तीन तलाक पर प्रगतिशील बने मुस्लिम समाज

Update: 2016-10-15 00:00 GMT

मुस्लिम समाज में यह ग़लतफ़हमी बड़े तौर पर विद्यमान है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ मुस्लिम धर्म का एक हिस्सा है। किन्तु इस्लाम के गहरे जानकार यह बताते हैं कि ऐसा कतई नहीं है।  मुस्लिम पर्सनल लॉ में केवल विवाह, उत्तराधिकार, संरक्षण, गोद लेना तथा भरण-पोषण जैसे मामलों से सम्बंधित क़ानून सम्मिलित हैं। मुस्लिम बंधु यह समझें कि इन दुनियावी चीजों से किसी धर्म का मूल चरित्र नहीं बदलता है।

भारत में समान नागरिक संहिता पर विवाद कोई नया मामला नहीं है। केंद्र सरकार द्वारा तीन तलाक के विरोध में न्यायालय में हलफनामा दर्ज कराने के बाद यह विवाद पुन: उभर गया है। अब आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने तीन तलाक के मुद्दे पर विधि आयोग का बहिष्कार करने का निर्णय कर स्वयं को मध्ययुगीन बने रहने का नया सन्देश भी दे दिया है और विधि आयोग को चुनौती भी! विधि आयोग ने हाल ही में तीन तलाक पर और समान नागरिक संहिता पर कुछ प्रश्न अपनी अधिकृत वेबसाइट पर जारी किये हैं। इस पर आल इंडिया मुस्लिम ला बोर्ड ने वाक युद्ध छेड़ दिया है जबकि सम्पूर्ण प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विश्व के कई मुस्लिम देशों जैसे मलेशिया, ईरान और तो और पाकिस्तान में भी तीन तलाक की प्रक्रिया को समाप्त कर दिया गया है। मुस्लिम ला बोर्ड तीन तलाक के विरोध में देश भर में और स्वयं मुस्लिम समाज में ही बन रहे वातावरण से ऐसा घबराया कि बोर्ड ने बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की और कहा कि लॉ कमीशन देश के मुसलमानों के साथ पक्षपात कर रहा है, अत: वह लॉ कमीशन का बॉयकॉट करेंगे और इसमें सम्मिलित नहीं होंगे। हड़बड़ाये मुस्लिम लॉ बोर्ड के महासचिव मोहम्मद वाली रहमानी ने सप्रंग सरकार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तरह-तरह के आरोप लगा दिए हैं। केंद्र सरकार ने हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि तीन तलाक महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव है और संविधान के मुताबिक लैंगिक आधार पर महिलाओं की गरिमा से कोई समझौता नहीं हो सकता। तीन तलाक के प्रश्न  पर मणिपुर की राज्यपाल और मोदी सरकार में अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री रह चुकीं नजमा हेपतुल्ला ने कहा है कि समाज के कुछ तबकों में तीन तलाक की गलत व्याख्या की जा रही है, क्योंकि इस्लाम में एक बार में तीन तलाक की कोई अवधारणा है ही नहीं।

समान नागरिक संहिता एक सेक्युलर कानून होता है जो सभी धर्मों के लोगों के लिये समान रूप से लागू होता है। यह किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है। संविधान के आर्टिकल 44 में स्पष्ट लिखा है कि सरकार इस बात का प्रयत्न करेगी कि एक दिन देश भर में यूनिफार्म सिविल कोड लागू हो जाए। यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने का मतलब ये है कि शादी, तलाक और जमीन जायदाद का बंटवारा करने में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होगा। अभी मुस्लिमों के लिए इस देश में अलग कानून चलता है जिसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कहते हैं यह गैर सरकारी संगठन है। इसमें मुस्लिमों में ही परस्पर सरफुटौवल की हद तक मतभेद हैं जिसके चलते  साल 2005 में, शियाओं ने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ से सम्बन्ध तोड़ लिए और उन्होंने ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के रूप में स्वतंत्र लॉ बोर्ड का गठन किया।

उल्लेखनीय है कि मुसलमान महिला को तलाक देने का अधिकार नहीं है, जबकि मुसलमान पुरुष न सिर्फ तीन बार तलाक कह कर तलाक ले सकता है बल्कि एक साथ एक से अधिक पत्नियां भी रख सकता है।  मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मुस्लिमों के इस तरह के ही कुरानी या शरियत कानून को संचालित करता है या उनकी रक्षा करता है।

