भिंड/अनिल शर्मा। राजनीति में आयाराम-गयाराम का दौर चल ही नहीं रहा बल्कि खूब फलफूल रहा है, चाहे कांग्रेस भाजपा हो या फिर सपा, बसपा, सभी प्रमुख राजनैतिक दल सीना तानकर इनको अपना रहे हैं, नतीजन अब दल-बदल करने वाले दल-बदलुओं को उतनी हेय दृष्टी से नहीं देखा जाता, जो पहले देखते थे। अब दल बदलने को घर वापिसी का सम्मान से अलंकृत किया जाने लगा है। चाटुकार राजनीति में माहिर यही कहते हैं सुबह का भूला शाम को वापिस घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते, शायद ब्रम्हा जी की तरह नेताओं की सुबह से शाम की अवधि लंबी होती है। जिसे कम से कम पांच वर्ष तो मान ही सकते हैं। यही नहीं उनके दल-बदल की प्रबृती को घर वापिसी का नाम देकर सफलतम राजनीतिज्ञ पदवी से विभूषित भी किया जाने लगा है। बिना मेहनत किए राजनीति में विषय विशेषज्ञता की डिग्री जो हासिल हो जाती है। एसे दलबदलू नेता संगठन के निष्ठावान कर्मठ कार्यकर्ताओं का न केवल हक मारते हैं वल्कि शान शौकत से अपनी हुकूमत भी चलाते हैं। वेशक इस तरह ऐसे नेताओं को सामाजिक मान्यता तो मिल जाती है लेकिन इतिहास कभी माफ नहीं करता। चाहे वह बुराई का साथ छोड़कर अच्छाई के साथ जाने वाले धर्म आचरणी विभीषण ही क्यो न हो, आज भी उनको 'घर का भेदी लंका ढहाईÓ की उपमा दी जाती है वे राजा बनकर भी लंकापति नहीं कहलाए।
वेशक पाला बदलने वाले नेता राजनीति मे ऊंचे ओहदे पर पहुंच कर खूब मजे कर रहे हों और राजनैतिक दल भी संख्यात्मक दृष्टि से अपने आपको फायदे में महसूस करे, लेकिन जमीनी स्तर पर जी तोड़ मेहनत कर संगठन को खड़ा करने वाले उन कार्यकर्ताओं के साथ अन्याय तो है, यह मानने में किसी को भी परहेज नहीं होना चाहिए। जो कार्यकर्ता जीवन भर फर्स उठाने और भीड़ जुटाने के साथ-साथ नेता जी की जी हजूरी में पूरा जीवन खफा देते हैं और जयकारा लगाते-लगाते एक दिन जिंदगी के सफर में गुम हो जाते हैं, जिनमें कुछ की तो पहिचान भी नहीं बन पाती, वे गुम नाम ही चले जाते हैं। क्या राजनैतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व पर बैठे आलाकमान का इन जमीनी कार्यकर्ताओं के हित में सोचने का कोई दायित्व नहीं है, जो कड़ी मेहनत निष्ठा के साथ सगठन या राजनैतिक दल खड़ा करते हैं। जो राजनैतिक दल को वटबृक्ष बनाकर मजबूत नेतृत्व को पैदा करने के लिए जमीन तयार करते हैं।
राजनीति में दल अदला-बदली बेशक राजनैतिक दलों के लिए अब तक वरदान साबित हुई हो, लेकिन कर्मठ संगठननिष्ठ कार्यकर्ताओं के लिए तो अभिशाप ही है, क्योंकि इन अवसरवादी नेताओं के कारण उनको अपनी राजनैतिक पहिचान ही नहीं मिल पाती है, साधारण कार्यकर्ता दल के प्रति निष्ठा से मिलने वाला सम्मान पाकर अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर लेता है, जो शायद ही प्रत्येक कार्यकर्ता को नसीब होता हो।
दलीय निष्ठा पर व्यक्ति निष्ठा भारी
दल के प्रति निष्ठा रखने वाले कार्यकर्ताओं की दिल पर तब बज्रपात होता है जब उनकी संगठन निष्ठा पर व्यक्ति निष्ठा भारी पड़ जाती है। अक्सर देखा गया है कि राजनैतिक दलों में वे ही कार्यकर्ता सफल रहते हैं जिनकी निष्ठाएं व्यक्ति विशेष किसी नेता में निहित होती हैं, उन्हे संगठन व सत्ता दोनों का ही भरपूर लाभ मिलता है, क्योंकि उनका एक नेता निश्चित है, यदि वह नेता दल बदलता है तो वे भी उसके साथ चले जाते हैं, यही कारण है कि उनकी कीमत अपने नेता की नजर में सदैव बनी रहती है। लेकिन दलीय निष्ठावान कार्यकर्ता की पूछ परख करने वाला कोई नहीं होता। क्योंकि अब संगठनों में ऐसे लोग कहां बचे हंै जो संगठन निष्ठ कार्यकर्ताओं की