इसे ही कहते हैं 56 इंच का सीना
- लोकेन्द्र पाराशर
भारतीय नौ सेना के युद्धपोत अरिहंत को जब दो अन्य सहयोगी युद्धपोतों के साथ खाड़ी देशों की ओर रवाना कर दिया गया, तब किसी को यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह युद्धपोत भारतीय नागरिकों को आईएसआईएस से मुक्त कराने सीधी कार्रवाई के लिए रवाना हुए हैं। चाहे मीडिया रहा हो या आम भारतीय, उसके लिए यह कल्पना का भी विषय कैसे हो सकता था कि हम सीमाएं तोड़कर अपने नागरिकों को बचा पाएं। लेकिन यह हुआ। परिणाम ऐसा गौरवान्वित करने वाला कि आतंक के चंगुल से भारतीय छूटे, बिनी किसी खरोंच के। इसके लिए अरिहंत को पूरा सागर लांघना भी नहीं पड़ा।
नई सरकार के इस देशभक्त अंदाज का सत्कार किसी ने नहीं किया। समाचार पत्रों में छुपा छुपूकर सिंगल कॉलम कहीं जगह मिली होगी, लेकिन वर्षों से सत्ता की चासनी चाट-चाटकर मलंग हुए राजनैतिक घरानों के दिलों में तो इतनी भी जगह देश के नव स्वाभिमान के प्रति दिखाई नहीं दी। ऐसे अद्भुत और अद्वितीय पराक्रम पर किसी सड़ी बहस कराने वाले को भी बड़ी बहस याद नहीं आई।
खैर! इसी संकट के आसपास पाकिस्तान ने आदतन किन्तु नई सरकार के टेम्परामेंट के परीक्षण के लिए गोलीबारी शुरु कर दी। हमारे देश के सत्ता मुक्त राजनेताओं ने पाकिस्तान की आलोचना तो नहीं की, बल्कि नरेन्द्र मोदी के 56 इंच के सीने पर तोहमत कसने लगे। ऐसा लगा जैसे हमला पाकिस्तान ने भारत पर नहीं किया बल्कि उन भाड़े के गुण्डों ने सीधे प्रधानमंत्री को अखाड़े में ललकारा हो जिन्हें इन्हीं नेताओं ने बिरयानी खिला-खिलाकर मलंग किया है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे देश की राजनीति का एक बड़ा हिस्सा वही है जो पहले अंग्रेजों का गुलाम होता था और अब उस गुलामी का गुलाम है जिसने उसे चंद घरानों की चाटुकारिता और नपुंसकता के गर्त में धकेल दिया है। लेकिन दूसरा सत्य यह है कि वक्त करवट ले चुका है। उस समय जब विरोधी दुर्भाग्यपूर्ण बयानवाजी कर रहे थे, परन्तु प्रधानमंत्री दुश्मन को ध्वस्त करने का ताना बुन रहे थे। गोलीबारी के बीच ही अथक प्रयत्नों के बाद सीमा सुरक्षा बल के एक अधिकारी से बात हुई। हमने बहुत दुखी मन से पूछा-'' सर! यह क्या हो रहा है, अब हमारी नई सरकार भी!'' उधर से उत्तर जो मिला उसमें पाकिस्तान बार्डर पर तैनात अधिकारी का स्वर इस बार कुछ खास था-''कोई चिंता की बात नहीं, मौसम बदल गया है, हमें क्या करना है यह दिल्ली से बार-बार नहीं पूछने का आदेश मिला है। अब इसके लिए बी.एस.एफ. ही काफी है। सेना की तो जरुरत ही नहीं है। छटी का दूध याद दिला दिया...को''। परिणाम हुआ कि पहली बार पाकिस्तान गोलीबारी रुकवाने संयुक्त राष्ट्र गया, हम नहीं। समझने के लिए काफी है।
सच तो यह है कि 67 सालों से राजनीति को चेरी और राज्य को दासी बनाए रहे मलंग यह गले ही नहीं उतार पा रहे हैं कि अब उनकी नहीं, बल्कि उसकी सुनी जाती है जिसने गरीब के घर में जन्म लेकर जज्बे से यह स्थान हासिल किया। जो राष्ट्रवाद के प्रवाह में पला बढ़ा है। जिसने सत्ता की पहली सीढ़ी चढ़ते ही राष्ट्र देवता के चरणों में अपना माथा टेका है। उसे पता है पहले क्या करना है और बाद में क्या? आप बोलते रहिए कि हमारे प्रधानमंत्री को विदेशी दौरों से फुर्सत नहीं, लेकिन देश को पता है कि विदेशों में बर्बाद हुई भारत की साख को समेटने का