56 साल पहले राजमाता सिंधिया के पार्टी छोड़ने पर चंबल में साफ हो गई थी कांग्रेस

1967 के विधानसभा चुनाव में सीटें 288 से बढ़कर 296 हो गईं थी।;

Update: 2023-10-06 19:25 GMT

भोपाल |  56 साल बाद एक बार फिर मप्र की राजनीति में सिंधिया परिवार जनसंघ (अब भाजपा) के साथ है। 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए थे। जिससे कांग्रेस की सरकार गिरी। राजमाता सिंधिया के बाद उनके पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ताकत दिखाई। अब विधानसभा चुनाव में ग्वालियर- चंबल में भाजपा की जीत को सिंधिया से जोड़कर देखा जा रहा है। मौजूदा स्थिति में 34 सीटों में से कांग्रेस के पास 17 सीटें हैं। 2018 में कांग्रेस ने ग्वालियर चंबल में 26 सीटें जीतीं थीं। अब एक बार फिर ग्वालियर-चंबल में चुनावी समीकरण सिंधिया परिवार के इर्दगिर्द ही घूमते दिखाई दे रहे हैं। क्योंकि चुनाव से ठीक पहले राजमाता सिंधिया की बेटी यशोधरा राजे सिंधिया ने बीमारी का हवाला देकर चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है। उन्होंने चुनाव क्षेत्र शिवपुरी में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में भावुक होते हुए कहा कि अब उनका राजनीतिक करियर खत्म हो गया है |

मालवा बन चुका था जनसंघ का गढ़

कांग्रेस को चुनाव में बहुमत मिल रहा था, लेकिन उसका वोट बैंक लगातार खिसक रहा था। जबकि जनसंघ का वोट प्रतिशत बढ़ रहा था। जनसंघ को वोट प्रतिशत 1957 के 10 प्रतिशत से बढ़कर 1967 में 28 प्रतिशत पर पहुंच गया। इसके उलट कांग्रेस मत प्रतिशत 1957 की तुलना में 1967 के चुनाव में 10 प्रतिशत तक कम हो गया। चुनाव में जनसंघ ने केवल 78 सीटें जीतीं। जबकि 11 सीटों पर वह दूसरे स्थान पर रही। हालांकि जनसंघ को बड़ी जीत मालवा में ही मिली। जहां से उसे 78 में से 43 सीटें मिलीं। जबकि महाकौशल व छत्तीसग़ढ से क्रमश: 9 व 10 सीटें मिलीं। विन्ध्य में जनसंघ को केवल एक सीट ही मिली। छत्तीसगढ़ कांग्रेस का गढ़ बना रहा, जहां उसे 86 सीटों में से 62 सीटों पर सफलता मिली। महाकौशल में 64 में से 50 सीटें मिलीं। इन दो क्षेत्रों की वजह से कांग्रेस को विधानसभा में बहुमत मिल सका। इस चुनाव तक समाजवादी पार्टियों की सीटें कम होती गईं। खास बात यह है कि इस चुनाव तक जनसंघ अनुसूचित जाति के मतदाताओं में भी अपनी जगह बना चुका था। इस वर्ग की 38 में से 15 सीटें जनसंघ ने जीतीं थीं। 

1967 में आखिरी बार एक साथ हुए थे दोनों चुनाव

1967 के विधानसभा चुनाव में सीटें 288 से बढ़कर 296 हो गईं थी। साथ ही यह आखिरी विधानसभा चुनाव था, जो लोकसभा चुनाव के साथ संपन्न हुआ। इसके बाद से दोनों चुनाव अलग-अलग होते आए हैं। 1987 के विधानसभा चुनाव के पहले लगभग दो दर्जन से अधिक निर्दलीय व समाजवादी पार्टियां के विधायक कांग्रेस में शामिल हो गये थे और 1967 का विधानसभा चुनाव उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में लड़ा।

राजमाता ने एक साथ दो चुनाव लड़े और दोनों जीते

राजमाता जनसंघ से पहली बार विधायक चुनी गईं। साथ ही लोकसभा भी जीतीं। उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। समाजवादी विधायकों के कांग्रेस में जाने और राजमाता सिंधिया के गठबंधन के कारण जनसंघ को मिली बड़ी सफलता। प्रजा समाजवादी व समाजवादी पार्टी दोनों को नुकसान हुआ और प्रजा समाजवादी पार्टी सीटें पिछले चुनाव की तुलना में 33 से घटकर 9 रह गई। जबकि समाजवादी पार्टी को भी चार सीटों का नुकसान हुआ और वह 14 से 10 पर आ गईं। जनसंघ की सीटें 41 से बढ़कर 78 हो गई। चंबल में 15 सीटें मिलती हैं। कांग्रेस से अलग होकर बनी जन कांग्रेस पार्टी को सिर्फ 2 सीटें मिली 

अर्जुन सिंह, पटवा समेत बड़े नेता हारे थे चुनाव

कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में नरसिंह राव दीक्षित, गुलशेर अहमद, अर्जुन सिंह, मिश्रीलाल गंगवाल, श्यामसुंदर पाटीदार आदि अपना चुनाव हार गये। बाद में उमरिया के विधायक के त्यागपत्र से खाली हुई सीट पर उपचुनाव में अर्जुनसिंह विधायक निर्वाचित हुए। संयुक्त समाजवादी पार्टी के भी कई वरिष्ठ नेता. जगदीश जोशी, श्रीनिवास तिवारी, पुरुषोत्तम कौशिक, श्याम कार्तिक आदि चुनाव हारे। जनसंघ से चुनाव हारने वाले बड़े नेताओं में सुंदरलाल पटवा, लखीराम अग्रवाल, लक्ष्मीनारायण पांडे, बाबूराव परांजपे आदि शामिल रहे।

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