ग्वालियर/स्वदेश वेब डेस्क। पिछले 15 साल से निर्वासित जीवन जी रही कांग्रेस ने 'मिशन मध्यप्रदेश 2018' में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन के सहारे चुनावी वेतरणी पार करने का ताना-बाना बुना था, लेकिन सत्ता पाने के मोह में कांग्रेस शायद इस कहावत को भूल गई थी कि 'माया महा ठगिनी, हम जानी। अर्थात माया चलायमान होती है। माया का कोई भरोसा नहीं, वह कब और किसके पास चली जाए। कांग्रेस के साथ भी यही हुआ। छत्तीसगढ़ में माया बहन अजीत जोगी के साथ चली गईं तो मध्यप्रदेश में उन्होंने 'एकला चलो' की नीति अपनाते हुए 22 सीटों पर अपने उम्मीदवारों की घोषणा करके कांग्रेस के सपनों पर पानी फेर दिया। इसके अलावा अन्य छोटे दल भी चुनावी मैदान में होंगे, जिससे भाजपा विरोधी मतों का विभाजन होना तय है। ऐसे में सत्ता तक पहुंचने की कांग्रेस की राह अब आसान नहीं रही। राजनैतिक विश्लेषक भी मान रहे हैं कि बसपा सहित अन्य छोटे दल भाजपा का कम बल्कि कांग्रेस का चुनावी गणित ज्यादा बिगाड़ेंगे।
आगामी वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला करने के लिए प्रस्तावित महागठबंधन को अभी से झटके पर झटके लग रहे हैं। संभावित महागठबंधन में प्रमुख घटक मानी जा रही बसपा की मुखिया मायावती फिलहाल महागठबंधन से दूरी बनाती दिख रही हैं। उन्होंने 24 घण्टे के भीतर ही छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के बागी नेता अजीत जोगी का साथ देने और मध्यप्रदेश में अपने दम पर चुनाव लडऩे का फैसला करके कांग्रेस को लगातार दो बड़े झटके देकर महागठबंधन की उम्मीदों को भी बड़ा झटका दे दिया है। इधर बसपा की एकला चलो नीति के चलते महागठबंधन बनने की संभावना निर्मूल हो जाने से भारतीय जनता पार्टी ने राहत की सांस ली है, लेकिन भाजपा शायद यह भूल रही है कि चौथी बार मध्यप्रदेश की सत्ता प्राप्त करना उसके लिए भी आसान नहीं है क्योंकि अनुसूचित जाति-जनजाति कानून में संशोधन करने की गलती उसकी राह में सबसे बड़ा कांटा बनकर उभरी है। विरोध के चलते गुरुवार को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने यह कहकर नाराजगी दूर करने का प्रयास किया कि इस कानून के तहत जांच किए बिना किसी की गिरफ्तारी नहीं होगी और मध्यप्रदेश में इस कानून का दुरुपयोग नहीं होने दिया जाएगा। अब यह देखने वाली बात होगी कि मुख्यमंत्री के इस बयान का उस वर्ग पर कितना असर पड़ता है, जो इस कानून का मुखर विरोध कर रहा है?
म.प्र. में बसपा तीसरी बड़ी पार्टी
अभिभाजित म.प्र. में 1998 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 6.01 प्रतिशत मत प्राप्त कर 11 सीटें जीती थीं और 2013 में केवल चार सीटें जीतने के बाद भी बसपा वोट शेयर के मामले में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। वर्ष 2013 के चुनाव में बसपा ने जहां अम्बाह, दिमीनी, रैगांव, मनगवां चार सीटों पर विजय हासिल की थी वहीं श्योपुर, सुमावली, मुरैना, भिण्ड, महाराजपुर, पन्ना, रामपुर-बघेलान, सेमरिया, देवतालाव, रीवा, कटनी आदि 12 सीटों पर बसपा दूसरे नम्बर रही थी। इसके अलावा बसपा ने 17 सीटों पर जहां 30 हजार तो 62 सीटों पर 10 हजार से अधिक मत प्राप्त किए थे। खास बात यह है बसपा ने ग्वालियर-चम्बल की 24 सीटों पर 16 प्रतिशत मत हासिल किए थे। म.प्र. में बसपा तीसरी बड़ी पार्टी
सिंधिया और अजयसिंह को कमजोर करने रचा था चक्रव्यूह
कांग्रेस द्वारा बसपा के साथ गठबंधन की नीति को राजनैतिक विश्लेषक पूर्व केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और नेता प्रतिपक्ष अजयसिंह (राहुल भैया) के विरुद्ध एक राजनैतिक चक्रव्यूह के रूप में देख रहे थे। चूंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया का ग्वालियर चम्बल तो अजयसिंह का विंध्यि क्षेत्र में दबदबा है और उत्तर प्रदेश से लगे इन दोनों ही क्षेत्रों में बसपा का भी सबसे ज्यादा प्रभाव है। इसीलिए प्रदेश कांगे्रस अध्यक्ष कमलनाथ ने कांग्रेस नेतृत्व के समक्ष म.प्र. विधानसभा चुनाव में बसपा के साथ गठबंधन का पांसा फैंका था, लेकिन बसपा ने स्वयं के बलबूते पर चुनाव लडऩे का ऐलान करके कमलनाथ के इस षड्यंत्र पर पानी फेर दिया। राजनैतिक विश्लेषकों के अनुसार यदि बसपा के साथ गठबंधन हो जाता तो इन दोनों ही क्षेत्रों की सबसे ज्यादा सीटें बसपा के खाते में चली जातीं। इससे सिंधिया और अजयसिंह समर्थक विधायक कम संख्या में चुनकर आते, जिससे ये दोनों नेता मुख्यमंत्री की दौड़ से स्वत: ही बाहर हो जाते और कमलनाथ का रास्ता साफ हो जाता।