Story of Sheikh Hasina : एक बार फिर बांग्लादेश से निकाली गईं शेख हसीना, जानिए उनकी पूरी कहानी
Sheikh Hasina Story : पिता से दूर रहते हुए भी शेख हसीना उनके विचारों के प्रभावित रहीं।
Story of Sheikh Hasina :स्वदेश विशेष। 5 अगस्त को लाखों की भीड़ ने शेख हसीना के पीएम आवास की ओर कूच कर दिया। न सेना ने उन्हें रोका न पुलिस ने कोई एक्शन लिया। शेख हसीना को भीड़ के भरोसे छोड़ दिया गया। गनीमत रही वे अपनी बहन के साथ समय रहते सुरक्षित स्थान यानी भारत आने में सफल रहीं। वे खुशकिस्मत हैं। 19 से अधिक बार वे मौत को चकमा देकर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने में कामयाब रहीं हैं। इस बार मामला थोड़ा लंबा खिंच सकता है। स्वदेश आपको बताएगा शेख हसीना की कहानी और बांग्लादेश में तख्तापलट का इतिहास।
5 अगस्त को क्या कुछ हुआ ये तो अब तक जगजाहिर हो गया है। शेख हसीना पीएम पद से इस्तीफा देकर सालों बाद एक बार फिर भारत की शरण में हैं। ये पहली बार नहीं है कि, वे भारत में मदद के लिए आई हैं। पिता की हत्या के बाद जब उनके सिर से छत छिन गई तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें 6 सालों तक भारत में शरण दी थी।
पहले समझिए बांग्लादेश की कहानी :
बांग्लादेश की कहानी, शेख मुजीबुर्रहमान की कहानी है। वे पूर्वी पकिस्तान में पाकिस्तान की सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचार और पश्चिम पाकिस्तान के नेताओं द्वारा की जा रही उपेक्षाओं से त्रस्त थे। 1969 तक स्थिति यह हो गई कि, अलग देश बनाए जाने की मांग उठने लगी। पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना हिन्दुओं और यहां तक की बांग्ला बोलने वाले मुसलामानों को चुनचुन कर मार रही थी। कई आंदोलन चलाए गए। इन सभी की अगुवाई कर रहे थे शेख मुजीबुर्रहमान। अगर पता न हो तो बता दें कि, शेख हसीना जिनकी आज बात की जा रही है वे इनकी बड़ी बेटी हैं।
मुजीबुर्रहमान पर लौटते हैं। पाकिस्तान द्वारा शेख मुजीबुर्रहमान को लंबे समय तक जेल में रखा गया। जितना उन्हें दबाया गया पूर्वी पाकिस्तान में वे उतने ही मजबूत होते चले गए। आखिरकार 26 मार्च 1971 से बांग्लादेश मुक्ति युद्ध शुरू हुआ। भारत का भी इसमें अहम योगदान था। होता भी क्यों न आखिर बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान) से लोग भागकर भारत ही तो आ रहे थे। 16 दिसंबर साल 1971 वो तारीख थी जब दुनिया के नक्शे पर एक देश और उभर कर आ गया। बांग्लादेश की कमान शेख मुजीबुर्रहमान के हाथों में आ गई। वे बांग्लादेश की सत्ता संभालने के लिए सबसे योग्य भी थे। आखिर वे ही तो थे जिनके संघर्ष ने दुनिया में पाकिस्तान की सेना के अत्याचारों की पोल खोलकर रख दी थी।
