जम्मू-कश्मीर पर आत्मरक्षात्मक भारतीय नीति का औचित्य?
जम्मू-कश्मीर पर आत्मरक्षात्मक भारतीय नीति का औचित्य?
हिज्बुल मुजाहिदीन से जुड़ा कुख्यात आतंकी बुरहान वानी दक्षिण कश्मीर के बमडूरा-कोकरनाग में अपने दो साथियों सरताज और मासूम शाह के साथ सुरक्षा बलों के हाथों एक मुठभेड़ में मारा गया। त्राल का रहने वाला यह आतंकी 2010 से आतंक की दुनिया में सक्रिय था। हिज्बुल का 'पोस्टर बॉयÓ बना यह आतंकी सोशल मीडिया पर सक्रिय था और आतंकियों की नई पीढ़ी को जोडऩे में इसकी मुख्य भूमिका थी। बुरहान की मौत की खबर फैलते ही दक्षिण कश्मीर के विभिन्न हिस्सों में लोग विरोध प्रदर्शन करते हुए सड़कों पर उतर आए। सुरक्षा बलों पर हमले होने लगे। जवाबी कार्रवाई में पुलिस को अनेक स्थानों पर बल प्रयोग करना पड़ा। अगले दिन उसके गांव में उसके जनाजे में हजारों की भीड़ जमा हो गई। इसमें कई आतंकी भी मौजूद थे और बताया जाता है कि उन्होंने उसे गोलियों से 'सलामीÓ दी। प्रतिबंधित झण्डे भी फहराए गए।
इसके अतिरिक्त 40 से ज्यादा जगहों पर बिना उसके शव के 'नमाज-ए-जनाजाÓ का आयोजन किया गया। मातम के बाद सभी जगहों पर मौजूद भीड़ ने हिंसक रुख अपनाया। 'वेस्सु-कुलगामÓ में हिंदुओं और सिखों के घरों पर हमला हुआ। कुलगाम में भाजपा नेता गुलाम हसन जरगर और कोकरनाग में विधायक के घर जला दिये गये। सुरक्षाबलों के बंकर, पुलिस थाने, सरकारी संस्थान, वाहन आदि जलाए गए। पुलिसकर्मियों को बंधक बनाकर हथियार लूट लिए गए। कुछ पुलिसकर्मी अभी भी गायब हैं। उपद्रवियों ने एम्बुलेंस को भी नहीं छोड़ा। पिछले पांच दिन में 70 एम्बुलेंस क्षतिग्रस्त हुई हैं। वहीं ऊधमपुर में, जो प्राय: शांत क्षेत्र है, मजहबी उन्मादियों की उग्र भीड़ ने अमरनाथ यात्रियों को घेर लिया। उनके वाहनों पर पथराव किया, कुछ से मार-पीट की और कई यात्रियों को बंधक बना 'पाकिस्तान जिंदाबादÓ के नारे लगवाने के बाद छोड़ा। जम्मू में भी कुछ स्थानों पर उपद्रव की कोशिश की गई, लेकिन प्रशासन ने समय रहते हालात संभाल लिए। अमरनाथ यात्रा को रोकना पड़ा जो तीन दिन बाद फिर से शुरू हो सकी। पूरा घटनाक्रम जिस तरह से सामने आया है, उससे इसे स्वत: स्फूर्त या बुरहान की मौत से गुस्साए लोगों की प्रतिक्रिया के रूप में नहीं देखा जा सकता। यह पूरी तरह नियोजित और संगठित हिंसा है। कहा जा सकता है कि इसकी योजना पहले से तैयार थी। केवल मौके का इंतजार था जो उन्हें बुरहान की मौत ने दे दिया। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। सूत्रों के अनुसार 2016 में अब तक लगभग 80 आतंकवादी मारे गए हैं। सभी के जनाजों में भारी भीड़ जुटी है। किन्तु यदि इसका विश्लेषण किया जाए तो जनाजों में जुटने वाली भीड़ तमाशबीन ज्यादा है। उनमें से मु_ीभर ही हैं जो पत्थरबाजी में शामिल होते हैं। लेकिन अलगाववादियों ने इन जनाजों को शक्ति-प्रदर्शन का जरिया मान लिया है जिसे दिखाकर वे दिल्ली को डराना चाहते हैं और पाकिस्तान को यह एहसास कराना चाहते हैं कि उनकी ताकत अभी भी बनी हुई है। तात्कालिक घटना में जो उन्मादी उफान आया वह पाकिस्तान और अलगाववादियों के गठजोड़ में स्थानीय राजनीतिक दलों के आ मिलने से हुआ। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट कर कब्र में दफन बुरहान को जिंदा बुरहान से ज्यादा खतरनाक बताया। यह तथ्य बताता है कि राजनीतिक बढ़त हासिल करने के लिए उन्होंने अलगाववादियों के पक्ष का परोक्ष समर्थन करने से भी गुरेज नहीं किया। यहां यह उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार शुरुआती झटके से तेजी से उबर गई और तीन दिन के अंदर स्थिति नियंत्रण की ओर बढ़ गई। इसकी तुलना अगर उमर के नेतृत्व में 2010 के आंदोलन से निपटने की स्थिति से करें तो वर्तमान सरकार ने ज्यादा चुस्ती दिखाई है। उस समय घाटी में लगभग चार महीने तक अराजकता की स्थिति बनी रही थी और लगभग 120 नौजवानों को जान से हाथ धोना पड़ा था। इस स्थिति का विश्लेषण करते हुए वरिष्ठ पत्रकार जवाहरलाल कौल कहते हैं, 2010 के इस अनुभव के बाद