पग-पग जाति, घर-घर खेंचू , काम करे वो ढेंचू-ढेंचू
- लोकेन्द्र पाराशर
भारत में लोकतंत्र की बात होती है तो हम छाती पीट-पीटकर कहते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने पर हमें गर्व है। लेकिन क्या यह हम छाती ठोककर कहने की स्थिति में छह दशक बाद भी आ पाए हैं कि हम एक संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य में निवास करते हैं। क्या सच में हमारे देश का मतदाता देश को बनाने और बचाने के लिए मतदान करता है? क्या हम लोकतंत्र की बजाय भीड़तंत्र के हामी हैं? क्या सच में राजनैतिक मूल्यों में आई गिरावट के लिए मतदाता की नादानी और संकुचित मानसिकता दोषी हैं?
यह प्रश्न तीन दिन से कौंध रहे हैं। मुरैना जिले के चुनावी चर्चा प्रवास के दौरान चंबल के किनारे चलते-चलते मतदाता से हुई वार्ता ने हमें इस कदर चौंकाया है कि यह मतदाता आदमी है या चौपाया। जहां चारा दिखेगा, चल देगा। भैंस, भैंस को देखेगी तो रैंकेगी। गाय, गाय को देखेगी तो रंभाएगी। गधा, गधा को मेहनतकश बताएगा। घोड़ा कहीं किसी को शायद ही नजर आएगा। घोड़ा देखना भी नहीं चाहते, क्योंकि उनके लिए सरपट दौडऩा कोई मायने नहीं रखता। भले ही पांच साल विकास करा कराकर घोड़े के पांव सूज गए हों।
चुनाव चर्चा प्रवास अंबाह विधानसभा से प्रारंभ हुआ। हमने पूछा पिछले दस साल में भाजपा सरकार ने कैसा काम किया है? उत्तर जो मिले वे लगभग इकजाई थे। साहब सरकार तो बहुत बढिय़ा काम कर रही है, लेकिन यह विधायक हमें नहीं चाहिए। क्यों भाई, क्या विधायक ने सार्वजनिक काम नहीं किए? नहीं ऐसी बात नहीं हैं, सड़कें तो खूबई बनी हैं, और कामऊ भए है बोहतई। तो फिर? फिर कछू नहीं, जा अंबाह में कोऊ दूसरी बेर जीतोई नइयां। जई फिर होगो। फिर भी काम किया है तो फिर मौका क्यों नहीं मिलना चाहिए? नई वो थोड़ो झुकके बात नहीं करता। पहले वालो बढिय़ा हतो। बासे जहां कहि देऊ वहीं बैठ जातो।
अंबाह में प्रतिनिधि चुनने का यह अंदाज देखकर हमारे सामाजिक सरोकारों के विकृत स्वरुप का अनुमान सहज लग रहा है। यह समाज आज भी जाति के आधार पर जनप्रतिनिधि से भी क्या अपेक्षा रखता है।
दिल में दर्द दबाए दिमनी पहुंचे। वहां से वर्तमान विधायक शिवमंगल सिंह तोमर हैं। उनकी जीत का आधार भी तोमर था और उनके जितने पार्टी प्रतिद्वंद्वी हैं लगभग सभी तोमर हैं। यहां विधायक को दूर जमीन में बैठाने की बात तो होनी ही नहीं थी, लेकिन जमीन पर दिखाई दे रहे बेतहाशा विकास कार्यों की अनदेखी के अनूठे अजूबे असंख्य थे। बहुत पुल बने, सड़कें बनीं, लेकिन हर घर के दरवाजे पर खेंचू (हैण्डपंप) क्यों नहीं लगा? जिसके घर के बाहर खेंचू नहीं, उसके परिवार के वोट भी नहीं। दिमनी विधायक का एक और दोष दिखाई दिया कि दबंगी की प्रतीक बंदूक के लायसेंस उन्होंने ज्यादा नहीं बनवाए। ऐसा विधायक किस काम का है जो परिवार के एक-एक सदस्य को हथियार ना दिलवाए।
मुरैना के विधायक अब भाजपाई हो गए हैं। उनके व्यक्तिगत बाहुबल की चर्चा खूब है। उन्होंने एक जाति विशेष की गुंडई से मुरैना के व्यापार और नारी के सम्मान को बचाया, ऐसा लोगों ने बताया। उन्होंने विकास क्या-क्या कराया, यह कोई नहीं बता पाया। यह विधायक अब कहां से चुनाव लड़ेगा, सबने बस यही कयास लगाया।
जौरा में जंग ही निराली है। भले दस साल से भाजपा की सरकार है, लेकिन यहां उसका सूपड़ा साफ है। बसपा और कांग्रेस की बात हो रही है, लेकिन यहां की जनता इस बार भाजपा से किसी दमदारी की बाट जोह रही है। जौरा में कैलारस भी है। अत्यंत सम्पन्न व्यापारिक केन्द्र है। एक पार्टी के संभावित उम्मीदवार की आपराधिक गतिविधियों से यहां के व्यापारी डरे हुए हैं। पता नहीं कितने मकानों पर कितने गुण्डे ताले डालेंगे, यह सोचकर सहमे हुए हैं। वे मानते हैं कि वर्तमान विधायक ने काम नहीं किए, बदनामी भी कराई है, लेकिन अपराधी न जीते, इसलिए ढीले-ढाले की जीत में ही भलाई है। सबलगढ़ आते-आते बातें कुछ बदलने लगी। सुमावली के एक बड़े गांव में देखा कि तमाम खेंचू लगाने की तैयारी चल रही थी। ट्रक भर-भरकर सामान आ गया। हमने पूछा कि आचार संहिता में खेंचू कैसे खुदेंगे? जवाब मिला यह खेंचू नेताजी की जेब से लग रहे हैं, सरकारी पैसे से नहीं। उन्हें वोट खेंचना हैं तो यह खेेंचू लगाने ही पड़ेंगे। यह गांव क्वारी नदी के किनारे है। पानी की कोई कमी नहीं है, लेकिन क्या नेता, क्या मतदाता, सिद्धान्त और सम्मान से जीने के लिए जो पानी आंखों में चाहिए, उसकी चमक दूर तक नहीं है।
स्वतंत्रता संग्राम के सुखद परिणाम के बाद हमारे राजनैतिक पंडितों ने स्व-राज की कैसी सुंदर सुखद चित्रकारी की थी। बहुत स्पष्ट चित्र। जिसका मूल था जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार। यानि हर द्वार से सरकार का रास्ता निकलकर दिल्ली और भोपाल से सरपट जुड़ता है। लेकिन छह दशक में भी इस रास्ते की सरपट कल्पना सडांध ही मार रही है। कही जाति का दलदल है तो कहीं नोटों का नरक। यह सही है कि भारत के तमाम भागों में यह विकृति आज दिखाई नहीं देती। परिणामत: वहां विकास है, शिक्षा है, उच्च जीवन स्तर है। प्रश्न है कि क्या हमारे मुरैना और भिण्ड जैसे क्षेत्रों को उनका अनुसरण नहीं करना चाहिए, जो आज शिखर की ओर हैं। क्या उन्हें गुजरात, इन्दौर, बैंगलौर बनने का सपना नहीं देखना चाहिए। यह प्रश्न है और इसका उत्तर देने का वक्त भी नजदीक है।