चिंता करते थे। इसलिए व्यक्तिनिष्ठ कार्यकर्ता अर्थात आयाराम व गयाराम नेताओं के समर्थक ही मजे उड़ाते हैं, इस तरह संगठन निष्ठ कार्यकर्ताओं को न केवल उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है वल्कि कई बार अपमान का घूट पीने को भी मजबूर हो जाते हैं। तब उन पर क्या बीतती होगी यह वे ही जानते होंगे, इसके कई व्यक्तिगत उदाहरण भी दिए जा सकते हैं, लेकिन किसी के नामों का उल्लेख करना किसी व्यक्ति विशेष की भावनाओं के साथ खिलबाड़ होगा, यह स्वविवेक से ही समझने की जरूरत है।
आखिर संगठन पर क्यों हुई सत्ता हावी
कांग्रेस व अन्य राजनैतिक दलों में लोकतांत्रिक प्रणाली की संगठन संरचना जमीनी स्तर पर नहीं है। इसलिए उस पर टिप्पणी करने का कोई फायदा नहीं है। लेकिन भारत में भाजपा ऐसा राजनैतिक दल है, जिसकी व्यापकता लोकतंत्र प्रणाली से ग्रामीण इकाई तक प्रभावी है जो 90 के दशक तक स्पष्ट नजर आती थी, लेकिन लंबे समय तक सत्ता में रहने से संगठन संरचना निचले स्तर पर बेहद कमजोर हुई है, अक्सर देखा गया है कि भाजपा शीर्ष नेतृत्व विवादों से बचने के लिए निर्वाचित विधायक, सांसद के अनुसार ही उनके क्षेत्र में आने वाले मण्डलों में निर्वाचन की औपचारिकता के जरिए मनोनयन कर पदाधिकारी बना दिए जाते हैं, ये लोक व्यक्ति समर्थक होते हैं, जो संगठन के लिए तब मुसीबत बनते हैं, जब वह नेता पार्टी छोड़ता है तो व्यक्ति निष्ठा रखने वाले संगठन के पदाधिकारी भी दल को तिलांजलि दे जाते हैं, तब संगठन को दलीय निष्ठा रखने वाले कार्यकर्ता याद आते हैं।
जमीनी स्तर पर क्यों नहीं तैयार हो पाता दूसरी लाइन का नतृत्व
जब कोई सांसद या विधायक स्तर का नेता पार्टी छोड़कर चला जाता है तब संगठन को दूसरी लाइन का नेतृत्व खड़ा न होने की कमी खलती है, आखिर ऐसी कौनसी वजह है जिसके कारण राजनीति में नेताओं की दूसरी लाइन तयार नही हो पाती, यह प्रत्येक राजनैतिक दल के लिए चिंतन व अध्यन का विषय होना चाहिए, जो शायद ही कोई भी दल करता हो, उसकी वजह ऐलोपेथी उपचार की तरह राजनीति मे भी तत्काल लाभ की इच्छा प्रवृति का पनपना है, यह भली भांति समझने की जरूरत है कि ऐलोपेथी से रोग सिर्फ कुछ समय के लिए दब तो जाता लेकिन समाप्त नहीं हो सकता, ठीक उसी तरह आयात किए गए नेता से राजनैतिक दल को तत्काल लाभ तो मिल सकता है, लेकिन यह स्थाई नहीं, जिस तरह व्यक्ति को पूर्ण स्वस्थ्य बनाने की क्षमता सिर्फ आयुर्वेद चिकित्सा पद्यति में है ठीक उसी तरह की क्षमता पार्टी के समर्पित निष्ठा भाव से जमीनी रूप से कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं की है। यह प्रत्येक राजनैतिक दल को समझने की जरूरत है। कहीं न कहीं दूसरी लाइन के नेता तयार न हो पाने के लिए संगठन के वे लोग जिम्मेदार हंै जो सत्ता के बोझ तले उसके सुख में दबकर यह भी भूल जाते हंै जिस संगठन के बल पर सत्ता सुख भोग रहे हैं उसके नींव के पत्थर संगठननिष्ठ वे कार्यकर्ता हैं जिनके द्वारा परिवार की चिंता किए बिना अपने खून पसीने से सीचकर विसाल राजनैतिक दल की इमारत खड़ी की गई। आज उसकी सुधि लेने वाला कोई नहीं है। यही वजह है कि संगठन में कार्यकर्ताओं की मेहनत सही मूल्यांकन ही नहीं हो पाता, फिर वे अपनी कार्य क्षमता के बल पर आगे बढ़ें तो कैसे, लेकिन चाटुकारिता प्रवृति के कार्यकर्ता नेताओं की पसंद होते हैं, जो आगे बढ़ पाते हैं। यू कहें कही न कही राजनीति को चाटुकारिता न केवल पसंद किया जाता है वल्कि इसे प्रोत्साहित भी किया जा रहा है। यह चाटुकारिता के बल पर मिली सफलता फायदा तो दिला सकती है, लेकिन मुखर नेतृत्व को पैदा नहीं कर सकती।