पिछले सप्ताह संपन्न विश्व हिंदी सम्मेलन के मुख्य विषय (थीम) के बारे में जानकर कुछ को कौतूहल हुआ था और कुछ को आश्चर्य। थीम थी- 'हिंदीः पारंपरिक ज्ञान से कृत्रिम मेधा तक।' बहुतों को इसलिए हैरत हुई कि हिंदी भाषा और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (कृत्रिम मेधा, कृत्रिम बुद्धि या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) के बीच क्या संबंध हो सकता है, यह उनके लिए एक पहेली के समान है। चैट जीपीटी (ChatGPT) नामक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अनुप्रयोग ने पूरी दुनिया का ध्यान कृत्रिम बुद्धिमत्ता की आश्चर्यजनक शक्तियों की ओर खींचा है। विश्व हिंदी सम्मेलन की थीम सामयिक तथा दूरदर्शितापूर्ण है। चूँकि इसका प्रयोग हिंदी के सबसे बड़े वैश्विक आयोजन में हो रहा है इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि फिजी का विमर्श एक शृंखला में तब्दील होगा तथा हिंदी बोलने वाले समाज के भीतर व्यापक स्तर पर वैज्ञानिक मानस के प्रसार में योगदान देगा।
आज कृत्रिम बुद्धिमत्ता जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर रही है और ऐसा माना जा रहा है कि अगले एकाध दशक में कृत्रिम बुद्धिमत्ता की बदौलत हमारी दुनिया का कायाकल्प होने वाला है। हिंदी सहित हमारी भाषाएँ भी इस बदलाव से अछूती नहीं रहने वाली हैं और न ही उन्हें इससे अप्रभावित रहना चाहिए। जो भाषाएँ बदलते युग के साथ तालमेल बिठाकर नहीं चल पातीं उनके स्थायी अस्तित्व की गारंटी नहीं ली जा सकती। वैसे ही, जैसे अपने दौर के विकास, बदलाव, नवाचार आदि से अछूते रह जाने वाले समाज न सिर्फ प्रगति की दौड़ में पिछड़ जाते हैं बल्कि धीरे-धीरे अपनी प्रासंगिकता खो बैठते हैं। अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, उत्तर कोरिया और पाकिस्तान जैसे देशों के उदाहरण आपके सामने हैं। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, बाजार और बदलाव एक वास्तविकता है। उनका प्रतिरोध करने में कोई लाभ नहीं। हाँ, उनके साथ आने में हम सबका लाभ है, हमारी भाषाओं का भी।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता की अथाह शक्ति के अनगिनत उदाहरण हमारे सामने हैं। इस शक्ति के बारे में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की चर्चाएँ हैं। एक तबके को लगता है कि यह मानव सभ्यता के भविष्य के लिए संकट खड़ा कर देगी इसलिए इससे बचना श्रेयस्कर है। दूसरे तबके को लगता है कि यह हमारी तरक्की के ऐसे नए रास्ते खोलने वाली है जिनकी अब तक हमने कल्पना भी नहीं की, इसलिए इसका अधिकतम दोहन किया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि सही रास्ता दोनों के बीच से आता है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता को तय सीमाओं के भीतर, जिम्मेदारी के साथ इस्तेमाल किया जाए तो वह मानव सभ्यता की प्रगति का सबसे शक्तिशाली माध्यम बन सकती है।
यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि हिंदी भाषा के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता की क्या प्रासंगिकता है और वह इस भाषा के भविष्य को किस तरह प्रभावित कर सकती है? इसका उत्तर समझने के लिए हमें हिंदी की वर्तमान चुनौतियों, अवसरों तथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता में निहित शक्तियों पर विचार करने की आवश्यकता है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का अर्थ तकनीक की उस शक्ति से है जिसका प्रयोग करते हुए वह इंसानों की ही तरह (किंतु उनकी तुलना में बहुत बड़े पैमाने पर) सीख सकती है, विशाल स्तर पर आंकड़ों का विश्लेषण कर सकती है, चीजों पर निगरानी (ऑब्जर्वेशन) कर सकती है, भिन्न-भिन्न परिस्थितियों का मंथन कर सकती है, अपनी क्षमताओं में वृद्धि कर सकती है, निर्णय ले सकती है और परिणाम दे सकती है। यह सामान्य प्रौद्योगिकी से अलग है जो पहले से निर्धारित काम करती है, अपनी सीमाओं में रहती है और पहले से दिए गए निर्देशों (प्रोग्रामिंग) के आधार पर परिणाम देती है। वह स्वयं को बदलती नहीं है और स्वयं को निरंतर बेहतर बनाने में सक्षम नहीं है।