शेख मुजीबुर्रहमान बांग्लादेश के पहले राष्ट्रपति बने। अब लगने लगा था कि, बांग्लादेश में शांति आएगी और विकास की एक नई कथा लिखी जाएगी। पर कहते हैं जीवन संघर्ष का नाम है जो मरते दम तक जारी रहता है। शेख मुजीबुर्रहमान की भी यही कहानी थी। उन्होंने संघर्षों के बीच जन्म लिया। जवानी आंदोलन और जेल काटते हुए बिताई और आखिरी सांस तक लड़ते ही रहे।
बांग्लादेश का पहला तख्तापलट :
आजादी के 4 साल बाद ही बांग्लादेश पर मुसीबत के बादल मंडराने लगे थे। खैर जैसे गर्मी के बाद बारिश और बारिश के बाद सर्दी आती है उसी तरह बांग्लादेश में लोकतान्त्रिक सरकार के बाद तख्तापलट, हिंसा फिर चुनाव । 15 अगस्त, 1975 का दिन बांग्लादेश के लिए किसी मनहूस दिन से कम नहीं था। मुट्ठी भर सैनिकों ने बंगबंधु और उनके पूरे परिवार की हत्या कर दी थी। धनमोड़ी 32 में शेख मुजीबुर्रहमान को गोलियों से भून दिया गया। उनपर तब तक गोलियां चलाई गई जब तक उनकी आखिरी सांस न निकल गई। 15 अगस्त, 1975 को मुजीबुर्रहमान समेत उनके पूरे परिवार की हत्या कर दी गई थी। धनमोड़ी 32 की दीवार हो या फर्श खून के धब्बों से लाल हो चुकी थी। किसी ने सोचा भी नहीं था कि, जिस देश की आजादी के लिए मुजीबुर्रहमान ताउम्र संघर्ष करते रहे वहां उनकी ऐसे हत्या कर दी जाएगी।
पहले सैन्य तख्तापलट का नेतृत्व मेजर सैयद फारुक रहमान, मेजर खांडेकर अब्दुर रशीद और राजनीतिज्ञ खोंडेकर मुस्ताक अहमद ने किया था। इसके बाद एक नई व्यवस्था स्थापित हुई - मुस्ताक अहमद राष्ट्रपति बने और मेजर जनरल जियाउर रहमान को नया सेना प्रमुख नियुक्त किया गया।
15 अगस्त, 1975 के दिन मुजीबुर्रहमान का पूरा परिवार मारा गया था लेकिन दो लोग अब भी जिन्दा थे। इनमें शेख हसीना और उनकी बहन शामिल थीं। शेख मुजीबुर्रहमान की दोनों बेटियां जर्मनी में थी। उन्हें फोन पर पिता की हत्या और सैन्य तख्तापलट की जानकारी मिली थी। भारत द्वारा उन्हें सहायता दी गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें हर संभव मदद का वादा किया था। 6 साल तक वे अपने परिवार के साथ पहचान छुपाकर दिल्ली में रहीं। उनकी भी पूरी कहानी आगे बताई जाएगी।
बांग्लादेश में दूसरा तख्तापलट:
तख्तापलट का खेल ही ऐसा होता है, कब कौन किसे सत्ता से बेदखल कर दे कुछ कहा नहीं जा सकता। कुछ समय बाद ही ब्रिगेडियर खालिद मुशर्रफ, जिन्हें मुजीब के समर्थक के रूप में देखा जाता था, ने एक और तख्तापलट का नेतृत्व किया। उन्होंने खुद को नया सेना प्रमुख नियुक्त किया और जियाउर रहमान को नजरबंद कर दिया। उनका मानना था कि बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के पीछे जियाउर रहमान का हाथ था।
बांग्लादेश में तीसरा तख्तापलट:
जल्द ही तीसरा तख्तापलट भी हो गया। इसे वामपंथी सैन्यकर्मियों ने जातीय समाजतांत्रिक दल के वामपंथी राजनेताओं के साथ मिलकर शुरू किया था। इस घटना को सैनिक और जनक्रांति के नाम से जाना जाता था। तीसरे तख्तापलट के दौरान मुशर्रफ की हत्या कर दी गई और जियाउर रहमान राष्ट्रपति बन गए।
