लक्ष्मीनारायण भाला "लक्खीदा: सत्ता प्राप्ति के लिए युद्ध लड़ने की अपनी परंपरा से हटकर अब हम सत्ता प्राप्ति के लिए चुनाव लड़ने की परंपरा अपना चुके हैं। युद्ध और चुनाव में एक मौलिक अंतर है। युद्ध, शत्रु भाव से लड़ा जाता है जबकि चुनाव, बंधु भाव से। युद्ध में लड़ाई शत्रु-पक्ष से होती है जबकि चुनाव में लड़ने वाला प्रति-पक्ष होता है।
युद्ध में शरीर और प्राण की बली अर्थात हत्या होना स्वाभाविक माना जाता है परंतु चुनाव में मन और बुद्धि अर्थात तर्क के सहारे अपना वर्चस्व स्थापित किया जाता है।
सत्ता प्राप्ति की परंपरा के इस मौलिक परिवर्तन के विषय में अर्थात युद्ध को त्याग कर चुनाव की लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाने के ऐतिहासिक पड़ावों के बारे में जानना हमारे लिए जरूरी है। इसी पृष्ठभूमि में शस्त्र और शास्त्र का समन्वय साधने वाले अपने संविधान को समझना जरूरी है।
पौराणिक काल का विचार न करते हुए हम विगत 2000 वर्षों के घटनाक्रम का अध्ययन करें तो ध्यान में आता है कि भारत में अपनी-अपनी भौगोलिक परिधि में रहकर राज करने वाले तथा अपने राज्य की रक्षा के लिए या विस्तार के लिए युद्ध करने वाले सैकड़ों राजा हुए है।
राज्यों के कारण भौगोलिक विभाजन होते हुए भी भारत की सांस्कृतिक एकता को बनाए रखने का काम साधु-सन्तों और मुनी-जनों के साथ ही कला तथा साहित्य साधकों के द्वारा अनवरत होता रहा है। राज्य-व्यवस्था इन संस्कृति-साधकों के लिए बाधक नहीं अपितु सहायक ही रहती थी क्योंकि भारत-राष्ट्र के सांस्कृतिक चिंतन में "एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति" यह बात सर्वमान्य रही है।
सत्य एक ही है भले ही विद्वतजन उसकी व्याख्या अपने-अपने ढंग से विविध रूपों में करते हो। यही भाव राजा और प्रजा के स्वभाव में था। परिणामत: विविध पंथों का सहअस्तित्व यही भारत की पहचान थी। शैव, वैष्णव आदि के समान ही जैन, बुद्ध आदि पंथों को भारतीय समाज ने अपना लिया था। जम्बूद्वीप, भरतखण्ड, आर्यावर्त, हिंदुस्थान, भारत आदि नामों से विश्व में ख्याति प्राप्त यह भू-भाग "भा" में "रत" अर्थात ज्ञान प्राप्ति में लगे रहने वाले लोगों का निवास स्थान है, इसी रूप में जाना जाता था। नालंदा, तक्षशिला आदि विश्वविद्यालय विश्व भर को ज्ञान वितरित करते थे।
ज्ञान संपदा के साथ आर्थिक संपदा में भी भारत आगे था तथा सोने की चिड़िया के रूप में जाना जाता था। "शत हस्ते समाहार सहस्त्र हस्ते विकिर" इस सूत्र के आधार पर सौ हाथों से ज्ञान संपदा तथा आर्थिक संपदा बटोर कर जनहित में हजार हाथों से वितरित करना यह भारतवासियों तथा भारतवंशियों का स्वभाव बन गया। ऐसा उदारमना भारतीय समाज विश्व को परिवार भाव से "वसुधैव कुटुंबकम्" के रूप में देखने लगा।
पश्चिमी चिंतन का अनुप्रवेश
लगभग 2000 वर्ष पूर्व पश्चिम में एक ऐसा चिंतन उभर कर आया जो विश्व को परिवार नहीं बाजार के रूप में देखता है। बाजार में अपनी धाक जमानी हो तो छल-चातुरी का सहारा लिया जाता है। वही रास्ता उन्होंने अपनाया। अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए बाइबल नामक ग्रंथ की रचना की और उसके सहारे व्यापार के साथ-साथ अपने पंथ का विस्तार करने में जुट गए। धीमी गति से ईसाई नामक यह पंथ दूसरे देशों में प्रवेश करने लगा। इसके लगभग 500 वर्ष बाद पश्चिम से ही एक और विचार उभर कर सामने आया।
पुरुष प्रधान यह चिंतन नारी तथा प्रकृति को उपभोग की वस्तु समझकर उस पर कब्जा बनाए रखने की नीति अपनाकर तेजी से आगे बढ़ने लगा। इसने भी कुरान नामक ग्रंथ की रचना कर इस्लाम पंथ की स्थापना की। केवल छल-कपट ही नहीं, शस्त्र के सहारे इसने अपना विस्तार प्रारंभ किया। लगभग 400 वर्षों में कई देशों पर अपना कब्जा जमाते हुए उन्होंने भारत पर भी आक्रमण करना प्रारंभ किया।