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता हिंदी के स्थायी भविष्य को सुनिश्चित कर सकती है। यूनेस्को ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि दुनिया की 7200 भाषाओं में से लगभग आधी इस शताब्दी के अंत तक विलुप्त हो जाएंगी। अगर हम हिंदी को विलुप्त होने वाली इन भाषाओं की सूची में नहीं देखना चाहते तो हमें कृत्रिम मेधा को खुले दिल से अपनाना चाहिए। वजह यह कि यह प्रौद्योगिकी भाषाओं के बीच दूरियाँ समाप्त करने में सक्षम है। आज हम अंग्रेजी की प्रधानता से त्रस्त हैं और कृत्रिम मेधा तथा दूसरी आधुनिक प्रौद्योगिकियाँ अंग्रेजी के दबदबे से मुक्त होने में हमारी मदद कर सकती हैं। जो लोग यह सोचते हैं कि हिंदी जैसी गैर-पश्चिमी भाषाएँ अगले कुछ दशकों में प्राकृत और पालि की स्थिति में आ सकती हैं, उन्होंने संभवतः इस पहलू पर विचार नहीं किया कि जहाँ इन भाषाओं के सामने कई दिशाओं से ढेरों चुनौतियाँ आ रही हैं, वहीं प्रौद्योगिकी भाषाओं के बीच दूरियों को पाटने में लगी है।
जिस अविश्वसनीय और चमत्कारिक अंदाज में कृत्रिम बुद्धिमत्ता चीजों को बदल रही है, उसे देखते हुए अगले एक-दो दशकों में हम भाषा-निरपेक्ष विश्व की ओर बढ़ सकते हैं। ऐसा विश्व जिसमें हिंदी जैसी भाषाएँ बोलने-लिखने वाला व्यक्ति अवसरों से वंचित न हो क्योंकि प्रौद्योगिकी एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद को इतना सटीक, सहज, सरल तथा सार्वत्रिक बना सकती है कि आप अंग्रेजी की सामग्री को हिंदी में पढ़ सकेंगे और हिंदी की सामग्री को अंग्रेजी में।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता का दूसरा बड़ा प्रभाव होगा अन्य प्रमुख भाषाओं के साथ हिंदी के गहरे संबंधों का विकसित होना। प्रेमचंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, सुब्रमण्य भारती, रामधारी सिंह दिनकर, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी के साहित्य से लेकर रामायण, महाभारत, श्रीमद्भग्वद्गीता, वेद, पुराण. उपनिषद् जैसे ग्रंथ, आयुर्वेद-योग जैसी ज्ञान संपदा, हमारी पत्रकारिता और विश्वविद्यालयों के शोध आदि दुनिया भर में गैर-हिंदी पाठकों तक पहुँच सकते हैं। यह हमारी साहित्यिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक तथा शैक्षणिक संपदा को वैश्विक पहचान दिलाने में योगदान देगा। इतना ही, बल्कि इससे कहीं अधिक आवश्यक है विश्व के ज्ञान, शोध, साहित्य का हिंदी भाषी लोगों तक पहुँचना। हिंदी में विज्ञान, तकनीक, चिकित्सा, अर्थव्यवस्था आदि विषयों पर विश्व-स्तरीय सामग्री की कमी है।
हिंदी में शिक्षण सामग्री तैयार करना आसान तथा तेज हो जाएगा। आज केंद्र सरकार तथा कुछ राज्य सरकारों के निर्देश पर हिंदी में पाठ्य-सामग्री तैयार करने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रयोग होने लगा है। यह प्रक्रिया निरंतर सटीक और तीव्र होती चली जाएगी। अंग्रेजी-फ्रेंच या जर्मन की किताबों को स्कैन करके चंद मिनटों में सीधे हिंदी में अनुवाद करना संभव हो गया है। कल्पना कीजिए कि हम हिंदी में जिन विषयों में अच्छी सामग्री की कमी से परेशान रहे हैं, उन विषयों में अचानक ही दर्जनों या सैंकड़ों पुस्तकें उपलब्ध हो जाएँ। हिंदी में पारंपरिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण आसान हो जाएगा। वाचिक ज्ञान को डिजिटल स्वरूपों में सहेजा जा सकेगा। हिंदी भाषी लोग वैश्विक संस्थानों में पढ़ सकेंगे, भाषाओं की सीमाओं से मुक्त रहते हुए कौशल प्राप्त कर सकेंगे और विश्व को अपनी सेवाएँ दे सकेंगे। ऐसी अकल्पनीय घटनाएँ आने वाले वर्षों में सामान्य परिपाटी बन सकती हैं, यदि हमारी भाषा अपने दौर के इन आधुनिक अनुप्रयोगों को आशंका, उपेक्षा या घृणा की दृष्टि से न देखे बल्कि उनके प्रति खुला दृष्टिकोण रखे।
