ज्योतिर्गमय
ज्ञान बांटने से बढ़ता है। यदि इसे आप अपने तक ही सीमित रखेंगे तो यह खत्म हो जाएगा। अब कैसे इस ज्ञान को फैलाना है, इसके लिए निपुणता की आवश्यकता है।
कई लोग ऐसे हैं, जिनके जीवन में मन की गहराई और सच्चाई (लगन) का नाम नहीं। लोगों को इस तथ्य से अवगत कराना आप पर निर्भर है।
इसीलिए सत्संग का विधान है। सत्संग मतलब सत्य का साथ। आम आदमी के लिए सब कुछ सीखना संभव नहीं। मगर आप ऐसा कुछ सीख सकते हैं जिससे आप सब कुछ जान सकते हैं। ज्यादातर लोग सोचते हैं कि संतोष की अनुभूति एक तरह की चरम सीमा है, जहां से आगे आप कुछ और अनुभव नहीं कर पाते।
लेकिन संतोष से यह मतलब नहीं है कि सब कुछ मिल गया। बस अब चुपचाप बैठ जाओ। मैं कहता हूं कि अपना काम करते वक्त पूरी तरह उसमें लीन रहो। यह एक तरह का संतोष है, जिसमें उत्साह है, शक्ति है। यहीं पर सच्चा सुख है। इसी को कर्मयोग कहते हैं।
आपको पता है कि आप कोई भी कार्य कर्मयोगी या अकर्मयोगी बनकर कर सकते हैं। मान लीजिए आप कोई स्कूल शिक्षक हैं. आप जब हर रोज स्कूल जाते हैं तो यह सोचकर जाते हैं कि आज विद्यार्थियों के लिए कौन सा पाठ तैयार करेंगे। या आप पढ़ाई को ज्यादा रसपूर्ण, ज्यादा आनंददायी कैसे बनाएं!
यह एक कर्मयोगी शिक्षक की सोच है। इसके ठीक विपरीत अकर्मयोगी शिक्षक सोचता है कि वह कब अपनी पढ़ाई खत्म करे. उसकी पढ़ाई घंटी बजने से पहले ही खत्म हो जाती है। अकर्मयोगी शिक्षक का पूरा ध्यान ज्यादातर समय महीने के आखिर में मिलने वाले अपने वेतन पर ही लगा रहता है। और किसी बात से उसे मतलब नहीं होता।
इसी तरह आप कर्म या अकर्मयोगी गृहिणी हो सकती हैं। कर्मयोगी पत्नी घर के सदस्यों और घर की छोटी-छोटी चीजों का ध्यान रखती है और अकर्मयोगी पत्नी घर की किसी बात से ज्यादा मतलब नहीं रखती कि घर में क्या हो रहा है और क्या नहीं हो रहा है। इस तरह हम जिंदगी के सभी कार्य कर्मयोगी या अकर्मयोगी बनकर करते जाते हैं।