इस पाश्चात्य घृष्टता का मुंहतोड़ जवाब दो
हमारा देश भारत वर्ष आदिकाल से ही प्रकृति का प्रबल समर्थक रहा है। प्रकृति की पूजा और उपासना हमारे जीवन का अभिन्न अंग था। सदा से ही अप्राकृतिक वस्तुओं एवं अप्राकृतिक कृत्यों को अपने जीवन तथा अपने सामाजिक व्यवस्थाओं से अलग करते हुए प्रकृति की रक्षा कर अपने जीवन में वर्तमान और भविष्य को सुनिश्चित करने का प्रयास किया है लेकिन हजारों वर्षों तक मुगलों और अंग्रेजों की गुलामी ने हमारी सामाजिक व्यवस्था की परिपाटी को बुरी तरह प्रभावित किया है। जिसके कारण हमारी जीवन पद्धति में भी अप्रत्याशित विकृति आई है। हम अपने महान कृत्य को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति की अवधारणा पर अश्रित होते जा रहे है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि वर्तमान में यह पाश्चात्य विकृति हमारे राष्ट्रीय राजनीति पर भी पूरी तरह हावी हो चुकी है। यही कारण है कि हमारी वर्तमान सरकार समलैंगिकता को चर्चा का विषय बना कर स्वयं को प्रतिष्ठित करने का प्रयास कर रही है। भारत जैसे देश में अप्राकृतिक कृत्य का समर्थन निश्चित ही भारत की महान गरिमा को कम करने का षड्यंत्र है।
आज हमारी केन्द्र सरकार के जितने भी नेता या मंत्री हैं, जो इस अप्राकृतिक कृत्य की वकालत कर रहे हैं, वे भारतीय नहीं है और अगर हैं भी तो निश्चित तौर पर उनके रगों में कहीं न कहीं विदेशी नापाक रक्त समाहित है वरना वे ऐसे विकृत विधेयक का समर्थन करने के पूर्व सौ बार सोचते जो पशुओं को भी स्वीकार नहीं है।
आज हमारे देश में जितनी भी संक्रमित बीमारिया आई है वे सभी की सभी पाश्चात्य विकारों की देन है जिसे हमने स्वयं धारण किया है। अब समय बीत चुका है। भारत के कण-कण में व्याप्त मर्यादा, हमारे आदर्श और हमारी परंपरा का मखौल उड़ाने वाले इस अप्राकृतिक विधेयक को जड़ से उखाड़ फैंकने की जरूरत है। भारत का कोई भी व्यक्ति, जिसे भारत से प्रेम है उन्हें एक बार पुन: स्वामी विवेकानन्द जी के चरित्र का अवलोकन करना चाहिए निश्चित ही यह स्वयं ही प्रकट हो जाएगा कि हम कौन है तथा हमें इस विषम परिस्थिति में क्या करना चाहिए। उठो जागो और इस पाश्चात्य घृष्टता का मुंह तोड़ जवाब दो।
प्रवीण प्रजापति, ग्वालियर