जियाउर रहमान ने पार्टी बना ली :
1978 में जियाउर रहमान ने बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) का गठन किया। उस साल के आम चुनाव में उन्होंने जीत भी हासिल कर ली लेकिन 1981 में मेजर जनरल मंज़ूर के नेतृत्व वाली एक विद्रोही सेना इकाई ने उन्हें खुद ही उखाड़ फेंका। विद्रोहियों ने राष्ट्रपति पर उन सैनिकों का पक्ष लेने का आरोप लगाया, जिन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में भाग नहीं लिया था - और जो आज़ादी के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से आए थे। ये कहानी गेम ऑफ़ थ्रोन्स सी लग सकती है।
जनरल इरशाद का तख्तापलट:
24 मार्च, 1982 को तत्कालीन सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद ने रक्तहीन तख्तापलट में सत्ता संभाली। उन्होंने संविधान को निलंबित कर दिया और मार्शल लॉ लागू कर दिया। उन्होंने राष्ट्रपति अब्दुस सत्तार (बीएनपी) को उखाड़ फेंका, जिन्होंने जियाउर रहमान का स्थान लिया था। इरशाद ने साल 1986 में जातीय पार्टी की स्थापना की। साल 1982 के तख्तापलट के बाद बांग्लादेश में पहले आम चुनाव की अनुमति भी दी। उनकी पार्टी ने बहुमत हासिल किया और इरशाद 1990 तक राष्ट्रपति रहे। देश में लोकतंत्र समर्थक विरोध प्रदर्शनों के बाद उन्हें पद छोड़ना पड़ा।
सेना द्वारा हस्तक्षेप जारी :
लेफ्टिनेंट जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद के बाद साल 1991 में बांग्लादेश में संसदीय लोकतंत्र वापस लौट आया था लेकिन सेना द्वारा हस्तक्षेप कभी बंद नहीं हुआ। 2006 - 07 में बीएनपी और अवामी लीग के बीच कार्यवाहक सरकार को लेकर टकराव हुआ। इसी साल अक्टूबर में, राष्ट्रपति इयाजुद्दीन अहमद ने खुद को कार्यवाहक सरकार का नेता घोषित किया और अगले साल चुनाव कराने की बात भी कही।
2007 में भी तख्तापलट :
इसके बाद 11 जनवरी, 2007 को सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल मोइन अहमद ने सैन्य तख्तापलट का नेतृत्व किया। सेना के समर्थन से कार्यवाहक सरकार बनी। अर्थशास्त्री फखरुद्दीन अहमद को सरकार का प्रमुख नियुक्त किया गया और जबकि राष्ट्रपति इयाजुद्दीन अहमद को अपना राष्ट्रपति पद बनाए रखने के लिए मजबूर होना पड़ा। जनरल मोइन अहम ने सेना प्रमुख के रूप में अपना कार्यकाल एक वर्ष और कार्यवाहक सरकार के शासन को दो वर्षों के लिए बढ़ा दिया। दिसंबर 2008 में राष्ट्रीय चुनाव होने के बाद सैन्य शासन समाप्त हो गया और शेख हसीना सत्ता में आईं। इसके बाद अब 2024 में दोबारा शेख हसीना को देश से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है और सेना ने अंतरिम सरकार के गठन की जिम्मेदारी उठाई है।
अब शेख हसीना की कहानी भी जान लीजिए...
