राष्ट्र की उत्पत्ति के संदर्भ में हमारे यहां कहा गया है कि प्राचीन काल में लोकमंगल की कामना से ऋषियों ने तपश्चर्या की (अर्थात प्रयत्न और पुरूषार्थ किये) और उसमें से राष्ट्र की उत्पत्ति हुई। भद्रं इच्छन्ति ऋषव:। लोकमंगल की अपनी इस इच्छा को व्यत करते हुए ऋषियों ने कहा 'सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया: अर्थात सब सुखी हों और सभी निरोगी हों। इस 'सर्व' की व्याप्ति केवल मनुष्य तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें वह सब कुछ आता है, जिसके साथ हमारा दैहिक, दैविक, भौतिक भावविश्व जुड़ा हुआ है। मनुष्य का अस्तित्व उसके परिवेश, पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ा हुआ है। आजकल पर्यावरण को लेकर खूब चर्चा चलती रहती है, पर्यावरण संरक्षण पर कार्यक्रम भी हो रहे हैं, कुछ प्रामाणिक प्रयास भी हो रहे हैं, सभा-संगत-सेमिनार भी हो रहे हैं। यह सभी स्वागत-योग्य है। ध्यान में रखने वाली बात यह है कि ऐसे सभी प्रयास समग्र दृष्टि के साथ किये जाएं।
भारत के संदर्भ में तो हमारे आकार, जनसंया और जरूरतों को ध्यान में रख कर ही पर्यावरण के संदर्भ में एक समग्र दृष्टि विकसित करना होगी। पर्यावरण का सीधा संबंध हमारे अस्तित्व से जुड़ा हुआ है। हमारे विद्वानों ने, ऋषियों, अध्येताओं ने इस सत्य को पहचाना था और इसीलिए हम देखते हैं कि हमारे प्राचीन साहित्य में प्रकृति और पर्यावरण तथा मनुष्य के साथ उसके रिश्तों को लेकर कितनी गहरी और महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं। हमारे चारों वेद प्रकृति की प्रार्थनाओं से भरे पड़े हैं। वे कोरी प्रार्थनायें नहीं हैं, वे हमारी जीवनदृष्टि की परिचायक हैं।
अग्निर्भूयामोषधीष्वग्निमापो विभ्रत्याग्निरष्मसु अग्निरत: पुरूषेषु गोष्ववेष्ग्नय:
अर्थात- भूतल में सब ओर अनल है, औषधियों में व्यापक अग्नि जल धारण करता है बडवानल, पत्थर में भी पावक अग्नि पुरूष-देह के अभ्यन्तर भी जठरानल का नित्य निवास गायों घोडों के भीतर भी अग्निदेव करते हैं वास केवल यही नहीं, अपने अस्तित्व और जीवन के लिए मनुष्य ने जब प्रकृति से लेना प्रारंभ किया तो किस भाव से लिया और या संकल्प लिये, यह जानना भी बेहद जरूरी है। यत् ते भूमिविष्वनामि, क्षिप्रं तदपि रोहतु म ते मर्म विमृग्वरि, मा ते हृदयमर्पिपम मां, मैं तेरे कंदमूल, फल औषध आदि रहा जो खोद पुन: शीघ्र उग आयें वह भी पाकर तेरा स्नेह प्रमोद। पावन-कारिणी जननी न करूॅं मर्म पर मैं आघात या जिससे तव हृदय व्यथित हो, करूॅं न ऐसी कोई बात। प्रकृति और पर्यावरण की यह भारतीय दृष्टि ही सबको सुखी रखने का मार्ग है। सृष्टि के विकासक्रम की वैज्ञानिक व्याया इस तथ्य को स्थापित करती हैं। सृष्टि में केवल जन ही नहीं हैं, उसमें जल, जंगल, जमीन और जानवर भी हैं। भारतीय चिंतकों ने इस सबकी अस्तित्व-रक्षा की भी चिंता की है, यह उपरोत वैदिक प्रार्थनाओं से ध्यान में आता है। इसीलिए भारतीय जीवनशैली अपने मूल स्वरूप में प्रकृति व पर्यावरण से हमेशा सुसंगत रही है।