भारत की उदारता उनके लिए वरदान बन गई। छोटे-छोटे राज्यों की आपसी लड़ाइयां भी उनके लिए उपयोगी बनती गई। लगातार 700 वर्षों तक उन्होंने भारत के कई हिस्सों पर छोटे-छोटे राज्यों के सहारे शासन किया। अपने इस्लाम पंथ के विस्तार के लिए अन्य पंथों की मान्यताओं पर, प्रतिकों पर तथा साधना केंद्रों पर आक्रमण करना और शिक्षा केंद्रों को नष्ट करना, यह उनकी रणनीति थी।
भारत के लिए यह अनपेक्षित था अतः भारत के संस्कृति-साधक तथा राज्यों के शासक असमंजस की स्थिति में ही क्यों ना हो, अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए भक्ति और शक्ति के सहारे संघर्ष करते रहे। नारी और प्रकृति को उपभोग की वस्तु मानना भारत की मानसिकता में नहीं है अतः इस्लाम पंथ के साथ संघर्ष केवल राजकीय सत्ता के लिए नहीं मानवीय मान्यताओं के लिए भी था।
संघर्ष के इसी कालखंड में धीमी गति से आगे बढ़ने वाला ईसाई पंथ भी व्यापार के बहाने भारत में आया। शस्त्र के सहारे राज करने की बजाय कानून के सहारे राज करना और उसे मनवाने के लिए जहां आवश्यक है वहां शस्त्र का उपयोग करना यह उनकी रणनीति थी।
इस्लामी आक्रांताओं की तुलना में ईसाई पंथ के लोग भारतीय जनमानस को अपने से लगने लगे। अपनी चतुराई के सहारे उन्होंने भारत पर अपनी शिक्षा नीति थोप दी। कानून के राज के नाम पर इंग्लैंड से बनकर आए हुए कानूनों के सहारे यहां राज करने लगे।
युद्ध की विभीषिका की तुलना में कानून का खौफ जनता को उचित लगने लगा। कानून इंग्लैंड से बनकर आते थे अतः भारतीय मानस के अनुकूल न होने के कारण इसका विरोध भी होने लगा।
कानून के सहारे राज करने के कारण इस्लामिक आतंक से देश को मुक्ति मिली परंतु भारतीय मानस के अनुकूल न होने के कारण ईसाईत के आधार पर बनकर आने वाले कानूनों का विरोध करना स्वतंत्रता संग्राम का एक प्रमुख हिस्सा बन गया। सब पंथों का सम्मान करना, इस भारतीय मानसिकता के विपरीत, केवल हमारा पंथ ही सही है अतः इसे स्वीकार करो, यह दुराग्रह करने वाले ईसाई तथा इस्लाम पंथ ने भारत में एक नई समस्या खड़ी कर दी जो पहले कभी नहीं थी। "जितने मत उतने ही पथ है" इस सनातन धर्मी मान्यता के विपरीत ईसाई और इस्लाम पंथ का यह पांथिक अहंकार भारत की आज की सबसे बड़ी समस्या है।
अपने अहंकार को त्याग कर बाइबल और कुरान के साथ अन्य मतावलंबियों के ग्रंथों को सम्मान दें, एक दूसरे की मान्यताओं को सम्मान दें, रीति-रिवाजों को सम्मान दें, पर्व और उत्सवों को सम्मान दें तथा सह अस्तित्व के अनुकूल खान-पान को भी स्वीकार करें तो निश्चित ही भारत पूरे विश्व के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था का पथ प्रदर्शक ही नहीं विश्व गुरु का स्थान भी प्राप्त कर लेगा।
इस संदर्भ में हम भारत का संविधान पढ़ेंगे तो ध्यान में आता है कि संविधान के प्राक्कथन में 42वें संशोधन के द्वारा जोड़ा गया शब्द Secular का हिंदी अनुवाद पंथनिरपेक्ष ही किया गया है धर्मनिरपेक्ष नहीं और सेक्युलर शब्द प्रारंभ से ही संविधान के अनुच्छेद 25 में भी विद्यमान है।
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार इस शीर्षक के अंतर्गत अनुच्छेद 25 (क) में लिखे गए शब्द Secular activity का हिन्दी अनुवाद लौकिक क्रियाकलाप किया गया है। तथा इसी अनुच्छेद में (ख) के स्पष्टीकरण 2 में हिन्दू शब्द की व्यापकता को स्पष्ट करते हुए लिखा है हिंदुओं के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उसके अंतर्गत सिक्ख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देश है और हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ तदनुसार लगाया जाएगा।
