संगीत के शिखर
सम्राट अकबर ने एक बार तानसेन से कहा, तुम्हारे जैसा गायक इस पृथ्वी पर दूसरा नहीं है, ना ही कभी होगा। तानसेन ने जवाब दिया, हुजूर, मैं तो अपने गुरु स्वामी हरिदास के सामने तो कण-मात्र भी नहीं। अकबर बोले, अपने गुरु को लेकर आओ, मैं उनका संगीत सुनना चाहता हूं। मैं मुंहमांगा धन दूंगा। तानसेन ने कहा, हुजूर, न तो उन्हें संगीत सुनाने को राजी किया जा सकता है, न कुछ लेने को। एक ही उपाय है, जब वे गा रहे हों, तब आप छिपकर सुन लें..। अकबर तुरंत तैयार हो गए। कड़कड़ाती ठंडी रात में अकबर हरिदास की झोंपड़ी के बाहर वृक्ष के पीछे छिप गए। तड़के तीन बजे स्वामी हरिदास ने गाना शुरू किया। गाना खत्म होने पर अकबर की आंखों में आंसू थे।
हरिदास पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों को संगीत सुनाया करते थे। मान्यता है कि जब वे भक्ति-पद गाते, तो राधा-कृष्ण रासलीला के लिए आ जाते थे।
कोलग्राम, अलीगढ़ में जन्मे हरिदास जी संन्यास-दीक्षा लेकर वृंदावन आ गए थे। निधिवन में रहकर वे ठाकुर जी की सेवा करने लगे। बाद में सेवा-कार्य अपने अनुज को सौंप कर वे नहीं लौटे। काव्य और शास्त्रीय संगीत के महान आचार्य स्वामी हरिदास ने सखी संप्रदाय की नींव रखी थी। उन्होंने राधा-कृष्ण की भक्ति में पगा काव्य लिखा। उन्हें शास्त्रीय संगीत में ठुमरी का प्रवर्तक माना जाता है। केलिमाल एवं अष्टदश सिद्धांत उनके ग्रंथ हैं। उन्होंने भारतीय दर्शन के द्वैत, अद्वैत एवं विशिष्टाद्वैत आदि मतों के सम्मिलन से इच्छाद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन किया।