे, से अलग अफऱाशियाब की फारसी दरबारी व्यवस्था को लागू किया और भारतीय राजतंत्री दैवीय मान्यताओं में ढल गये। जब भारत-ईरान की जड़ें हिन्दी-फारसी परम्पराओं में सदियों से स्थान पाकर सुदृढ़ और स्वीकार्य रही हों तो ये भारत-ईरान सम्बंधों को ऐतिहासिक साझेदारी से स्वाभाविक साझेदारी की ओर ले जा सकने में निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं।
इसके बाद उन दो समझौतों का जिक्र जरूरी मालूम पड़ता है जिनमें दोनों सरकारों के बीच नीतिगत बातचीत व थिंक टैंक के बीच परिचर्चाओं तथा कूटनीतिज्ञों के प्रशिक्षण और वक्ताओं के आदान प्रदान के लिए सहयोग बढ़ाने सम्बंधी सहमतियां शामिल हैं, कूटनीति के पहले ट्रैक को मजबूत करने में सहयोगी बन सकती हैं। ये समझौते इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि पिछले एक दशक में ईरान के साथ भारत के सम्बंधों में कुछ उतार-चढ़ाव है, ईरान के प्रति भारतीय राजनय में कुछ सुसुप्तता देखी गयी, संवाद का अभाव भी व्यापक रूप में दिखा जबकि ये सभी पक्ष इससे उलट दिखने चाहिए थे। उक्त समझौता संवाद और सम्बद्धता की प्रक्रिया को बढ़ाने के साथ आपसी राजनयिक समझ में वृद्धि करेगा।
सबसे महत्वपूर्ण समझौता चाबहार बंदरगाह सम्बंधी रहा जिसमें चाबहार पोर्ट प्रोजेक्ट में विशेष नियमों के लिए एमओयू, बंदरगाह के विकास के लिए और स्टील रेल आयात करने के लिए 3000 करोड़ रुपये का क्रेडिट देने पर सहमति के साथ-साथ चाबहार जाहेदान रेलमार्ग के निर्माण के लिए सेवाएं देने के लिए एमओयू शामिल है। यदि गम्भीरता से विचार करें तो ईरान भारत के लिए कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है, इसलिए ईरान के साथ साझेदारी कई मायनों में लाभदायक हो सकती है। ध्यान रहे पिछले एक दशक में ईरान ने 70 प्रतिशत ग्लोबल ट्रेड चीन, ब्राजील, तुर्की और भारत के साथ किया है। हालांकि ईरान के विदेश व्यापार का बहुत छोटा टुकड़ा भारत को मिल पाता है, लेकिन इसके लिए दोषी ईरान नहीं है बल्कि भारत भी है जो लम्बे समय से कूटनीतिक निद्रा और विचलन का शिकार रहा है। वास्तविकता तो यह है कि भारत ईरान का इस्तेमाल सामरिक, कूटनीतिक और आर्थिक मोर्चों पर कर सकता था, लेकिन कर नहीं पाया। दरअसल ईरान एक ऐसी शक्ति है जिसकी मदद से बलूचिस्तान के जरिए पाकिस्तान की ताकत को कमजोर किया जा सकता है। कारण यह है कि पाकिस्तान बलूचिस्तान बार्डर से दक्षिणी ईरान सीमा पर ठीक वैसा ही कर रहा है, जैसा कि कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर करता है। बलूचिस्तान के परोम, पंजगुर, मश्किल जैसे सीमांत क्षेत्रों से आये दिन ईरानी गांवों में गोलियों और राकेट की बरसात होती है। ग्वादर बंदरगाह पूरी तरह चीन के नियंत्रण में है और ग्वादर से पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर तक चीन ने जिस तरह से भू-राजनीतिक स्थिति बदली है, उसे देखते हुए चाबहार महत्ता भारत के लिए बहुत बढ़ गयी है क्योंकि ग्वादर से चाबहार की दूरी केवल 60 मील है।