आधुनिकता की दौड़ में बने अंधे
दरअसल तत्कालीन धर्मप्राण और धर्म के आधार पर जीवन जीने वाले समाज में धर्मभावना से इन प्रतीकों को जोड़ कर प्रकृति व पर्यावरण के साथ सुसंगत जीवन जीने का संदेश दिया गया था। लेकिन आधुनिकता की दौड़ और होड़ में हम एक ऐसी कचरा फेंक उपभोता संस्कृति के ग्रास बनते जा रहे हैं, जिसमें खरीदो, खाओ और फेंक दो वाली जीवनशैली न सिर्फ हमारे स्वास्थ्य, बल्कि पर्यावरण के स्वास्थ्य को भी दुष्प्रभावित कर रही है। यह इसलिए हुआ है कि पर्यावरण व प्रकृति के संदर्भ में हमने एक खंडित दृष्टि को अंगीकार कर लिया है।
सामाजिक विमर्श का विषय बनाएं
पर्यावरण के दो पहलू हैं। एक है बाहरी और दूसरा है आंतरिक। जन, जल, जंगल, जमीन और जानवर आदि बाहरी पर्यावरण हैं और आंतरिक पर्यावरण हमारी आत्मा या मन से संबंधित है। चूंकि दोनों ही प्रकृति या परमात्मा के बनाये हुए हैं इसलिए दोनों में एक तरह की एकलयता है। बाहरी पर्यावरण में प्रदूषण तुरंत ध्यान में आता है, योंकि हमारे जीवन के सुख-सुविधायें और उपभोग के स्तर उससे तुरंत प्रभावित होते हैं। परंतु बाहरी प्रदूषण से पहले आंतरिक प्रदूषण पैदा होता है और वही बाहरी प्रदूषण का कारण बनता है। जब मनुष्य के मन में विकार और लालसायें उत्पन्न होती हैं, तब यह मानसिक विकार आंतरिक प्रदूषण को जन्म देता है। यह आंतरिक प्रदूषण ही हमें सदाचरण और संयम से दूर करके कदाचरण अैर असीमित उपभोग और उसके लिए प्रकृति के अमर्यादित शोषण की ओर धकेलता है। दुर्भाग्य से पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों में यही हुआ है। औद्योगिक क्रांति ने उपभोग की परिभाषा और स्तर को बदल दिया। उपनिवेषों में संसाधनों की बेशर्म लूट और स्थानीय निवासियों के निर्मम नरसंहार के बाद पश्चिमी देशों में जिस औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ, उसने आगे चल कर प्रकृति और पर्यावरण के विषयों को सामाजिक विमर्श से बाहर कर दिया। असीमित लालसाओं की पूर्ति के लिए सीमित नैसर्गिक संसाधनों की निर्लज्ज लूटखसोट ने उस सब संकटों को सामने खड़ा कर दिया। फिर पिछले तीस चालीस सालों से दुनिया में पर्यावरण को लेकर चर्चा शुरू हुई। 1972 में स्टॉकहोम में पहला मानवीय पर्यावरण सम्मलेन हुआ। जिसमें एक देश के नेता ने कहा कि 'गरीबी सबसे बड़ी प्रदूषक है' तो एक अन्य ने कहा कि 'धुआं प्रगति का चिन्ह है'। अर्थात प्रदूषक गरीबी की गर्दन काटने के लिए धुएं की तलवार जरूरी है। अब यह अध्ययन का विषय है कि गर्दन किसकी कटी और किसकी बची? 1992 में यूनाईटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेन्शन ऑन लायमेट चेंज बना। 1997 में जापान के योटो शहर में जहरीली गैसों के उत्सर्जन पर एक बैठक हुई। जलवायु परिवर्तन पर हुई अब तक की सभी बैठकों में इस बैठक का सर्वाधिक महत्व है। इसमें 150 देशों ने भाग लिया और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने के लिए संयुत प्रस्ताव पारित किया, जिसे योटो प्रोटोकॉल के नाम से जाना जाता है। इसके बाद भी दुनिया की पंचायत में अनेक बैठकें हुई हैं। पृथ्वी समेलनों की श्रृंखला चली है। चर्चाओं के दौर चले हैं, लेकिन काम कम और राजनीति ही ज्यादा हुई है।
