भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक चेतना की पहचान भगवान राम हैँ। प्रभु श्री राम के रामलला से मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनने की यात्रा में जनजातीय समाज अपनत्व का सेतु है । भगवान राम को वनवास के दौरान जनजातीय समाज के साथ न सिर्फ सहचर्य मिला बल्कि दोनों ने एक दूसरे पर आस्था व्यक्त की। गोस्वामी तुलसीसाद ने अनेक चौपाई में इस बात का उल्लेख किया है।
रामायण में बाली और सुग्रीव को जनजातीय समाज के श्रेष्ठ योद्धा के रूप में वर्णित किया गया है। जनजातीय समाज से आने वाली माता शबरी के प्रति भगवान राम की आगाध आस्था देश की सामाजिक एकता और अखंडता का श्रेष्ठतम आध्यात्मिक आख्यान है।
भारत में जनजातीय समाज से निकले पूज्य बिरसा मुंडा सिर्फ जनजातीय समाज के नहीं अपितु संपूर्ण राष्ट्र के गौरव हैं। वह भगवान तुल्य हैं। उत्तर पूर्व की रानी गाइदिलिन्यू का स्वतंत्रता संघर्ष संपूर्ण राष्ट्र को प्रेरित करता है। छत्तीसगढ़ के वनांचल में रहने वाले रमातीन माडिया, झाड़ा सिरहा, चमेली देवी नाग, हिड़मा मांझी, गुण्डाधूर, सुखदेव पातर हल्बा जैसे अनेक वीर सपूत सिर्फ जनजातीय समाज के नहीं अपितु भारत मां के वीर सपूत व वीरांगना हैं।
भारत की यही विशिष्टता है, यहां संपूर्ण समाज एक है। यहां की प्रत्येक संतति की एकात्मता का मूल एकमेव भारत है। सवाल यह है कि इसे स्मरण करने की आवश्यकता क्यों है। पिछले दिनों 9 अगस्त को दुनिया भर में इंडिजिनस लोगों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस का आयोजन हुआ। ऐसे में जनजातीय समाज को लेकर अमेरिका और यूरोप के साथ भारत की दृष्टि को समझना अत्यंत आवश्यक है। दरअसल, पाश्चात्य विचारों में वनों को गरीबी, बदहाली, अभाव का क्षेत्र माना जाता है। इसके उलट भारत में वन समृद्धि, सुख, शांति का द्योतक हैं। हमारे यहां वन ज्ञान व प्रबोधन का केंद्र रहे हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा में वेदों और उपनिषदों की रचना वनों में रहकर मनीषियों द्वारा की गई।
ऐसे में वन एवं जनजातीय समाज आधारित संस्कृति के विरुद्ध उपनिवेशवादी ताकत व सोच आज भी नए रूप में परोसी जा रही है। इसकी शुरुआत कोलंबस द्वारा अमेरिकी खोज से होती है। कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज के बाद यूरोप के कई नाविक और अलग-अलग समूह वहां बसने लगे। उपनिवेशवादी सोच वाले इन समूहों ने अमेरिका पर कब्जा करने के साथ वहां के अधिकतर मूल वासियों (इंडिजिनस) को खत्म कर दिया। इंडिजिनस की परंपरा, रीति रिवाज, धार्मिक सामाजिक ताने-बाने को ध्वस्त कर दिया। इस तरह का अत्याचार आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, ओशियाना आदि महाद्वीप में भी हुआ।
उपनिवेशवादी सोच से ग्रस्त लोगों द्वारा 12 अक्टूबर 1492 को डे ऑफ रेस अर्थात यूरोपियन रेस का दिन करार दिया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन ने सत्ता में आते ही कोलंबस डे की याद में अवकाश घोषित किया, लेकिन 8 अक्टूबर 1993 को कोलंबस डे के विरोध में पूरे अमेरिका में इंडिजिनस लोगों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किया। ऐसे में इस विवाद को खत्म करने के लिए विश्व के इंडिजिनस लोगों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में विकल्प तलाशा जाने लगा।
