वेबडेस्क। अभूतपूर्व विकास कार्य,हर आमोखास के लिए सहज उपलब्धता,सीधे हर मतदाता को खुद फोन उठाना।इतनी सब खूबियों के बाबजूद मप्र के गृह मंत्री चुनाव हार गए।
मप्र में जिस एक नेता की शिकस्त की सबसे ज्यादा चर्चा है वह नरोत्तम मिश्रा हैं।हजारों करोड़ के विकास कार्य कराने के बाबजूद गृह मंत्री की हार दतिया के बाहर सभी को सकते में डाल रही है लेकिन हकीकत यह है कि दतिया में किसी को इस नतीजे पर आश्चर्य नही है।लोग खुलकर कह रहे हैं "एसो तो होनेई तो" बक़ौल बग्गी खाना एक दुकानदार दादा को दादाओं ने ही निबटा दिया।
असल में दतिया का नतीजा यह भी बता रहा है कि जनता के बीच जरूरत से ज्यादा निगरानीपरक राजनीति अंततः आत्मघाती साबित होती है।दतिया की राजनीतिक फिजा में एक बात साफ महसूस की जा सकती है कि लोगों दादा की शिकस्त का कोई मलाल नही है।सच्चाई यह है कि लोग एक तरह से खुद को भयमुक्त सा पा रहे हैं।यह भाव शहर के एक बड़े वर्ग ने इस प्रतिनिधि से स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त किया।अब सवाल यह कि जो नेता हर आम आदमी का फोन खुद उठाता रहा हो ,जो हर छोटे से छोटे तीज ,त्यौहार, शादी,गमी में खुद जाता हो उससे कैसा भय?जबाब भी आज दतिया की तंग गलियों में खोजना आसान है।असल में दादा के इर्दगिर्द एक ऐसा कॉकस पिछले पांच साल में ताकतवर होकर विकसित हुआ जो दादा के दतिया से पीठ फेरते ही आम आदमी के दैनंदिन जीवन में अतिशय हस्तक्षेप पर उतारू हो गया था।लोगों को लगा कि उनकी सामाजिकता में एक निगरानी तंत्र काम कर रहा है।इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है -दादा के विरोधी नेता जो भाजपा में ही थे वे बाजार में कुछ दुकानदारों के पास उठते बैठते थे।अब दुकानदार दादा के विरोधियों के निशाने पर आ गए।यह चलन पूरे दतिया में चल निकला था।एक दुकानदार ने आज बेख़ौफ़ होकर कहा कि 3 दिसम्बर से पहले हम इस बात को आपको बता भी नही सकते थे क्योंकि हमें पुलिस का भय था लेकिन दादा की शहर में हुई हार को वह इसी से जोड़कर बता रहा था।
दतिया में एक बड़ा फैक्टर मूल भाजपा का एक तरह से मृत हो जाना भी है।जनसंघ के जमाने के कुछ परिवारों ने हमें बताया कि दादा ने मूल कैडर को भुला दिया और कांग्रेस एवं अन्य दलों को खत्म करने के अभियान में ऐसे लोगो की भाजपा बना दी जो भाजपाई थे ही नही ,वे मंत्री रुतबे से जुड़े फायदों के लिए उनसे जुड़े और जनता का शोषण भी किया।
संघ के समविचारी संगठनों के मध्य भी दादा ओर कॉकस को लेकर कमोबेश वैसी ही नाराजगी देखी जा सकती है।मसलन एक मंदिर के पुजारी ने हमें बताया कि चुनाव से पूर्व ब्राह्मण समाज की एक बैठक उनके यहां होनी थी अचानक एक आला अधिकारी का फोन उनके पास आया और उन्हें बैठक निरस्त करनी पड़ी।ऐसा कई लोगों के साथ हुआ।इससे ब्राह्मण समाज में नाराजगी पनप गई।नतीजतन दतिया शहर ने साथ छोड़ दिया।
एक और फैक्टर पंचायत एवं नगर पालिका चुनाव का हैं।पार्षद से लेकर पंचायत चुनावों में दादा और उनके कॉकस ने इस हद तक हस्तक्षेप किया कि जिन्हें टिकट नही मिले या जो हार गए उन्होंने दादा से दुश्मनी भांज कर 17 नवम्बर का इंतजार करना स्वीकार किया।अपने राजनीतिक विरोधियों को जिस तरह से दादा ने कुचलने के प्रयास किये उसकी प्रतिक्रिया एक दशक से एकत्रित हो रही थीं।इसमें खास बात यह कि विरोधी भाजपा और कांग्रेस दोनों को एक दृष्टि से देखा गया।
पुनश्च: नरोत्तम मिश्रा ने एक जनप्रतिनिधि के सारे पैरामीटर पर मप्र में सबसे बेहतर काम किया।विकास,जनसंपर्क, संवाद,त्वरित सेवा,दतिया को हर क्षेत्र में लीक से हटकर पहचान।धार्मिक,सांस्कृतिक, राजनैतिक ,शैक्षणिक सब मोर्चों पर नया मुकाम दिलाया।लेकिन कुछ ऐसी गलतियां लगातार करते रहे जो बहुत छोटी थी,जिन्हें भुलाकर भी राजनीति की जा सकती थी।यदि ऐसा होता तो शायद दादा आज मप्र की राजनीति के शीर्ष विमर्श में केंद्रीय पात्र होते। लेकिन इसे ही प्रारब्ध कहते हैं।
"यह जब्र भी देखा है तारीख की नज़रों ने*
लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई"
०बक़ौल गृह मंत्री "मैं लौटकर आऊंगा "
आमीन।