भारत की महत्वपूर्ण भूमिका
यहीं आकर भारत की भूमिका फिर महत्वपूर्ण हो जाती है। संयम और सदाचार के बगैर सहअस्तित्व संभव नहीं है। बेलगाम उपभोग अंतत: हमें दु:खों के गर्त में धकेल देगा। इसीलिए हमारे यहां कहा गया कि जो कुछ है उसे ईश्वर का मानो और त्याग पूर्वक भोग करो (तेन त्यतेन भुंजीथा)। प्रकृति से हमने जो लिया है उसे हजार हाथों से लौटाना जरूरी है। इस लेन-देन की प्रक्रिया को ही हमारे यहाँ यज्ञ कहा गया है। यह समग्र और सम्यक विचार दुनिया को भारत की विशिष्ट देन है। लेकिन आज भारतीय समाज ही इस रास्ते से भटक रहा है। हमें फिर से इस रास्ते की ओर लौटना होगा। हमारा हर अतिरेकी और विलासितापूर्ण उपभोग पर्यावरण को गहरे तक दुष्प्रभावित करता है। कपड़ों से लबालब भरे हमारे वार्डरोब, भूमि और जल के कितने बड़े प्रदूषण के कारण बनते होंगे? घरों में बढ़ते वाहन, मोबाइलों और इलेट्रॉनिक गैजेट्स की बढ़ती संया, बिजली की बढ़ती जरूरत और उसके उत्पादन के लिए बिजलीघरों के निर्माण, उत्पादन-केन्द्रित आर्थिक वृद्धि के पैमानों के कारण वाहनों और वस्तुओं के निर्माण में होने वाला खनिजों का अमर्यादित दोहन, यह सब हमारी अपनी जीवनशैली से संबंधित विषय हैं।
प्रकृति के लिए जनभागीदारी आवश्यक
पर्यावरण प्रदूषण के लिए एक-दूसरे पर जिम्मेदारी ठेलने से काम नहीं चलेगा। हम सब इसके लिए जवाबदेह हैं। इसलिये इसे बचाना और सुधारना भी हम सबकी साझी जिम्मेदारी है। हमें सोचना होगा कि व्यति व परिवार के रूप में हमारा आचरण प्रकृति सुसंगत है या नहीं? समाज के स्तर पर सोचना होगा कि हमारे उत्सव प्रकृति से सुसंवाद की मूल भावना से विपरीत जाकर कहीं विसंवादी और विनाशक तो नहीं बन रहे? राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी विकास के पैमानों और परिभाषाओं पर पुनर्विचार की जरूरत है। विकास की मर्यादायें तय करने के बारे में भी विचार होना जरूरी है, योंकि यदि विकास को एक सर्वभक्षी राक्षस बनने दिया जाएगा तो सारी मानव सम्यता को उसका ग्रास बनने से रोका नहीं जा सकेगा। इसलिए बात फिर उसी बिंदु पर आ टिकती है, प्रकृति की ओर देखने की हमारी दृष्टि कैसी हो? यजुर्वेद में कहा गया है-
मित्रस्यमा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।।
अर्थात, सब मेरी ओर मित्रभाव से देखें। मैं भी प्रकृति को मित्र होकर देखूं। हम दोनों आपस में एक-दूसरे को मित्रवत देखें। पर्यावरण व प्रकृति के प्रति यह भारतीय दृष्टि यजुर्वेद में अभिव्यत हुर्ह है। पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन के लिए इस प्रार्थना को हमारे कर्म का समर्थन मिलना जरूरी है। या हम इसके लिए तैयार हैं?
(लेखक : हेमन्त मुतिबोध, सामाजिक चिंतक व विचारक हैं)