Ganesh Visarjan In Spain: बीते गणेशोत्सव को लेकर सांप्रदायिक सौहार्द का पाठ पढ़ाती यह घटना स्पेन की है…
ऐसा धार्मिक सौहार्द अनुकरणीय है - महेश खरे
धर्म जोड़ता है। तोड़ता नहीं। सनातन धर्म तो सदियों से संयम, शील और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाता रहा है। इस्लाम के मूल सिद्धांतों में भी नफरत के लिए कोई जगह नहीं है। अल्लाह के बंदों को प्रेम और सौहार्द की इबादत का मार्ग अपनाने की सलाह इस्लाम भी देता रहा है। अन्य सभी धर्मों का आधार भी शांति और सद्भाव है। सोचिए, फिर दुनिया में क्यों धर्म को लेकर 'अधर्म' और टकराव हो रहे हैं?
फिर भी नफरत के अंधेरों में प्रेम और सद्भाव का दीया जलाने का काम धार्मिक जनता ही करती रहती है। एक अनुकरणीय प्रसंग तो अनंत चतुर्दशी के दिन ही घटा है। बीते गणेशोत्सव को लेकर सांप्रदायिक सौहार्द का पाठ पढ़ाती यह घटना स्पेन की है। इसकी जानकारी सभी को होना चाहिए। कैसे हम एक दूसरे के धर्म को सम्मान दे सकते हैं। कैसे समाज के सभी लोग प्रेम और सद्भाव के साथ रह सकते हैं। स्पेन में बड़ी संख्या में भारतीय मूल के नागरिक रहते हैं। वहां भारतीय त्योहार भी बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाए जाते हैं।
इस बार भी कुछ भारतीयों ने गणेश उत्सव का आयोजन किया। जब विसर्जन यात्रा का दिन आया तो आयोजकों ने वहां की चर्च अथोरिटी से पूछा कि क्या गणेशजी की सवारी चर्च के सामने से निकाली जा सकती है? विसर्जन यात्रा और चर्च की प्रार्थना सभा का समय संयोग से एक ही था। इसीलिए चर्च अथोरिटी से यह पूछना और उनकी अनुमति लेना आवश्यक था। आयोजकों को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। चर्च अथोरिटी के जवाब से तो गणेश भक्तों की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा।
गणेश भक्तों के सवाल के जवाब में एक सवाल ही किया गया। वह यह कि क्या आप कुछ समय के लिए 'गणपति बप्पा' को चर्च के अन्दर ला सकते हैं? फिर क्या था नाचते गाते गणेश भक्त अपने आराध्य देव की प्रतिमा के साथ चर्च में प्रवेश किए। चर्च में सांप्रदायिक एकता का अलग ही माहौल बन गया। हिन्दू और ईसाई एक दूसरे के गले मिले। गणेश भक्तों ने ईशु वंदना में भाग लिया और ईसाई धर्म के अनुयाइयों ने भी गणेश वंदना गाई। दो अलग अलग धाराओं की आस्था का यह मिलन अनूठा था। दो भगवानों का यह अद्भुत प्रसंग स्पेन और भारत में आज भी सांप्रदायिक सौहार्द का संदेश दे रहा है। सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल है। लाखों की संख्या में लोग इस वीडियो को देख, लाइक और शेयर कर चुके हैं।
स्पेन में बड़ी संख्या में भारतीय मूल के नागरिक रहते हैं। वहां भारतीय त्योहार भी बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाए जाते हैं। इस बार भी कुछ भारतीयों ने गणेश उत्सव का आयोजन किया।#ganeshpuja #ganeshfestival2024 #ganeshutsav2024 #ganeshvisarjan2024 #viral2024 #swadeshnews pic.twitter.com/smN7nAS5uW
— Swadesh स्वदेश (@DainikSwadesh) September 23, 2024
गणेशोत्सव के दौरान भारत में भी ऐसे अनेकों प्रसंग होते रहे हैं। गणेशोत्सव यहां हिन्दू-मुस्लिम एकता क्या सर्वधर्म समभाव का प्रतीक बनता रहा है। लेकिन इस बार महाराष्ट्र, गुजरात और यूपी समेत कुछ राज्यों के गिने-चुने इलाकों की हिंसा के शोर में सौहार्द के ऐसे किस्से दब कर दम तोड़ते रहे हैं। चंद गंदी मछलियां समूचे समाज को गंदा करने की साजिशों से बाज नहीं आ रहीं।
भारत विविधता का देश है। विशाल भू भाग में फैली भारत की सीमाओं में हजारों जातियां और बीसियों संप्रदाय हैं। कहा जाता है हर बीस पच्चीस किलोमीटर के बाद तो बोलियां बदल जाती हैं। पहनावा बदल जाता है। परंपराएं बदल जाती हैं। फिर भी यह देश एक सूत्र में इसलिए बंधा है क्योंकि यहां के लोग विविधता में भी एकता के पक्षधर रहे हैं। भाषा और संस्कृतियों का संगम भारत की अनूठी पहचान है।
भारत के कितने ही मंदिर ऐसे हैं जहां की सेवा में मुसलमानों का बहुमूल्य सहयोग और योगदान रहता है। हो सकता है आपके शहर के मंदिरों के बाहर भी फूल मालाएं और प्रसाद सामग्री सजाकर बैठे व्यापारियों में अन्य धर्मावलंबी भी मिल जाएं। अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में सजदा करने और चादर चढ़ाने वालों की भीड़ में हिन्दू परिवारों को खोजना नहीं पड़ेगा।
लेकिन वोटों की राजनीति सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने का ही काम करती रही है। भावनाएं भड़का कर लाभ कौन उठा रहा है? दौनों संप्रदाय के लोग अब नहीं तो यह कब सोचेंगे? याद कीजिए धर्म और राजनीति का घालमेल जब-जब हुआ है धर्म की ही हानि हुई है। शायद इसी में राजनीति कमा-खा जाती है। धर्म नीति के अनुसार चलने वाली राजसत्ता ही लोकहित का मार्ग प्रशस्त करती है। लेकिन जब धर्म और नीति का संचालन राजनीति करने लगे तो बात बिगड़ती है। राजसत्ता को धर्म का पालन करते हुए उसे संरक्षण देना चाहिए। जनता को भी इस पर पैनी नजर रखना चाहिए।
क्या यह एक कड़वी सच्चाई नहीं है कि धर्म में राजनीति के जरिए नेताओं की ही निहित स्वार्थ वाली रोटियां सिक रही हैं। शायद राजनीति का चरित्र ही धर्म से अलग है। झूठ, फरेब उसके अनिवार्य अंग हैं। आज की राजनीति में सच्चाई खोजने चलेंगे तो कहना ही पड़ेगा कि इनका सच्चाई से क्या लेना देना? परनिंदा ही राजनीति का हथियार बनती जा रही है। चुनाव में इस हथियार का इस्तेमाल कुछ ज्यादा ही होता है। समाज में कटुता बढ़ती है तो बढ़े। 'झूठ फैलाओ और सत्ता पाओ' के फार्मूले खूब आजमाए जाने लगे हैं। जब तक झूठ का सच जनता तक पहुंचता है तब तक तो राजनीति का स्वार्थ सध चुका होता है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि धर्म सत्ता पाने का साधन हो गया है। धर्म में राजनीति की मिलावट ने महाप्रसादम् की पवित्रता पर संदेह उपजा कर करोड़ों हिन्दुओं की आस्था पर चोट की है। आस्था जब दरकती है तब क्रोध और आक्रोश उपजता है। यही क्रोध समाज को बांटता है। समझदारी इसी से सतर्क रहने में है।