संसद से लेकर सड़क तक विपक्ष की नकारात्मक राजनीति का जोर है। ऐसा लगता है कि विपक्ष पिछले लोकसभा चुनाव के जनादेश को आज तक पचा नहीं सका है। यह विरोध प्रजातन्त्र और संविधान की भावना के विरुद्ध था, इसके माध्यम से सुधार का विरोध किया गया, सरकार को कार्य करने से रोका गया। प्रजातन्त्र में जनादेश को स्वीकार करना होता है। सत्ता पक्ष का विरोध अपनी जगह है। संविधान ने इसका अधिकार दिया है। यूपीए के घोटालों के विरोध में भी भाजपा ने इतना विरोध नहीं किया था । दो दशक में संसद के कार्य का रिकॉर्ड इतना खराब कभी नहीं रहा। जनादेश के प्रति असहिष्णुता का ऐसा उत्पात संवैधानिक इतिहास में पहले कभी नही देखा गया। इसके प्रतिकार में अंतत: प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को उपवास करना पड़ा। वैसे राजनीति से इतर एक अन्य जिम्मेदारी भी उनपर आ गई थी। कांग्रेस ने उपवास शब्द का मखौल बना दिया था। उसके नेता भटूरे खा कर उपवास पर बैठने गए थे। कांग्रेस अध्यक्ष लंच के बाद देर में पहुंचे। जबकि उपवास मात्र शब्द नहीं भावना है। इसमें इंद्रियों का दमन, नैतिक बल, आत्मबल, का समावेश होता है। कांग्रेस ने इसके नाम पर आडंबर किया। शायद मोदी इसका भी प्रतिकार करना चाहते थे। लोकसभा चुनाव में भाजपा को भारी बहुमत मिला था। संविधान और प्रजातन्त्र की अवधारणा के अनुरूप इस सरकार को कार्य करने का अवसर मिलना चाहिए था। लेकिन विपक्ष ने राज्यसभा के माध्यम से जनादेश के पालन में जम कर अड़ंगा लगाया। इसका दोहरा नुकसान हुआ । एक तो जिसे जनता ने सत्ता में पहुंचाया, उसे कार्य करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिला। दूसरे राज्यसभा की गरिमा पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा का गठन बहुत सोच समझ कर किया था।
उनका विचार था कि लोकसभा यदि जल्दीबाजी में कोई निर्णय करे, तो राज्यसभा उस पर गंभीरता से विचार करके सुधार लेगी। राज्यसभा को इसीलिए उच्च सदन कहा गया। उसे अपने आचरण से इस गरिमा को बचाने का कार्य भी करना चाहिए था। लेकिन मसला वही था । नरेंद्र मोदी के प्रति दशकों से जो असहिष्णुता चली आ रही थी, वह नई दिल्ली तक जारी रही। संसद में कोई न कोई मुद्दा उठा कर विपक्ष कार्यवाही को बाधित करता रहा है।
नरेंद्र मोदी सत्ता संभालने के कुछ समय बाद ही भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक लाये थे। इसका निर्माण मुख्यमंत्रियों की सलाह से किया गया था। कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने लिखित रूप में इसका समर्थन किया था। उनका कहना था कि पहले का भूमि अधिग्रहण कानून कारगर नहीं है। इससे निवेश नहीं हो सकता, इसके अलावा जमीन की कमी से अधूरी पड़ी योजनाएं भी पूरी नहीं हो सकेंगी। लेकिन राज्यसभा में इसे पारित नहीं होने दिया गया। क्योंकि वहां सत्ता पक्ष अल्पमत में था।
जमीन का अधिग्रहण न होने से लाखों करोड़ रुपये की योजनाएं कांग्रेस के समय से अधूरी पड़ी हैं। उनकी लागत कई गुना बढ़ गई। लेकिन राज्यसभा ने इसे पारित नहीं होने दिया। मोदी ने इन्हीं योजनाओं को पूरा करने के लिए संशोधन पेश किया था। किसान भी जमीन देने को तैयार था। उसको कोई कठिनाई नहीं थी । लेकिन विपक्ष ने कहा कि नरेंद्र मोदी किसानों की जमीन छीन लेंगे, वह अंग्रेजों की तरह कार्य कर रही है।
इस प्रकार शुरूआती दौर में ही विपक्ष ने अपनी मंशा बता दी थी। वह दिन और आज का दिन। उसके बाद विपक्ष ने सदैव राज्यसभा के माध्यम से अड़ंगा लगाया है। विपक्ष ने संसद में सामान्य कामकाज भी नहीं होने दिया।
इसी प्रकार विपक्ष ने सड़क पर भी उत्पात को प्रोत्साहन दिया। जहाँ भी जाति आधारित आंदोलन दिखाई दिया, कांग्रेस उसके पीछे दौड़ पड़ी। इसकी शुरूआत हरियाणा के जाट आंदोलन से शुरू हुई। बाद में पता चला कि इसके पीछे कुछ राजनेताओं का हाथ था। राजस्थान के गुर्जर आंदोलन में भी यही नजारा दिखाई दिया। गुजरात विधानसभा चुनाव में सभी जातिवादी नेता कांग्रेस के समर्थन में आ गए थे। यह आशंका सही साबित हुई कि इन आंदोलनो के पीछे भी राजनीतिक पार्टियां थी। अभी दो अप्रैल को हुए आंदोलन में भी विपक्ष ने रोटी सेंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यह आंदोलन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के खिलाफ था। जबकि ऐसा ही सुधार मुख्यमंत्री के रूप में मायावती ने किया था। लेकिन दलितों को भ्रमित करने का प्रयास किया गया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र ने मोदी हाल में आयोजित बजट सत्र में विपक्ष द्वारा संसद की कार्यवाही नहीं चलने देने और समाज को बांटने के विरोध में भाजपा सांसदों के साथ दिनभर का उपवास किया। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उसी दिन चुनावी राज्य कर्नाटक के हुबली में धरना दिया। सूत्रों ने बताया कि उपवास रखने मोदी लोगों और अधिकारियों से मिलने और फाइलों को मंजूरी देने के अपने दैनिक नियमित आधिकारिक कामकाज में कोई बदलाव नहीं किया। मोदी विपक्ष की नकारात्मक भूमिका को जनता के सामने लाना चाहते हैं। इसी के साथ नैतिक गांधीवादी सिद्धांतों पर भी कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करना चाहते थे। उपवास से उनका यह लक्ष्य पूरा हुआ है। संसद में विपक्ष का रवैया पूरी तरह नकारात्मक रहा है। सरकार को परेशान करने के चक्कर में वह यह भूल गए कि इससे देश का अहित हो रहा है।
संसद के मानसून सत्र की भांति शीतकालीन सत्र भी हंगामे की भेंट चढ़ गया। इस सत्र में कई महत्वपूर्ण बिलों समेत पच्चीस लंबित बिल चर्चा करने और पास कराने के लिए सदन में रखे जाने थे। इस दौरान दस नए विधेयकों को भी पेश किए जाने की संभावना थी। सदन के दोनों सदनों में सांसदों के हंगामे और शोरशराबे की वजह से ऐसा नहीं हो सका। सत्र के शुरूआती तीन दिन एफडीआई और सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण जैसे मुद्दों की भेंट चढ़ गए। आर्थिक सुधारों से जुड़े विधेयक और पिछले सत्र में हंगामे के कारण लंबित पड़े विधेयक भी पारित नहीं ही सके। राज्यसभा में सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में एससी, एसटी को आरक्षण मामले में बसपा और सपा सांसदों के हंगामे के कारण कार्यवाही स्थगित की गई। शोरशराबे के बीच राज्यसभा में लोकपाल प्रवर समिति की रिपोर्ट समेत विशेष उल्लेख से संबंधित प्रपत्र पटल पर रखे गए थे। द लोकपाल एंड लोकायुक्त बिल दिसंबर दो हजार ग्यारह को लोकसभा में पारित किया गया था। एफडीआई मुद्दे पर हंगामे के बाद लोकसभा की कार्यवाही भी पूरे दिन के लिए स्थगित कर दी गई थी। एफडीआई और अन्य मुद्दों पर संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही स्थगित होती रही।
इस बार आर्थिक सुधार से जुड़े विधेयकों को पास कराना सरकार की प्राथमिकता में सबसे ऊपर है। आर्थिक सुधारों से जुड़े जिन विधेयकों को भी पेश किया गया। लेकिन उन पर भी उचित विचार विमर्श नहीं हुआ। इस सत्र में सरकार की कोशिश इन बिलों में से ज्यादातर को पास कराने की थी। लेकिन विपक्ष ने ऐसा नहीं होने दिया। विपक्ष ने आर्थिक सुधार की राह में भी रोडेÞ अटकाए हैं। संसदीय मसलों पर गहरी नजर रखने वाली संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार संसद में अब तक कुल एक सौ दो विधेयक लंबित हैं। इनमें सबसे पुराना बिल द इंडियन मेडिकल काउंसिल अमेंडमेंट विधेयक उन्नीस सौ सत्तासी को राज्यसभा में पेश किया गया था। पन्द्रह विधेयक दोनों में से किसी न किसी एक सदन से पारित हो चुके हैं। कई बिलों पर स्थायी समिति अपनी रिपोर्ट भी दे चुकी है। जबकि संसद ना चल पाने का सबसे बड़ा नुकसान देश और उसकी जनता को ही है। संसद में क्या हो रहा है, इसकी जानकारी आम लोगों तक पहुंच पाए इसके लिए इसके सीधे प्रसारण की व्यवस्था की गई है। लेकिन लोगों को पूरे दिन यहां हंगामे के अलावा कुछ नजर नहीं आता। अगर आकड़ों पर गौर करें तो संसद की एक दिन की कार्यवाही पर एक करोड़ सात लाख का खर्चा आता है। जिसमें छत्तीस हजार हर मिनट, इक्कीस लाख हर घटा और एक करोड़ सात लाख का खर्चा तब आता है जब संसद में पूरे दिन काम नहीं होता है।
जाहिर है कि विपक्ष पिछले चार वर्षों से अपनी जिम्मेदारी का उचित निर्वाह नहीं कर रहा है। विपक्ष में रहकर भाजपा भी हंगामा, विरोध करती थी। लेकिन उस समय अनेक घोटाले सामने आए थे। सरकार आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई से बच रही थी। लेकिन इस समय विपक्ष का हंगामा किसी ठोस मुद्दे पर नहीं , बल्कि सुधार वीरोधी है। नरेंद्र मोदी ने उपवास के माध्यम से इसका प्रतिकार किया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)