अर्थ कितना दूरगामी है। यह 'आंख दिखाएंगे और न दिखाने देंगे' की दृढ़ और स्पष्ट नीति का ही परिणाम है कि पड़ौसियों को भी समझ आ रहा है कि बड़ा भाई ईमानदार है, उसकी शक्ति में ही अपनी सुरक्षा निहित है। अभी तक हम सिर्फ अपनी कायरता छुपाने के लिए यह कहकर शुतुरमुर्ग की तरह मुंंह ढंक लेते थे कि भारत कभी हमलावर देश नहीं रहा। लेकिन यह नहीं बताते थे कि पिटने पर भी भारत की यही परंपरा रहेगी क्या कि जो हमारे सिर काटे उसे बिरयानी खिलाएं। बेशर्म, निर्लज्ज, कायर कभी इस मातृभूमि के नहीं हुए।
वे जो कहते हैं, कहते रहें, किन्तु आज समस्त देशभक्त भारतवासियों को कर्तव्य निभाने का अवसर आ गया है। राष्ट्र रक्षा के व्रती मौन साधक की साधना भंग करने की चेष्टा को नेस्तनाबूत करना होगा। प्रश्न यह नहीं है कि कितने सैनिकों की शहादत पर कितने आतंकी मारे गए, बल्कि गौरव यह है कि मात्र पांच दिनों में हमारी सेना उस सीमा को लांघ गई, जिसे 67 साल में नहीं लांघ सकी। हमारी सेना न पहले कमजोर थी न आज कमजोर है। कहते है कि 'युद्ध बंदूक से कम, बंदूक के पीछे काम करने वाले हृदय से ज्यादा जीते जाते हैं।Ó। आज यह कहावत चरितार्थ हो रही है। केवल एक साल में भारतीय सेना की तकनीकि क्षमता बेतहाशा बढ़ गई हो, ऐसा भी नहीं है। लेकिन एक साल में भारतीय सेना का सम्मान जिस प्रकार सहेजा गया है, उसने सेना को पराक्रम के नए शिखर छूने का साहस तो निश्चित ही दिया है। श्री अजीत दोभाल नामक जिस व्यक्तित्व की राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाने पर कांग्रेस ने चिल्लपौं मचाई थी, आज उन्हें सैल्यूट करने का मन करता है। राष्ट्र रक्षा के लिए उनके गुप्त प्रयासों का उल्लेख नहीं किया जा सकता, लेकिन जहां तक मैंने उन्हें निकट से देखा है, उनकी रगों में सिर्फ एक ही रक्त बहता है वह है 'राष्ट्राभिमान का रक्त'। आज की राजनीति में उन्हें चाणक्य सा सीमा सुरक्षा सूत्र कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा।
भारतीय सेना ने पहली बार वह कार्य कर दिखाया है जिसके लिए अभी तक इजराइली सेना और एकाध बार अमरीकी फौज का बखान किया जाता था। दूसरे देश की सीमा मे दुश्मन को ध्वस्त करके भारत ने अपने इरादे साफ कर दिए हैं कि सीमाओं का सीना चीरना हमारी सेनाओं को आता है। दुर्भाग्य से हमारे मीडिया ने इस कीर्तिमान को टीआरपी की पटरी पर पटक दिया है। वह आज ही पूछने लगी कि पाकिस्तान के साथ भी ऐसा ही होगा क्या? कैसी अपरिपक्वता है यह? अरे भाई तुम चुप होना सीख लो तो बहुतेरी समस्याएं तो चुटकी बजाते निपट जाएं। मुश्किल यह है कि तुम्हें तो म्यामार की घटना के फुटेज भी चाहिए। आज हमारी सरकार की सफलता देखिए कि खुद म्यांमार ने हमारी मदद की। अपनी धरती पर घुसने की न सिर्फ अनुमति दी, बल्कि उनकी सेनाओं ने भी यथा संभव भूमिका निभाई। इससे पहले की सरकार तो अपने एक मात्र छोटे भाई नेपाल को भी नहीं संभाल पाई थी। समय की प्रतीक्षा कीजिए, क्योंकि पाकिस्तान में भी किसी जमात के जज्बात उन बच्चों के लिए तो होते ही होंगे जिन्हें क्वेटा के आर्मी स्कूल में गोलियों से भून दिया गया। हो सकता है वहां भी एक दिन आतंक के विरुद्ध भारतीय पहल की अपेक्षा किसी तबके में जाग्रत हो। फिलहाल तो सिर्फ इतना ही कि इसे ही कहते हैं नरेन्द्र मोदी का 56 इंच का सीना, जिसमें कूटकूटकर राष्ट्रवाद का फौलाद भरा है।