अतः यह स्पष्ट है कि सिक्ख, जैन और बौद्ध धर्म का पालन करने वाले समुदाय या समाज भारत की मुख्य धारा के ही अंग है। इनको मुख्य धारा से हटाकर अल्पसंख्यक का दर्जा देना संविधान की भावनाओं के विपरीत बात है। प्रकृति प्रदत्त कर्म ही धर्म है और इस धर्म के पालन हेतु किसी व्यक्ति या समूह द्वारा निर्मित नियमावली ही पंथ है। पंथनिरपेक्षता ही भारत का धर्म है। पंथ और धर्म के इस भेद पर गहन चिंतन और विमर्श की आवश्यकता है।
संविधान की जन्म कथा
भारत में राज करने के लिए ब्रिटेन द्वारा भेजे गए सन 1773 से 1919 तक के कानूनी पुलिंदों के सहारे भारत के संविधान की रचना सन 1935 में हुई थी। इसकी भाषा और विषयों का जटिल और पेचीदा होना स्वाभाविक ही था। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का निर्णय लिया तो उनके उसी संविधान के सहारे स्वाधीन भारत का संविधान बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ की गई।
दिनांक 6 दिसंबर 1946 को गठित तथा 9 दिसंबर से डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में संचालित संविधान सभा का प्रतीक चिन्ह अखंड भारत की पृष्ठभूमि में हाथी के मुंह वाला चित्र था। देश विभाजित होकर खंडित स्वाधीनता प्राप्त होने के बाद इसी संविधान सभा के तत्वावधान में 29 अगस्त 1947 को संविधान की प्रारूप समिति का गठन हुआ, जिसकी अध्यक्षता डॉ भीमराव रामजी उपाख्य बाबासाहेब आंबेडकर को सौंपी गई।
संविधान का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करने का कार्य डॉ. घनश्याम सिंह गुप्ता की अध्यक्षता में किया गया। अंततः इसे सुंदर तथा सुवाच्य अक्षरों में हाथ से लिखने के लिए हिंदी का लेखन श्री वसंत कृष्ण वैद्य ने तथा अंग्रेजी लेखन श्री प्रेम बिहारी नारायण रायजादा "सक्सेना" ने सम्पन्न किया। संविधान सभा में संविधान के इस ढांचे को सहज, सरल और सुंदर बनाकर इसे प्राणवंत बनाया जाए यह विचार प्रखरता के साथ उभरा।
उसी चिंतन के क्रियान्वयन हेतु यह निर्णय लिया गया कि इसे हाथ से लिख कर सुंदर चित्रों से सजाया जाए। इस कार्य के लिए प्रख्यात चित्रकार नंदलाल बोस को चयनित कर उन्हें यह दायित्व सौंपा गया। उसी व्यवस्था का यह परिणाम है कि भारत के संविधान में भारत की आत्मा का दर्शन हम कर पाते हैं। इन सब महानुभावों के प्रति सम्मान तथा कृतज्ञता प्रकट करते हुए मैं अपनी लेखनी को आगे बढ़ाता हूं।
नंदलाल बोस ने हस्तलिखित मूल संविधान में भारत के विस्तार को राजनीतिक नहीं सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाए यह सोच कर भाग-1 पर पाकिस्तान स्थित मोहनजोदारो की सभ्यता का प्रतीक चिन्ह अंकित किया। भाग-2 पर नागरिकता की गरिमा को बढ़ाने हेतु हर नागरिक का शिक्षित एवं संस्कारित होना अनिवार्य है यह दर्शाने के लिए गुरुकुल का चित्र, मौलिक अधिकारों की रक्षा का आदर्श राज्य रामराज्य होने के कारण भाग 3 पर पुष्पक विमान में बैठकर राम, लक्ष्मण और सीता अपने राज्य की स्थापना के लिए अयोध्या की ओर जा रहे हैं ऐसा चित्र अंकित किया।
साथ ही देश के नीति निर्धारक तत्व कितने प्रभावी स्पष्ट एवं जनोपयोगी हो यह समझाने के लिए भाग 4 पर भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता के उपदेश का चित्र तथा देश के लोकतंत्र का आधार अहिंसा एवम् प्रेम के सहारे चलने वाला शासन तथा प्रशासन हो यह दर्शाने के लिए भाग 5 व 6 पर भगवान बुद्ध तथा भगवान महावीर के चित्र और भाग 7 पर भारत की प्रांत रचना ऐसी हो कि हमें मौर्यकालीन सम्पन्नता और निर्भयता का जीवन जीने वाली समाज-व्यवस्था की अनुभूति होती रहे, ऐसा चित्र अंकित किया है।