पाकिस्तान के पूर्वी भाग में तुंगीपारा में 28 सितम्बर साल 1947 को मुजीबुर्रहमान और बेगम फजीलतुन्नेस मुजीब के घर एक बेटी का जन्म हुआ। इसका नाम रखा गया शेख हसीना। उनकी परवरिश में सबसे ज्यादा योगदान उनकी मां और दादी का ही था क्योंकि पिता तो अक्सर जेल में रहा करते थे। उन्हें कभी - कभी ही पिता का स्नेह मिल पाता था। पिता से दूर रहते हुए भी शेख हसीना उनके विचारों के प्रभावित रहीं। शेख मुजीबुर्रहमान का बांग्लादेश के इतिहास में बहुत बड़ा योगदान है। वे न होते तो दुनिया के नक्शे पर आज एक देश कम होता।
शेख हसीना ने तुंगीपारा के एक प्राथमिक स्कूल में शिक्षा ली थी। इसके बाद वे अपने परिवार के साथ ढाका चलीं गईं। ढाका में अजीमपुर गर्ल्स स्कूल में उन्होंने आगे की पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने ईडन कॉलेज में प्रवेश लिया।
राजनीति में शेख हसीना :
शेख हसीना के राजनीतिक जीवन की शुरुआत ईडन कॉलेज से हुई। उन्हें छात्र संघ का उपाध्यक्ष चुना गया। ईडन कॉलेज से स्नातक की डिग्री पूरी कर उन्होंने ढाका यूनिवर्सिटी में प्रवेश लिया। उन्होंने यहाँ से बंगाली साहित्य का अध्ययन किया। ढाका यूनिवर्सिटी में शेख हसीना को स्टूडेंट लीग महिला विंग का महासचिव चुना गया।
साल 1967 में शेख हसीना ईडन कॉलेज से ग्रेजुएट हुईं। शेख हसीना का विवाह न्यूक्लियर वैज्ञानिक एमए वाजिद मियां से कराया गया। विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी पढ़ाई और राजनीति में सक्रियता जारी रखी। 1970 के दशक में पकिस्तान में आजादी की लड़ाई शुरू हो चुकी थी। इस लड़ाई की शुरुआत का कारण थी पाकिस्तान की सेना।
1970 के आम चुनाव से शुरू हुई थी बांग्लादेश की कहानी :
पाकिस्तान (तब पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान) के 1970 के आम चुनाव हुए। शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान में 162 में से 160 सीटें जीती।वहीं जुल्फिकार अली भुट्टो की पीपीपी ने पश्चिमी पाकिस्तान में 138 में से 81 सीटें जीतीं। ये आंकड़े पाकिस्तान के दो टुकड़े करने का मेंडेट था।
अवामी लीग की जीत हुई। इसके बावजूद, पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल याह्या खान ने मुजीबुर रहमान को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया। इसके बाद पूर्वी पाकिस्तान में अशांति फैल गई। यहां बंगाली सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से प्रेरित और उर्दू थोपे जाने के खिलाफ़ आंदोलन पहले से ही चल रहे थे। इन आंदोलनों को दबाने के लिए सेना बांग्ला बोलने वालों को ढूंढ - ढूंढ कर मार रही थी।
7 मार्च, 1971 को, मुजीबुर्रहमान ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों से बांग्लादेश की आज़ादी के लिए संघर्ष में शामिल होने का आह्वान किया। इसके बाद पाकिस्तानी सेना ने ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया। बड़े पैमाने पर हत्याएं, अवैध गिरफ्तारियां और बलात्कार और आगजनी का क्रूर दौर शुरू हुआ। कोई कितना ही सहता! पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। इसके बाद बांग्लादेश मुक्ति युद्ध छिड़ गया। भारत ने जब हस्तक्षेप किया तो पाकिस्तान कहां टिकने वाला था। विद्रोही सैनिकों ने मुक्ति वाहिनी का गठन किया और पाकिस्तानी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध किया।
16 दिसंबर साल 1971 को बांग्लादेश के जन्म के साथ मुक्ति युद्ध समाप्त हुआ। बांग्लादेश की कमान शेख मुजीबुर्रहमान के हाथों में आ गई। 4 साल बाद तख्तापलट हो गया और बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान के साथ क्या हुआ ये तो पहले भी बता दिया गया है।
अब शेख हसीना के राजनीतिक करियर पर लौटते हैं...
