ग्वालियर/प्रमोद पचौरी/स्वदेश वेब डेस्क। मध्य प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस ने क्षत्रिय समुदाय को हमेशा तवज्जो दी है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह दस साल मुख्यमंत्री रहे। उनसे पहले प्रदेश के सबसे कद्दावर नेता अर्जुन सिंह ने क्षत्रिय समुदाय को विशेष ऊंचाइयां प्रदान कीं। अर्जुन सिंह प्रदेश की राजनीति में लंबे समय तककांग्रेस के वट वृक्ष बने रहे। उनके समानान्तर ब्राह्मण नेता डा. शंकरदयाल शर्मा प्रदेश संगठन में जमीन तलाशते रहे लेकिन, वे प्रदेश के क्षत्रिय समुदाय को हाशिए पर ले जाने में कामयाब नहीं हो पाए। काबिलियत के धनी अर्जुन सिंह प्रधानमंत्री बनने के रास्ते ही तलाशते रहे जबकि डॉ. शंकरदयाल शर्मा अपने वाक्चातुर्य से पहले उपराष्ट्रपति फिर राष्ट्रपति जैसे सर्वाेच्च पद पर आसीन हुए। इन दोनों नेताओं के साए में प्रदेश के तीन युवा नेताओं कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और सुरेश पचौरी का आविर्भाव हुआ। कमलनाथ खुद अपने आप में कांग्रेस के मजबूत स्तंभ बने रहे जबकि दिग्विजय सिंह ने अर्जुन सिंह और सुरेश पचौरी डा. शंकरदयाल शर्मा के जरिए राजनीतिक सीढिय़ां चढ़े। इसके इतर, ग्वलियर-चंबल अंचल में कांग्रेस की ताकत का केंद्र माधवराव सिंधिया बने रहे। अर्जुन सिंह के बाद प्रदेश की बागडोर दस साल तक दिग्विजय सिंह के हाथ रही। इस बीच नाथ और पचौरी का केंद्र की राजनीति में सितारा चमकता रहा। दिग्विजय सिंह की जनविरोधी नीतियों के कारण कांग्रेस आज तक सत्ता से बेदखली का दंश झेल रही है। दिग्गीराजा, कमलनाथ और सुरेश पचौरी की तिगड़ी में असंतुलन के चलते भाजपा चुनाव में हर बार बाजी मारती गई। कांग्रेस में असल मुद्दा गुटबाजी का है, क्या इस पर कोई विचार किया जा रहा है?
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में वर्ष 2007 में मायावती के नेतृत्व में बसपा को मिले प्रचंड बहुमत के बाद देशभर में मायावती के सोशल इंजीनियरिंग का डंका बजा। मायावती-सतीश मिश्रा की दूरदर्शिता के चलते कांग्रेस आलाकमान नेे ब्राह्मण वोट बचाने के लिए मध्य प्रदेश में ब्राह्मण नेता सुरेश पचौरी को प्रदेश की बागडोर सौंपी। दस जनपथ, से नजदीकियों के चलते पचौरी न केवल प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए बल्कि पार्टी के सत्ता में आने पर उनके मुख्यमंत्री बनने के रास्ते भी खुलते नजर आने लगे। दस साल का चुनावी वनवास काट रहे दिग्गीराजा को पचौरी का बढ़ता कद रास नहीं आया। कमलनाथ से हाथ मिलाकर उन्होंने कांगे्रस को 68 सीटों पर रोक दिया। बात यहीं तक सीमित रहती तो भी ठीक था गुटबाजी की पराकाष्ठा देखिए, ब्राह्मण नेता पचौरी को भोजपुर से चुनाव ही हरवा दिया। पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के बेटे से पचौरी 20 हजार मतों से हार गए। पचौरी समर्थक मानते हैं कि उन्होंने कभी भी संगठन में अपनों को आगे नहीं बढ़ाया। टिकट मिलना तो दूर की बात है। ग्वालियर से अशोक शर्मा, भिंड से स्व. सत्यदेव कटारे, सागर से त्रिलोकी कटारे और राकेश कटारे पर तो पचौरी समर्थक होने का ठप्पा लगा रहा। इसी कड़ी में इंदौर से ब्राह्मण नेत्री शोभा ओझा का नाम भी जुड़ता है। वक्त बदला, पचौरी समर्थक सत्यदेव कटारे, राकेश कटारे ने अपने-अपने ठिकाने बदले अशोक शर्मा वजूद पाने के लिए सिंधिया से नजदीकियां बढ़ा रहे हैं। शोभा ओझा पार्टी की महिला कमान संभालने के बाद प्रदेश में मीडिया की कमान संभाल रही हैं। विधानसभा चुनाव में उनकी दिलचस्पी नहीं है। हां ! आगे लोकसभा की बात आएगी तो देखा जाएगा।
मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और सुरेश पचौरी की तूती बोलती रही है
कांग्रेस के वक्त की नजाकत देखिए, फंड की कमी से जूझती पार्टी की नइया पार लगाने के लिए कमलनाथ को आगे किया गया है। मौजूदा नेतृत्व राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया इस बार नए अवतार में हैं। वे अपनी संभावना बनाए हुए हैं। पचौरी भोजपुर से विधानसभा का रास्ता तलाश रहे हैं। दिग्गीराजा ने अपने कार्यकाल में जो बीज बोए थे, उसकी फसल काट रहे हैं। शिवराज के 15 साल के शासन की कमजोरियां लोगों के बीच ले-जाकर कांग्रेस सत्ता पर सवार होना चाहती है। प्रदेश की राजनीति में अब तक सिरमौर रही कांग्रेस और भाजपा के अलावा बसपा और क्षेत्रीय दल मैदान में हैं। त्रिकोणीय और कहीं-कहीं चतुष्कोणीय मुकाबले में हर एक दल अपने को बीस बता रहा है, बाकी को उन्नीस। यह तो 11 दिसंबर को पता चलेगा कि कौन कितने पानी में है। एक दूसरे को ठिकाने पर लगाने के लिए कांग्रेसी नेताओं ने सत्ता बेदखिली का जो तिलिस्म रचा गया, उसकी चाभी है किसके पास? कमलनाथ, दिग्गीराजा, सुरेश पचौरी या सिंधिया में से कौन होगा प्रदेश में कांग्रेस का भविष्य?