भिण्ड/अनिल शर्मा। वेशक यह कहा जा रहा है कि प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय को उनके राजनैतिक प्रतिद्वंदियों ने उन्हें भोपाल सीट पर फंसाया है, ताकि उनका राजनैतिक कैरियार खत्म हो सके। लेकिन यह सच नहीं है। कहीं भोपाल से उनकी उम्मीदवारी एक जानी बूझी सोची समझी रणनीति का हिस्सा तो नहीं है। उन्होंने बड़ी चतुराई से मुख्यमंत्री कमल नाथ के जरिए नाम प्रस्तावित करा दिया और फैसला हाईकमान पर छोड़ दिया। वे राजनीति में बहुत दूर की सोच रखते हैं, वे नहीं चाहते राजगढ़ तक सीमित रहकर वे अपने पुत्र व भाई की राजनीति में अवरोध बनें, इसलिए नई जमीन की तलाश में थे और भोपाल से चुनाव लडऩे की तैयारी भी पूर्व योजना का हिस्सा हो सकती है। एक ओर जहां दिग्विजय इन दिनों लोकसभा चुनाव में मीडिया के लिए चर्चा के बिंदु बने हुए हैं तो अब कांग्रेस में भी सिंधिया जैसे नेताओं को अपनी लोकसभा सीट छोड़कर चुनाव लडऩे के लिए नसीहत दी जा रही है।
सत्ता से हटने के बाद राजनीति में बिना कोई चुनाव लड़े चर्चित रहने के साथ अपने राजनैतिक वजूद को बनाए रखना कोई आसान काम नहीं है, चुनौतियों से लडऩा जिनका शौंक हो और विवादित बयान देने में माहिर राजनीति के चाणक्य से विभूषित पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का चरित्र इन सभी बिंदुओं पर सटीक उतरता है। लोकसभा चुनाव में भोपाल से उम्मीदवारी के कारण इन दिनों मीडिया और राजनैतिक गलियारों में चर्चित हैं और अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों की नींद को हराम किए हुए हैं। राजनीति में ऐसे नेता बिरले ही होते हैं, जिनका राजनैतिक सफर ऐसा रहा हो, लेकिन मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को वेशक उनके विरोधी बंटाढार की उपमा दें, लेकिन हकीकत यह है कि आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच की राजनीति में प्रदेश ही नहीं केन्द्र में भी लगातार सक्रियता बनाए हुए हैं, जब 2003 के विधानसभा चुनाव के परिणामों के बारे में मीडिया से चर्चा हुई तो उन्होंने साफ तौर पर तीसरी बार कांग्रेस सत्ता में आने की बात कहते हुए यह भी कहा था कि यदि कांग्रेस सत्ता में नहीं आई तो वे स्वयं आगामी 10 वर्षों तक चुनाव नहीं लडेंगे, जिस वचन पर अटल रहकर राजनीति में अपने अस्तित्व को बरकरार रखने में कामियाब भी रहे।
पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह प्रदेश की राजनीति में दिग्विजय सिंह के गुरू कहे जाते हैं। लेकिन यदि राजनीतिक विश्लेषण आंकलन करें तो वे अपने गुरू से कही ज्यादा आगे राजनीति में निकल गए हैं, 15 वर्ष बाद जब दिग्विजय सिंह चुनाव मैदान में आए हैं तो पूरे प्रदेश में उनकी उम्मीदवारी चर्चाओं का विषय बनी हुई है, उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से भोपाल संसदीय क्षेत्र से चुनाव लडऩे के पार्टी हाईकमान के फैसले को शिरोधार्य कर एक और कठिन चुनौती अपने प्रतिद्वंदी नेताओं के सामने खड़ी कर दी है। अब जब दिग्विजय सिंह अपना चुनाव क्षेत्र छोड़कर भोपाल लड़ सकते हैं तो प्रदेश के अन्य नेता क्यों नहीं? जिसमें गुना संसदीय क्षेत्र के सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम प्रदेश के सभी नेता जोर-शोर से उछाल रहे हैं। इस तरह दिग्विजय सिंह के भोपाल में चुनाव मैदान में उतरने के बाद बड़े नेताओं को अब अपनी सीट छोड़कर चुनाव लडऩे की नसीहत मिलने लगी है।
अब तक का चुनावी राजनैतिक सफर
बेशक दस वर्ष के शासनकाल के बाद दिग्विजय सिंह प्रदेश में तीसरी बार कांग्रेस सरकार बनाने में विफल रहे हों, लेकिन राजनीति शुरुआत के बाद से सफल नेता के रूप में उनकी पहिचान बनी हुई है। उनका राजनैतिक सफर 1971 में राघौगढ़ के नपा अध्यक्ष चुनने के बाद से शुरू हुआ, उसके बाद 1977 में जब पूरे प्रदेश व देश में कांग्रेस विरोधी लहर थी। तब दिग्विजय सिंह 1977 में कांग्रेस के विधायक चुने गए, नतीजन युवा होने के नाते उन्हें कांग्रेस संगठन की युवा विंग मप्र युवक कांग्रेस में जिम्मेदारी मिली, यही नहीं 1980 में उन्हें पुन: विधानसभा में कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया गया और वे चुनाव जीतकर अर्जुन सिंह के मंत्रिमण्डल में पहली बार राज्य मंत्री और फिर कृषि मंत्री का दायित्व सम्हाला। 1984 में उनका कांग्रेस ने लोकसभा में चुनाव मैदान में उतारा वे सांसद चुनने के साथ ही प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे, लेकिन 1989 का चुनाव वे प्यारेलाल खण्डेलवाल से हार गए, इसके बाद 1993 में विधायक चुनने के बाद उन्हें प्रदेश की बागडोर राजनैतिक गुरू अर्जुन सिंह द्वारा राजनीति में गोटियां बिठाने से मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल हुई। जिसमें वर्तमान मुख्यमंत्री कमल नाथ उनके सहायक बने।
दिग्विजय को मात देना आसान नहीं
भोपाल लोकसभा क्षेत्र से दिग्विजय सिंह चुनाव जीते या हारें यह चुनाव परिणाम आने के बाद की स्थित है। लेकिन जिस तरीके से दिग्विजय सिंह ने चुनाव मैदान में ताल ठोकी है वे अपने दल के भीतर के प्रतिद्वंदियों व अन्य राजनैतिक दल प्रतिद्वंदी नेताओं के लिए कड़ी चुनौती है, उन्हें मात देने के लिए कड़ी मशक्कत करनी होगी।