आत्मनिर्भर भारत का वर्तमान चिकित्सा द्वंद्व
महामारी के भयावह वातावरण में आजकल भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद तथा पाश्चात्य पद्धति ऐलोपैथी के मध्य वाकयुद्ध प्रारम्भ हुआ है। पूर्ववत चर्चाओं सम यहां, पर भी जनमानस वैचारिक रूप से दो भागों में विभक्त हो चुकी है।
महामारी के भयावह वातावरण में आजकल भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद तथा पाश्चात्य पद्धति ऐलोपैथी के मध्य वाकयुद्ध प्रारम्भ हुआ है। पूर्ववत चर्चाओं सम यहां, पर भी जनमानस वैचारिक रूप से दो भागों में विभक्त हो चुकी है। इस विवाद के हुताशन में घृत डालने का कार्य योगगुरू रामदेव के बयान ने की, जिसमें उन्होंने आयुर्वेद को ही चिकित्सा की सम्पूर्ण पद्धति कह ऐलोपैथी को नकारा सिद्ध कर दिया। स्वास्थ्य मन्त्री डॉ. हर्षवर्द्धन तथा भारतीय चिकित्सा संघ (आईएमए) ने इस विवादित बयान को वापस लेने का स्वामी रामदेव से आग्रह किया। स्वामी रामदेव ने पच्चीस प्रश्न की प्रश्नावली के माध्यम से अपनी पूर्ववत वार्ता को और पुष्ट कर दिया।अब आईएमए उन पर मानिहानि का दावा करने का विचार कर रही है। प्रश्न यह है कि इस विवाद में गलती किस पक्ष की है?
आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति है। 'आयुर्वेदयति बोधयति इति आयुर्वेद:'अर्थात जो विज्ञान जीवन का ज्ञान कराता है, वह आयुर्वेद कहलाता है।सर्वविदित है कि ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ है, जो ईसा से लगभग 5,000 वर्ष पुराना माना गया है, इसमें भी आयुर्वेद के महत्व को परिभाषित किया गया है। प्राचीन चिकित्साशास्त्री तो इसको अथर्ववेद का उपवेद ही मानते हैं।अथर्ववेद कहता है कि मानव कल्याण हेतु देवों की चिकित्सा पद्धति को आदि आचार्य अश्विनी कुमार से देवेंद्र इंद्र ने धन्वन्तरि को दिलवाया। काशीनरेश दिवोदास जो धन्वंतरि के ही अवतार कहे गए हैं,ने अत्रि व भारद्वाज को प्रदान किया। जिन्होंने अपने छह शिष्यों- अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, क्षीरपाणी तथा हारति के द्वारा सम्पूर्ण भारत मे आयुर्वेद का प्रसार कराया। इसके बाद चरक, सुश्रुत तथा अर्की आदि ऋषियों ने अपने शोध व संहिताओं के द्वारा और भी परिभाषित किया। आष्टांग में विभक्त आयुर्वेद अपने आप मे एक सम्पूर्ण चिकित्सा पद्धति है, जिसका उद्देश्य स्वस्थ प्राणी के स्वास्थ्य की रक्षा तथा रोगी को निरोग करना है -
प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं आतुरस्यविकारप्रशमनं च ॥ (चरकसंहिता, सूत्रस्थान 30/26)
आयुर्वेद में रोग का मुख्य कारण त्रिदोष अर्थात वात, कफ और पित्त की विषमता का होना है।इन दोषों का निवारण आहार, विहार, योग, मंत्र व औषधि के द्वारा रोगी को दोषमुक्त कर निरोगी काया प्रदान करना ही आयुर्वेद का मूल सिद्धांत है। इसके विपरीत एलोपैथी एक विपरीत पद्धति है। यह लाक्षणिक चिकित्सा पर आधारित है।इसमें शरीर मे उपलब्ध लक्षण का शमन करने के लिए अप्राकृतिक रासायनिक पदार्थ का प्रयोग होता है, जो शरीर के अन्य अंगों को प्रभावित करता है। स्वामी रामदेव ने आइएमए से यही कहा कि एलोपैथी से रोग जड़ से समाप्त नही होता है।
मधुमेह, रक्तचाप, थायराइड ग्रंथि आदि अनेकानेक बीमारियों की औषधि जीवनपर्यन्त ग्रहण करनी होती है, जिसकी मात्रा में कमी होने के स्थान पर उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली जाती है। इससे शरीर के अन्य अंग भी प्रभावित होते है। एलोपैथी औषधि अत्यधिक मंहगी भी होती है। इस विवाद से यह सिद्ध हुआ कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी पूर्ववर्ती सरकारों के दोहरे मापदण्डों से आयुर्वेद के क्षेत्र में जागरूकता व अनुसंधान की महती कमी है। देश में एम्स जैसे संस्थान तो खोले जा रहे है, परन्तु प्राचीन भारतीय चिकित्सा के न तो स्तरीय चिकित्सा संस्थान और न ही अनुसंधान केन्द्र खोले जा रहे हैं।सच्चे अर्थों में आत्मनिर्भर भारत तभी होगा जब उसका चिकित्सा तंत्र भी किसी पर निर्भर नही होगा।
(लेखक अशुतोष दीक्षित, स्वतंत्र पत्रकार हैं एवं उन्नाव जनपद में रहते हैं।)