मुस्लिम समाज में यह ग़लतफ़हमी बड़े तौर पर विद्यमान है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ मुस्लिम धर्म का एक हिस्सा है। किन्तु इस्लाम के गहरे जानकार यह बताते हैं कि ऐसा कतई नहीं है।  मुस्लिम पर्सनल लॉ में केवल विवाह, उत्तराधिकार, संरक्षण, गोद लेना तथा भरण-पोषण जैसे मामलों से सम्बंधित क़ानून सम्मिलित हैं। मुस्लिम बंधु यह समझें कि इन दुनियावी चीजों से किसी धर्म का मूल चरित्र नहीं बदलता है।
पर्सनल लॉ मामले में महत्वपूर्ण प्रगति तब हुई थी जब 18 वें विधि आयोग ने दो महत्वपूर्ण सिफारिशें की थीं, जो समान नागरिक संहिता की अवधारणा पर आधारित नहीं थीं, किंतु इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई थी। इसमें 1954 के विशेष विवाह अधिनियम में संशोधन कर भेदभावपूर्ण प्रावधानों को खत्म करना तथा सभी विवाहों का पंजीकरण अनिवार्य करना शामिल था। किन्तु तब भी राजनैतिक संकल्पशीलता के अभाव के चलते इस दिशा में प्रगति नहीं हो पाई थी। अब यह मसला तूल पकड़ता जा रहा है, क्योंकि मुस्लिम महिलाओं ने 50 हजार हस्ताक्षर करवा कर तीन तलाक की प्रथा को समाप्त करने की मांग की है। इससे मुस्लिम समाज का बदलता चेहरा भी सामने आता है।
 हाल ही में जब कोर्ट ने केंद्र से तीन तलाक के विषय में कोर्ट में हलफनामा प्रस्तुत करने के लिए कहा तब नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछली सरकारों की तरह इस मुद्दे पर कन्नी काटने व चुप बैठे रहने के स्थान पर संविधान की धारा 44 के मर्म को समझ कर अपनी जिम्मेदारी निभाई व तीन तलाक के मुद्दे पर स्पष्ट असहमति व्यक्त कर दी है। 1840 में यह विवाद प्रथम बार उभरा था और 1985 में राजीव गांधी सरकार के समय तो शाह बानो प्रकरण से यूनिफार्म सिविल कोड अतीव सुखिऱ्यों में आया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने बानो के पूर्व पति को गुजारा भत्ता देने का ऑर्डर दिया था। इस मामले में न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि पर्सनल लॉ में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होना चाहिए। तब लगा था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी इतिहास रचेंगे किन्तु अंतत: वे भी तुष्टिकरण राजनीति के पथ पर चलते दिखाई पड़े थे। रहा भाजपा का प्रश्न तो उसका प्रारम्भ से ही ‘यूनिफार्म सिविल कोड’ पर उसका स्पष्ट एजेंडा रहा है। भाजपा की यह स्पष्ट मान्यता रही है कि संविधान की भावना के विपरीत यूनिफार्म सिविल कोड को लागू करने से पीछे हटने के पीछे तुष्टिकरण की राजनीति व एक वर्ग विशेष के वोटों को थोकबंद रूप में पाने का मुख्य कारण रहा है।  मोदी सरकार ने समान नागरिक संहिता लागू करने की संभावना तलाशने के लिए लॉ कमीशन की सलाह मांगी है, वह भी तब जब माननीय उच्चतम न्यायालय ने पूछा कि इसे लागू करने के लिए सरकार क्या कर रही है? वस्तुत: यह कार्य स्वतंत्रता के तुरंत बाद आरम्भ हो जाना चाहिए था।

संविधान निर्माता अम्बेडकर की स्पष्ट मान्यता थी कि संविधान की धारा-44 के अनुसार देश में शीघ्र ही समान नागरिक संहिता लागू करा देनी चाहिए। स्पष्ट तथ्य है कि भारत से अलग अलग कानूनों वाली व्यवस्था के उन्मूलन हेतु ही संविधान में धारा 44 का समावेश किया गया था। वस्तुस्थिति यह थी कि भारत में रह रहे मुसलमान 60 के दशक तक यह मान्यता मान कर चल रहे थे सेकुलर भारत में आज नहीं तो कल शरिया कानून समाप्त होकर कामन सिविल कोड लागू होगा ही व मुस्लिम इस हेतु मानसिक तौर पर तैयार भी थे किन्तु चुनावी राजनीति के चलते लगातार यथास्थिति बनाई रखी गई जिससे बाद के दौर में मुस्लिम इस क़ानून के प्रति दुराग्रही होते चले गए और आज की भयावह परिस्थिति बनी। इस पर्सनल ला का ही परिणाम है कि शरिया क़ानून की शिकार हुई लाखों मुस्लिम महिलायें अपने अधिकारों से वंचित होकर भारत के सभ्य समाज के समक्ष एक बड़ा प्रश्न बनकर बेसहारा खड़ी हैं। मनमाने ढंग से कितने ही बहुविवाह करने व स्त्रियों को बात बेबात पर मात्र तीन बार तलाक तलाक तलाक कहकर तलाक देने के पाशविक अधिकार से समाज में न जाने कितनी ही बुराइयां पनप रही हैं तब भारतीय मुस्लिम समाज को स्वमेव इस दिशा में सकारात्मक प्रयास का स्वागत करना चाहिए। मुस्लिम समाज यह समझ ले कि अंतत: एक समृद्ध, विकसित व सभ्य समाज का निर्माण एक स्वतंत्र, शिक्षित व सर्व दृष्टि से सुरक्षित महिला ही कर सकती है; और यह स्थिति तीन तलाक व बहुविवाह के रहते नहीं आ सकती है।

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