चाबहार दक्षिण पूर्व ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान प्रांत में स्थित एक बंदरगाह है, इसके जरिए भारत पाकिस्तान को बाइपास कर अफगानिस्तान के लिए रास्ता बना सकता है। चूंकि अफगानिस्तान की कोई भी सीमा समुद्र से नहीं मिलती और भारत के साथ इस देश के सुरक्षा सम्बंध और आर्थिक हित हैं। इसलिए चाबहार का इस दृष्टि से भी विशेष महत्व है। ईरान मध्य एशिया में और हिंद महासागर के उत्तरी हिस्से में बसे बाजारों तक आवागमन आसान बनाने के लिए चाबहार पोर्ट को एक ट्रांजिट हब के तौर पर विकसित करने की योजना बना रहा है। इस स्थिति में भारत की साझेदारी भारत को इन बाजारों तक पहुंचाने में सहायक बनेगी।अरब सागर में पाकिस्तान ने ग्वादर पोर्ट के विकास के जरिए चीन को भारत के खिलाफ बड़ा सामरिक अड्डा उपलब्ध करा रहा है। इस स्थिति में चाबहार बंदरगाह को विकसित करते ही भारत को अफगानिस्तान और ईरान के लिए समुद्री रास्ते से व्यापार-कारोबार बढ़ाने का अवसर तो मिलेगा ही, चीन-पाकिस्तान सामरिक गठजोड़ को भी जवाब देने का अवसर प्राप्त हो जाएगा। यदि भारत चाबहार से अपने रक्षा उद्देश्यों को जोडऩे में कामयाब हो जाता है तो भारत ग्वादर में चीनी ताकत को कुछ हद तक कम कर सकता है या फिर उसका मुकाबला कर सकता है। लेकिन देखना यह होगा कि चीन-ईरान आर्थिक और सामरिक साझेदारी भारत-ईरान के मुकाबले कमजोर है या सशक्त। उल्लेखनीय है कि पिछले वर्षों में जब पश्चिमी शक्तियां ईरान के खिलाफ हमले के लिए काउंटडाउन की व्यूह रचना बना रही थीं तब चीन ईरान के लिए ढाल बनकर खड़ा था जबकि भारत का रवैया काफी लचर रहा। चीन का ईरान में निवेश और व्यापार भारत के मुकाबले बहुत अधिक है, इसलिए ऐसा नहीं लगता कि भारत चीन-पाकिस्तान गठजोड़ के खिलाफ यहां कोई गठजोड़ तैयार कर पाएगा। हां चाबहार के जरिए भारत पाकिस्तान को बाइपास कर अफगानिस्तान के लिए मार्ग बना सकता है। चाबहार से ईरान के वर्तमान रोड नेटवर्क को अफगानिस्तान में जरांज तक जोड़ा जा सकता है जो बंदरगाह से 883 किलोमीटर दूरी पर है। हालांकि भारत ने 2009 में जरांज-डेलारम हाईवे द्वारा अफगानिस्तान के गारलैंड हाईवे तक कनेक्टिविटी प्राप्त की थी जो अफगानिस्तान हेरात, कंधार, काबुल और मजार-ए-शरीफ को जोड़ता है। इस तरह से भारत ईरान के जरिए अफगानिस्तान के साथ सम्बद्ध होकर पाकिस्तान को उसी तरह से घेर सकता है जिस तरह से चीन पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत को घेर रहा है। लेकिन यह सब केवल इन समझौतों के माध्यम से सम्भव नहीं हो पाएगा बल्कि उन्हें ग्राउंड रियलिटीज में परिवर्तित करना होगा।
फिलहाल भारत तेहरान के साथ स्थापित सम्बंधों के व्यापक सामरिक, आर्थिक और कूटनीति लाभांश प्राप्त कर सकता है। इसलिए इन समझौतों से केवल अफगानिस्तान या ईरान के इतिहास की दिशा नहीं बदलेगी बल्कि तीनों देशों के साझा इतिहास की दिशा भी बदल सकती है। लेकिन देखना यह है कि ईरान और अफगानिस्तान अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में संदेह नहीं विश्वास, प्रभुत्व नहीं सहयोग, बहिष्कार नहीं समावेश, के आदर्श पर चल पाएंगे कि नहीं क्योंकि अफगानिस्तान के लिए पाकिस्तान बड़ा भाई है और ईरान के लिए समधर्मी (क्योंकि दोनों इस्लामी स्टेट हैं) जबकि भारत की विदेश नीति ने अब यह तय नहीं किया है कि उसे पाकिस्तान के साथ किस ट्रैक पर आगे बढऩा है।