हिंदी में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य घटित हो रहा है। ध्वनि प्रसंस्करण की बदौलत वाक् से पाठ और पाठ से वाक् (स्पीच टु टेक्स्ट) प्रौद्योगिकी उपलब्ध हो गई है। कंप्यूटर विजन के कारण हिंदी के दस्तावेजों को स्कैन करके उनके पाठ को कंप्यूटर में टाइप किए गए पाठ के रूप में सहेजना संभव हो गया है।डेढ़ सौ से अधिक वैश्विक भाषाओं और बीस से अधिक भारतीय भाषाओं के साथ हिंदी के पाठ का दोतरफा अनुवाद संभव है। अलेक्सा, कोर्टाना, सिरी और गूगल असिस्टेंट जैसे डिजिटल सहायकों के साथ या तो हिंदी में संवाद करना संभव है या इंटरनेट सर्च तथा अनुवाद आदि के लिए उनकी मदद ली जा सकती है। माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी कंपनियों की एपीआई का प्रयोग करके हिंदी में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से युक्त एप्लीकेशन बनाना संभव हो गया है। बात चैटजीपीटी तक जा पहुँची है जो ऐसी कृत्रिम मेधा है जिसके साथ संवाद किया जा सकता है और अपने प्रश्नों के उत्तर प्राप्त किए जा सकते हैं।
हिंदी समाज में इस तरह की तकनीकी उपलब्धियों को गिनाने और उन पर प्रसन्न होने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। इससे लोगों में कौतूहल तो अवश्य पैदा हो सकता है और नए घटनाक्रमों के बारे में उनकी जानकारी भी बढ़ती है, लेकिन हिंदी, अन्य भारतीय भाषाओं या भारतीय समाज की प्रगति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह प्रभाव तब पड़ेगा जब हम इन उपलब्धियों की जानकारी देने से आगे बढ़ेंगे और इनमें कौशल प्राप्त करेंगे। हम कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर आधारित सुविधाओं के कुशल प्रयोक्ता तो बनेंगे ही, उनके विशेषज्ञ, शोधकर्ता और विकासकर्ता (डेवलपर) बनने की तरफ आगे बढ़ेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारत दुनिया में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का केंद्र (ग्लोबल हब ऑफ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) बनने की क्षमता रखता है। हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ बोलने वाले हम लोग यह सपना सच करने में मदद कर सकते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी भारत के लिए एक नया अवसर लेकर आई है। उस देश के लिए, जिसकी 65 प्रतिशत आबादी युवाओं की है। ऐसे युवा, जिनके लिए प्रौद्योगिकी कोई पहेली नहीं है बल्कि उनकी जीवनशैली का हिस्सा है और जो सीखने-सिखाने तथा परिणाम देने की उम्र में हैं। शर्त यह है कि हम उन्हें ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करें जिसमें वे अपनी ही भाषा में कृत्रिम मेधा, डेटा विश्लेषिकी, क्लाउड कंप्यूटिंग तथा इसी तरह के विज्ञान-तकनीक आधारित विषयों में कौशल तथा विशेषज्ञता हासिल कर सकें।
अगर हम ठोस तकनीकी प्रवीणता की ओर बढ़ते हैं तो कृत्रिम बुद्धिमत्ता हमें अब तक की सीमाओं, वैश्विक व भाषायी असमानताओं आदि से मुक्त होकर विकास की नई दौड़ में बढ़त लेने का मौका दे सकती है। वैसे ही, जैसे विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) ने चीन की सूरत बदल दी, कृत्रिम बुद्धिमत्ता हमारी शक्ल बदलने में सक्षम है। वह यकीनन दुनिया के भविष्य को प्रभावित करेगी।