इसके बाद भाग 8 पर देश के आर्थिक विकास के लिए आर्थिक क्रांति का संदेश देते हुए कुबेर की छलांग का चित्र और देश की न्याय व्यवस्था विक्रमादित्य के समान न्याय प्रवण हो यह दर्शाने के लिए भाग 9 पर विक्रमादित्य का दरबार अंकित किया गया है। भारत में दूर-दूर तक फैली हुई जनजातियां शिक्षा से वंचित न रहे यह संदेश भाग 10 में नालंदा विश्वविद्यालय के समान उच्च कोटि की शिक्षा व्यवस्था का विस्तार करने की प्रेरणा देने वाले चित्र से समझाया है।
नंदलाल बोस के चित्रों के द्वारा संविधान में समाहित हर भाग के विषय का या तो उद्गम अथवा उसके क्रियान्वयन से होने वाला परिणाम दर्शाया गया है। राज्य और केंद्र के मधुर संपर्कों के लिए अश्वमेध यज्ञ की परंपरा की याद दिलाने वाला चित्र भाग 11 पर है। संविधान निर्माण के समय ही सरदार पटेल द्वारा छोटे-छोटे राज्यों के विलीनीकरण की प्रक्रिया इसी अश्वमेध यज्ञ का आधुनिक क्रियान्वयन था।
भाग 12 में वित्त और संपत्ति के संतुलित विकास के लिए शुभ का प्रतीक स्वस्तिक और आनंद का प्रतीक नटराज इन चित्रों को अंकित किया गया है । यद्यपि असावधानी के कारण स्वस्तिक उल्टा और नटराज खंडित हो जाना यह एक दुर्घटना ही कही जाएगी जिसे सुधारा जाना आवश्यक है । भाग 13 पर देश के सामूहिक विकास के लिए पांच पीढ़ियों के भगीरथ प्रयास की आवश्यकता को परिभाषित करने वाला चित्र दिया है। भाग 14 पर राज्य एवं केंद्र के मधुर संपर्कों में अकबर के प्रयासों का स्मरण करते हुए अकबर के दरबार का चित्र दिया है।
भाग 15 में निर्वाचन के माध्यम से हमारे निर्वाचित नेता कैसे हो यह समझाने के लिए छत्रपति शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह इनके पराक्रम और त्याग का स्मरण कराया गया है और भाग 16 में अंग्रेजों द्वारा थोपे जा रहे कानूनों का विरोध करते हुए जो बलिदानी हुए उनमें रानी लक्ष्मीबाई और टीपू सुल्तान का चित्र देकर नंदलाल बोस ने ऐतिहासिक घटनाओं को सबके सामने लाया है।
भाग 17 में अपनी राजभाषा हिंदी हो इसका आग्रह करने वाले महात्मा गांधी और भाग 18 में आपातकालीन प्रबंधन के समय सर्वाधिक पीड़ित स्थान पर शांति स्थापना के लिए जाने वाले महात्मा गांधी इन दोनों प्रसंगों को चित्रांकित किया है। भाग 19 में प्रशासनिक व्यवस्था में किन-किन की नियुक्तियां होनी चाहिए यह दर्शाने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्थापित स्वाधीनता पूर्व की प्रतीकात्मक स्वाधीनता और तदनुरूप नियुक्तियों की व्यवस्था को स्पष्ट करने वाले प्रसंग का चित्रांकन किया गया है।
भाग 20, 21 एवं 22 में नभ, थल और जल इन तीनों को अंकित करते हुए इन आयामों के प्रति सम्मान का भाव तथा उनकी सुरक्षा के दायित्व का भाव प्रकट किया गया है। इस प्रकार से हमारे भारत का संविधान धर्म-संस्कृति एवं परंपरा का दर्शन कराने वाला एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गया है, यह निश्चित रूप से कह सकते हैं।
अब तक हुए 120 से अधिक संशोधनों के कारण संविधान में भाषा की जटिलता के साथ विषयों की भी जटिलता बढ़ गई है अतः इसका सरलीकरण करने के लिए संविधान का पुनर्लेखन हो तथा वह चित्रों के साथ छपे यह भी आवश्यक है। भारत सरकार तथा संविधान के मर्मज्ञ इस विषय पर चिंतन करें, यह मनोकामना प्रकट कर मैं अपनी लेखनी को विराम देता हूं। धन्यवाद।