भी भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बन सकी। इसके पीछे चार बड़ी समस्याएं हैं। पहली, नीतियों में दूरदृष्टि का अभाव है। तात्कालिक समस्या का तात्कालिक समाधान खोजने का प्रशासनिक स्वभाव आज तक कोई दीर्घकालिक नीति बना ही नहीं सका। दूसरा, सेकुलर चेहरा बनाए रखने के लिए मौलिक प्रश्नों से नजरें चुराना महंगा साबित होता रहा है। तीसरा, विकास तभी प्रभावी हो सकता है, बशर्ते वह आम आदमी तक सीधे पहुंचे। राज्य के लिए पैकेजों की घोषणा होने और उसके लाभ नीचे तक न पहुंचने से जनसामान्य में वंचित होने का भाव बढ़ता ही है, कम नहीं होता। चौथा, राजनीतिक-प्रशासनिक वर्ग द्वारा जनता से सीधा संवाद करने के स्थान पर बिचौलियों के माध्यम से बातचीत, जो जनता को भ्रमित करती है और बिचौलियों के लिए 'ब्लैकमेलिंगÓ का रास्ता खोलती है। बुरहान की मौत के अगले ही दिन हुर्रियत नेता गिलानी से शांति स्थापना में सहायता की अपील बताती है कि पिछली घटनाओं से सबक नहीं सीखा गया है।
वहीं विश्व हिन्दू परिषद के प्रवक्ता विजय शंकर तिवारी कहते हैं, नीति निर्माताओं को यह स्वीकार करना होगा कि वहाबी इस्लाम की अंतरराष्ट्रीय आंधी के इस दौर में जब कहीं मुस्लिम समुदाय जमा होता है तो जिहादी मानसिकता वाले तत्व पूरे समूह पर हावी होने लगते हैं। विकास और अन्य मुद्दे इस उन्माद के आगे गौण हो जाते हैं। इसके विपरीत सरकारें विकास के नारे को आगे रख समस्या के समाधान की कोशिश करती हैं, किन्तु अलगाववादियों की एक भावुक अपील महीनों के परिश्रम को झटके में ढेर कर देती है। 2016 में जम्मू-कश्मीर की परिस्थिति का विश्लेषण करते हुए हमें समस्या की जड़ तक तो जाना ही होगा, लेकिन वर्तमान और भविष्य के परिप्रेक्ष्य में इसके समाधान ढूंढने होंगे। दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक डॉ. शिव पाठक कहते हैं, आज का भारत 1947, 65, 71 या 90 का भारत नहीं है। आज वह एक उभरती हुई महाशक्ति और बड़ी आर्थिक ताकत है। समानान्तर रूप से पाकिस्तान में बिखराव बढ़ा है और आर्थिक ताकत कम हुई है। विश्व का शक्ति संतुलन बदला है, जिसमें भारत एक महत्वपूर्ण पक्ष है। आतंकवाद अब वैश्विक समस्या है और पाकिस्तान उसका केन्द्र-बिन्दु, यह दुनिया स्वीकार करने लगी है।Ó उक्त स्थिति में जम्मू-कश्मीर के प्रश्न का विश्लेषण भी नए संदर्भ में ही किया जाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर मामलों की विशेषज्ञ और स्वतंत्र पत्रकार आभा खन्ना कहती हैं, दुर्भाग्य से जम्मू-कश्मीर पर भारतीय नीति सदैव पाकिस्तान को ध्यान में रख कर बनाई गई तथा इसका मूल चरित्र आत्मरक्षात्मक तथा तात्कालिक रहा। दूसरे शब्दों में कहें तो एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में अपने भूभाग को लेकर ऐसी नीति, जिसमें समग्रता, निरंतरता और स्थायित्व हो, वह बन नहीं सकी। इसके अंतर्गत पाकिस्तान प्रेरित अलगाववादियों से निरंतर संवाद कायम रखने की कोशिश की गई, वहीं राज्य में मौजूद राष्ट्रवादी शक्तियों की निरंतर अनदेखी की गई। राज्य को लेकर आन्तरिक नीति की बात करें तो यह अतीत में कश्मीर केन्द्रित रही है। जम्मू हाइट्स के संपादक संत कुमार के अनुसार भौगोलिक रूप से बड़े अन्य दो भाग जम्मू व लद्दाख निरंतर उपेक्षित रहे। राज्य की पांथिक और जातीय विविधता को नजरअंदाज किया गया। इसके कारण जम्मू व लद्दाख की कश्मीर के साथ दूरी बढ़ती चली गई। रक्षा विशेषज्ञ आलोक बंसल पिछले कुछ वर्षों में जमीनी स्थिति में आए परिवर्तन की चर्चा करते हुए कहते हैं, आतंकवाद के प्रति अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है और अब कथित उग्रवादी संगठनों के लिए पहले जैसी सहानुभूति कहीं नहीं बची है। भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरा है और दुनिया के ज्यादातर देश इसके साथ अच्छे संबंध रखना चाहते हैं। दूसरी ओर कश्मीरी युवाओं का पाकिस्तान से बहुत हद तक मोह भंग हुआ है। वे समझ चुके हैं कि पाकिस्तान असफल राष्ट्रों की श्रेणी में जा खड़ा हुआ है।