राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत, आधुनिक युग में एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जो हमेशा बिना किसी लाग लपेट के स्पष्ट बात कहते हैं। आप हमेशा उनकी बातों में जीवन के सूत्र पाएंगे या दिशा बोध या दृष्टिपथ। यह अलग बात है कि जिनको नहीं समझना है, या जिनका काम ही वितंडावाद खड़ा करना है, वह हमेशा उनके वक्तव्य को साजिशन नहीं समझते और भ्रम फैलाने का असफल प्रयास करते हैं। पर चूंकि मोहन भागवत एक डॉक्टर हैं तो वह समाज जीवन में व्याप्त रोग की शल्य चिकित्सा अपने सधे हुए शब्दों से कर अपने युगीन कर्तव्य का निर्वहन करते हैं और यही संघ से अपेक्षित है।
नागपुर में कार्यकर्ता विकास शिविर में समापन के अवसर पर डॉ. भागवत ने भारतीय राजनीति की वर्तमान स्थिति पर निर्ममता के साथ शाब्दिक प्रहार किए और संघ की भूमिका को फिर एक बार स्पष्टता के साथ रखा। डॉ. भागवत ने देश और देश के बाहर भी आज मानवीय सभ्यता के लिए जो चुनौतियां हैं, उसका जिक्र किया और स्वयंसेवकों से संघ की अपेक्षा क्या है, यह भी रखा। देश के समाज वैज्ञानिक, शोधार्थी, अध्येता, राजनेता चाहें तो लगभग उनके 50 मिनट के भाषण से एक साथ कई सूत्र पा सकते हैं। अच्छा हो डॉ. भागवत के संबोधन के एक-एक शब्द को देश के अकादमिक संस्थानों में ध्यान से सुना जाए, ताकि एक दृष्टिपथ तैयार हो सके। पर हमेशा की तरह फिर एक बार उनके वक्तव्य को बेहद सीमित अर्थ में एवं दिशा विहीन समझा जा रहा है। देश के वामी एक विमर्श खड़ा कर रहे हैं कि डॉ. भागवत ने भाजपा नेतृत्व को निशाने पर लिया है। संघ और भाजपा में अब दूरी और बढ़ गई है। अरे! अक्ल के दुश्मनो अव्वल यह स्थिति है नहीं और आपकी खुशी के लिए मान लें तो तुम्हारा क्या फायदा है?
आइए, समझते हैं डॉ. भागवत ने कहा क्या है? डॉ. भागवत ने कहा कि लोकतांत्रिक देश में चुनाव एक महत्वपूर्ण प्रसंग है। पर अब चुनाव हो गए। सरकार बन गई। परिणामों पर लंबी चर्चा का कोई परिणाम नहीं आने वाला। इसमें क्या गलत कहा है? वह यह भी कहते हैं संघ का कार्य लोकमत परिष्कार है और वह यह करता रहा है, आगे भी करेगा। डॉ. भागवत ने तीखी नाराजगी के साथ यह कहा कि चुनाव में संघ के नाम को बेवजह घसीटा गया। तकनीक का सहारा लेकर भ्रामक प्रचार किए गए। कौन नहीं जानता, देश की राजधानी दिल्ली में संघ के लैटरपैड कूटरचित बनाए गए और भाजपा के उम्मीदवार के खिलाफ मतदान करने की अपील जारी की गई। क्या यह गंभीर अपराध नहीं है? संघ अपने स्थापना काल से किसी भी राजनीतिक दल के पक्ष या विपक्ष में मतदान के लिए संगठन के स्तर पर सक्रिय नहीं होता। संघ के स्वयंसेवक देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को समाज को समझाते हुए राष्ट्र हित में 100 प्रतिशत मतदान का आव्हान अवश्य करते हैं। संघ से प्रेरणा लेकर पहले जनसंघ में और अब भाजपा में कई स्वयंसेवक कार्य कर रहे हैं, स्वाभाविक है, इसका लाभ भाजपा को मिलता रहा है, पर संघ स्वयं इसका श्रेय लेता नहीं। इसलिए स्वाभाविक है भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने भी जो कहा वह अनपेक्षित था, अवांछनीय था। वे (भाजपा) पहले कितने छोटे थे, अब कितने बड़े हो गए, परिणाम बता रहे हैं।
डॉ. भागवत ने बेहद संतुलित शब्दों में भारतीय राजनीति में पक्ष एवं विपक्ष पर अपनी बात रखी। क्या यह सही नहीं है, आरोप-प्रत्यारोप का स्तर बेहद निकृष्ट हो चला है। आपने कहा कि विरोधी शब्द से ही वह असहमत हैं। इसके स्थान पर प्रतिपक्ष होना चाहिए। संसद सहमति का केन्द्र बने। बहुमत से देश के निर्णय होंगे यह सच है, पर असहमति का मान भी रखा जाए। क्या भारत के राजनीतिक दलों को इसका संज्ञान लेकर आगे नहीं बढ़ना चाहिए?
डॉ. भागवत ने विगत एक दशक में देश ने आर्थिक, सामरिक, वैश्विक, कला, खेल सहित प्रत्येक क्षेत्र में प्राप्त उपलब्धियों को सराहा, साथ ही जो चुनौतियां हैं उनका भी जिक्र किया। मणिपुर का जिक्र इसमें उल्लेखनीय है। मणिपुर अशांत क्यों है, उसका समाधान प्राथमिकता से करें, इस बयान को केन्द्र सरकार के खिलाफ बताने वाले, यह सुनना शायद भूल गए कि यह आग लगी या लगाई गई? डॉ. भागवत न सरकार का बचाव कर रहे थे, न ही प्रतिपक्ष की पीठ थपथपा रहे थे। वह एक सच को प्रस्तुत कर रहे थे।
डॉ. भागवत ने प्रकृति के असीमित दोहन से उपजे संकट, अस्पृश्यता, मतांतरण सहित आसन्न चुनौतियों और खतरों की बात की। संघ को सिर्फ पूजा पद्धति के आधार पर ईसाई या मुस्लिम समाज को शत्रु बताने वाले डॉ. भागवत के वक्तव्य को कान में तेल डाल कर सुनें। वह कहते हैं, देश सबका है। पुराने घावों को अब याद नहीं करते रहना है। पर साथ ही हम ही सही हंै, हमारा विचार ही सही है, इस विकृति से बचना है और समाज को स्वयं शक्तिशाली बनना होगा। और इसके लिए मन, बुद्धि एवं शरीर का व्यायाम करने का स्थान शाखा है ताकि सहचित्त का निर्माण हो। डॉ. भागवत ने सामाजिक समरसता, पर्यावरण, नागरिक अनुशासन स्व आधारित चिंतन एवं कुंटुम्ब प्रबोधन का स्वयंसेवकों को संदेश देते हुए कहा कि हमें राष्ट्र निर्माण के कार्य में सामूहिक भाव से रत होना है। अहंकार से दूर रहना है। सबकुछ मैं ही कर रहा हूं, इस भाव से दूर रहना है। इसमें क्या गलत है?
क्या अहंकार का रोग सिर्फ सत्ता के प्रतिष्ठानों में ही है ? उनमें है तो यह संदेश उनके लिए भी हो सकता है पर समाज जीवन में कार्यरत प्रत्येक संगठन और उसका एक-एक कार्यकर्ता स्वयं का मूल्यांकन करे तो डॉ. भागवत का उद्बोधन उनके लिए प्रेरक होगा।