पॉलिटिकल किस्से : राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने अपमान का बदला सरकार गिराकर लिया

  • ग्वालियर - चम्बल अंचल में 67 में राजमाता के मुंह फेरते ही कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया
  • चंद्रवेश पांडे

Update: 2024-04-08 12:15 GMT

ग्वालियर-चंबल अंचल की चारों सीटों पर जनसंघ के प्रत्याशी जीते

देश के चौथे आम चुनाव सन् 1967 में हुए लेकिन तब तक ग्वालियर-चंबल का परिदृश्य काफी कुछ बदल चुका था। इस दौर में राजमाता विजयाराजे सिंधिया का गैर कांग्रेसी राजनीतिक सफर शुरू हुआ। उस दौर में राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र से मनमुटाव के चलते राजमाता ने चुनाव से पहले ही कांग्रेस को तिलांजलि दे दी। कांग्रेस को इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ा। अंचल की चारों लोकसभा सीटों पर कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। 67 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे। राजमाता ने दोनों ही चुनाव लड़े और जीतीं भी। हालांकि बाद में उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया।

द्वारिका प्रसाद मिश्र की नेहरू जी से ज्यादा नहीं पटी

1967 के आम चुनावों से पहले उस समय के राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालना समीचीन होगा। पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र उस समय मुख्यमंत्री थे। वे साहित्यकार भी थे और राजनीतिज्ञ भी। राजनीतिक कौशल के चलते उन्हें चाणक्य कहा जाता था। नेहरू व शास्त्री के अवसान के बाद राष्ट्रीय राजनीति में इंदिरा जी की तूती बोल रही थी। द्वारिका प्रसाद मिश्र की नेहरू जी से ज्यादा नहीं पटी, लेकिन इंदिरा जी के वे काफी नजदीक रहे। एक तरह से उनके सलाहकारों में शामिल थे वे। यूं तो द्वारिका प्रसाद मिश्र महिलाओं का काफी सम्मान करते थे, पर राजमाता के लिए वे कभी कुर्सी से नहीं उठे। उस दौर में राजमाता का खासा दबदबा था। वे सत्ता के प्रमुख केन्द्र के रूप में स्थापित हो चुकी थीं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 62 का चुनाव उन्होंने महल की देहरी से निकले बिना ही जीत लिया था।

बताते हैं कि सन् 67 का विधानसभा चुनाव व लोकसभा चुनाव एक साथ होने की घोषणा हुई। इस दौरान राजमाता व द्वारिका प्रसाद मिश्र के बीच का टकराव सतह पर आ चुका था। पुराने लोग बताते हैं कि एक दिन एक जरूरी बैठक में द्वारिका प्रसाद मिश्र ने राजमाता को इंतजार करा दिया। इस घटना ने दोनों के बीच चल रहे मनमुटाव में 'आग में घीÓ का काम किया। राजमाता इसे अपना अपमान मान बैठी। वे वहां से लौट गईं, लेकिन मन में इस अपमान का बदला लेने की ठान ली। वे चुनाव से पहले ही जनसंघ के साथ हो गईं और इतना ही नहीं मिश्रा की सरकार गिराने में जुट गईं। उन्होंने कांग्रेस के विधायकों को तोड़कर अपनी ओर मिला लिया। तब राजमाता पर तमाम आरोप भी लगे। मिश्रा की सरकार गिर गई। इसके बाद गोविन्द नारायण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि वे भी ज्यादा समय नहीं चले।

राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने खड़े किए अपने प्रत्याशी

इसके बाद राजमाता ने तमाम सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए। इनमें से अधिकांश जनसंघ के चुनाव चिन्ह 'दीपकÓ पर चुनाव लड़े। राजमाता ने उन्हें योग्य प्रत्याशी बताकर वोट मांगे। उस समय डॉ. धर्मवीर ही एक मात्र अपवाद थे, जिन्होंने दीपक चिन्ह पर चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था। राजमाता ने शिवपुरी की करैरा विधानसभा व गुना संसदीय सीट से चुनाव लड़ा। उन्होंने करैरा में कांग्रेस के दिग्गज गौतम शर्मा की जमानत जब्त कराई तो गुना में अपने करीबी सरदार डीके जाधव को 1,86,189 वोटों से हराया। अंचल की बाकी सीटों पर भी कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो चुका था। कांग्रेस के सफाए में राजमाता का पूरा योगदान रहा। ग्वालियर में जनसंघ के प्रत्याशी रामअवतार शर्मा ने कांग्रेस के वैदेही चरण पाराशर को 1,48,000 वोटों से मात दी तो भिण्ड में स्वतंत्रता सेनानी यशवंत सिंह कुशवाह ने जनसंघ के टिकट पर चुनाव जीता और कांग्रेस के वीरेन्द्र सिंह को 71 हजार वोटों से हराया। मुरैना में निर्दलीय आतमदास ने कांग्रेस के सूर्यप्रसाद को हराया।

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