9 अगस्त 1982 को यूएन वर्किंग ग्रुप ऑफ इंडिजिनस पीपल की पहली बैठक हुई थी। इस दिन को बाद में 17 फरवरी 1995 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के रेजूलेशन से विश्व के इंडिजिनस लोगों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में अधिकृत मान्यता दी गई। इसके लगभग एक दशक बाद 13 सितंबर 2007 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इंडिजिनस लोगों के अधिकारों के घोषणा पत्र (मैनिफेस्टो) में इस बात का उल्लेख किया कि यह घोषणापत्र इसे स्वीकार्य करने वाले देशों के लिए बाध्यता नहीं है।
यह इसे मंजूरी देने वाले देशों के लिए एक नीति दृष्टिपत्र की तरह है। भारत सरकार ने भी अपने आधिकारिक मत में इस घोषणापत्र के समर्थन में कहा कि भारत में सभी लोग मूल निवासी हैं, इसी शर्त में हम इसका समर्थन करते हैं। भारत की संविधान सभा ने भी भारत के सभी लोगों को मूल निवासी माना है। अनुच्छेद 342 के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति शब्द का प्रयोग किया गया है। यहां मूल निवासी अथवा आदिवासी शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। ऐसे में विश्व भर के इंडिजिनस लोगों के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस हमें अमेरिका, यूरोप,ऑस्ट्रेलिया, ओशियाना महाद्वीप में वहां के इंडिजिनस लोगों के साथ हुए शोषण की जहां याद दिलाता है, वहीं उपनिवेशवादी ताकतों द्वारा दुनिया भर में अपना एजेंडा थोपने के लिए हो रहे प्रयासों को भी बेनकाब करता है।
अमेरिका में नेटिव अमेरिकन से लेकर अफ्रीका में मासाई कारो, बातवा समुदाय के मूलवासी वहाँ के स्थानीय समाज के साथ अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के लिए संघर्षरत हैँ। बांग्लादेश की वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता से लेकर पूरी दुनिया में उपनिवेशवादी ताकतें वहाँ के राष्ट्रीय नायकों व संस्कृति को अपने निशाने पर ले रही हैँ। ऐसे समय में इंटरनेशनल डे ऑफ़ वर्ल्ड इंडिजिनस पीपल्स के जरिए एक ओर जहां अमेरिकी, अफ़्रीकी, ऑस्ट्रेलियाई महाद्वीपों में वहाँ शोषित मूलवासियों के साथ खड़े होना होगा वहीं यह अवसर विश्व जगत को जनजातीय गौरव की समृद्ध भारतीय परंपरा का संदेश देने का है।
हमें पश्चिम के द्वारा थोपे गए विकास व समृद्धि के मानकों का अनुसरण करने की जगह अपने स्वत्व के आधार पर आगे बढ़ना होगा। केंद्र की मोदी सरकार ने भगवान बिरसा मुंडा की जयंती 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मान्यता दी है। नागालैंड की रानी लक्ष्मी बाई कही जाने वाली जनजातीय समाज की बेटी रानी गाइदिन्ल्यू का संपूर्ण देश ने जन्मशताब्दी वर्ष मनाया। अपने राष्ट्रीय नायकों की प्रेरणा से राष्ट्रीय चरित्र स्थापना के उपक्रम स्वतंत्रता के बाद से ही गति पकड़ने थे, लेकिन राजनीतिक स्वार्थ एवं पश्चिम के अंधानुकरण ने हमारे स्वत्व पर ही आघात किया है. आज भारत की माननीय राष्ट्रपति महोदया श्रीमती द्रौपदी मुर्मु पूरी दुनिया में महिला सशक्तिकरण का प्रतीक हैं। वह भारतीय समाज में जन-जन के उन्नयन की प्रतीक बनी हैं तो यह यह भी भारतीय एकात्मता के अंतरंग सूत्रों का ही परिचायक है।
भारत के संविधान ने जनजातीय समाज को राजनीतिक एवं सामाजिक रूप से एक ओर जहां सशक्त बनाया है वहीं आज वह राजनीति व प्रशासन में सर्वोच्च पदों पर विराजमान हैं। आज जब उपनिवेशवादी तथा वैश्विक बाजार आधारित ताकतें दुनिया को अपने फायदे के लिए पुन: हांकने का प्रयास कर रही हैं, तब भारत का जनजातीय गौरव विश्व बंधुत्व एवं सामाजिक समरता का मार्ग दिखाता है।