शेख हसीना अपने पिता की मौत के बाद भारत में गुमनामी की जिंदगी जीने को मजबूर थीं। जल्द ही स्थिति बदलने वाली थी। साल 1981 में भारत में रहते हुए उन्हें अवामी लीग का अध्यक्ष चुना गया। इसके बाद वे बांग्लादेश लौट गईं। शेख हसीना 6 साल बाद अपने देश लौटीं थीं। भारी भीड़ उनके स्वागत के लिए एयरपोर्ट पहुँची थी। देश लौटने के कुछ समय के बाद ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी और नजरबंदी का दौर शेख हसीना के लिए लम्बे समय तक जारी रहने वाला था।
आने वाले सालों में वे कभी नजरबंद रहीं तो कभी पुलिस की हिरासत में। बांग्लादेश और शेख हसीना के लिए भी यह कठिन समय था। साल 1986 में ढाका में इलेक्शन हुए। चुनाव के पहले शेख हसीना को रिहा किया गया था। बहरहाल अवामी लीग हसीना के नेतृत्व में 100 सीट ही जीत पाई। उन्होंने विपक्ष में बैठकर समय गुजारा।
कई बार हत्या के प्रयास :
बांग्लादेश में शेख हसीना जगह - जगह रैली किया करती थीं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश में शेख हसीना को मारने के लिए 19 बार प्रयास किए गए। वे हर बार बच जाती थीं। इन हमलों में उनकी पार्टी के कार्यकर्ता और नेता मारे जाते थे। एक बार तो शेख हसीना चिटगांव में चुनावी रैली के लिए गई थीं। उन्हें जानकारी मिली कि, कार में ही बम प्लांट कर दिया गया है। जिस समय उन्हें यह जानकारी मिली वो कार में ही सवार थीं। शेख हसीना बच गई लेकिन इस हमले में 80 लोगों की मौत हुई।
पहली बार पीएम बनी शेख हसीना :
1996 में आम चुनाव हुए शेख हसीना पहली बार बांग्लादेश की प्रधानंमंत्री बनी। इसके बाद 2001 में भी चुनाव हुए और अब अवामी लीग हार गई। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी यानी बीएनपी को बहुमत मिला। शेख हसीना ने केयर टेकर गवर्नमेंट पर ठीक तरह से चुनाव न करवाने का आरोप लगाया। बीएनपी सत्ता में आई तो अवामी लीग के नेताओं की गिरफ्तार शुरू हुई। इस तरह देश में अस्थिरता की स्थिति बन गई।
एक बार फिर देश निकाला :
साल 2007 में शेख हसीना अमेरिका की यात्रा के लिए गई थीं। उनके जाते ही उनपर बांग्लादेश में प्रवेश करने से रोक लगा दी गई। शेख हसीना ने 15 दिन अमेरिका में बिताए। दबाव बना तो बीएनपी को शेख हसीना से बैन हटाना पड़ा। जैसे ही हसीना बांग्लादेश लौटकर एयरपोर्ट पर पहुँची तो भीड़ ने गर्म जोशी से उनका स्वागत किया।
सालों से सत्ता पर काबिज :
शेख हसीना साल 2009 में हुए चुनाव में विजयी हुई। इसके बाद 2014 फिर 2019 और अब 2024 में वे दोबारा सत्ता में लौट आई थीं। वे बांग्लादेश में लम्बे समय तक प्रधानमंत्री रहने वाली नेता हैं। यह हैरत की बात है कि, जीवन में इतने संघर्ष करने वाली नेता यूं राह से भटक कैसे गई।
5 अगस्त 2024 को जो कुछ भी हुआ उसके लिए कोई अमेरिका की CIA को दोषी मान रहा है कोई पाकिस्तान समर्थित कट्टरपंथ को लेकिन क्या सबसे बड़ी जिम्मेदारी शेख हसीना की नहीं बनती। लोकतंत्र में विपक्ष का सहयोगी होना भी बेहद जरूरी है। विपक्ष विहीन लोकतंत्र में सत्ता पर काबिज होकर शेख हसीना ने पहली गलती की। इसके बाद देश में छात्रों की मांग को अनसुना कर उन पर गाड़ी चढ़वाना, पुलिस द्वारा गोलियां चलाई जाना कहां का न्याय है। पिछली बार 300 और हाल ही में 90 लोगों की मौत हो गई। इसके बावजूद बांग्लादेश की सरकार उन्हें आतंकवादी कहती रही। इस पूरी कहानी में ठगे वे गए हैं जिन्हे देश में शांति और विकास की उम्मीद थी।