आपातकाल : एक काला अध्याय

सुखदेव वशिष्ठ

Update: 2021-06-25 09:33 GMT

वेबडेस्क। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 25 जून 1975 को उस समय एक काला अध्याय जुड़ गया, जब देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मात्र अपना राजनीतिक अस्तित्व और सत्ता बचाने के लिए देश में आपातकाल थोप दिया। आपातकाल के फैसले को लेकर इंदिरा गांधी द्वारा कई दलीलें दी गईं, देश को गंभीर खतरा बताया गया, लेकिन पर्दे के पीछे की कहानी कुछ और ही थी।

26 जून 1975 को हुई कैबिनेट बैठक के बाद इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो पर अपने संबोधन में आपातकाल के पीछे आंतरिक अशांति को वजह बताया गया। इंदिरा गांधी ने जनता से कहा कि सरकार ने उसके हित में कुछ प्रगतिशील योजनाओं की शुरुआत की थी, लेकिन इसके खिलाफ गहरी साजिश रची गई। इसीलिए उन्हें आपातकाल जैसा कठोर कदम उठाना पड़ा। उस समय के एक अखबार ने इस घटना पर एक कार्टून प्रकाशित किया था, जिसकी बहुत चर्चा हुई थी। कार्टून में फखरुद्दीन अली अहमद को नहाते हुए अध्यादेश पर दस्तखत करते दिखाया गया था।

आपातकाल का दौर और संघर्ष

सरकारी आदेशों के प्रति वफादारी दिखाने की होड़ में पुलिस वालों ने बेकसूर लोगों पर बेबुनियाद झूठे आरोप लगाकर गिरफ्तार करके जेलों में ठूंसना शुरू कर दिया। लाठीचार्ज, आंसू गैस, पुलिस हिरासत में अमानवीय अत्याचार इत्यादि पुलिसिया कहर ने अपनी सारी हदें पार कर दी। स्वयं इंदिरा गाँधी द्वारा दिए जा रहे सीधे आदेशों से बने हिंसक तानाशाही के माहौल को सत्ता प्रायोजित आतंकवाद कहने में कोई भी अतिश्योक्ति नहीं होगी।

मौलिक अधिकारों को कुचल डाला -

इस तरह के निरंकुश सरकारी अत्याचारों की सारे देश में झड़ी लग गयी। पुलिसिया कहर ने आम नागरिकों के सभी प्रकार के मौलिक अधिकारों को कुचल डाला। सत्ता द्वारा ढहाए जाने वाले इन जुल्मों के खिलाफ देश की राष्ट्रवादी संस्थाओं, नेताओं और देशभक्त लोगों ने सड़कों पर उतरकर लोकतंत्र को बचाने का निश्चय किया। संघ के भूमिगत कार्यकर्ताओं द्वारा ऐसी सामाजिक शक्तियों को एकत्रित करने से प्रतिकार, संघर्ष, बलिदान की भावना से ओतप्रोत बाल, युवा, वृद्ध सत्याग्रहियों के काफिलों ने जोर पकड़ लिया। ये सत्याग्रह रेलवे स्टेशनों, भीड़ वाले चौराहों, सिनेमाघरों, सरकारी, गैर सरकारी सार्वजनिक सम्मेलनों, बस अड्डों, मंदिरों, गुरुद्वारों में जुटी भक्तों की भीड़, अदालतों और इंदिरा गाँधी की सभाओं इत्यादि में किये जाते थे। सत्याग्रही चुपचाप छोटी छोटी गलियों से निकलकर जैसे ही चौक चौराहों पर पहुचते, उनके गगनभेदी नारों से आकाश भी थर्रा उठता था। तभी सत्ता प्रेरित पुलिसिया कहर शुरू हो जाता। जख्मी सत्याग्रहियों सहित सभी लड़कों को पुलिस गाडिय़ों में ठसाठस भरकर निकटवर्ती थाने में ले जाना और पूछताछ के नाम पर अमानवीय हथकंडों का इस्तेमाल आम बात थी। दिल्ली के लालकिले में विदेशों से आये लगभग 200 सांसदों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के एक कार्यक्रम में सरकार द्वारा यह सन्देश दिया जाना था कि भारत में लोग प्रसन्न है, आपातकाल का कहीं विरोध नहीं हो रहा। जैसे ही इंदिरा जी का भाषण प्रारंभ हुआ, लगभग 20 युवा सत्याग्रहियों ने मंच पर चढ़कर वन्देमातरम, भारत माता की जय इत्यादि नारों से मंच को हिला दिया। सारे संसार के सामने इंदिरा जी की पोल खुल गयी। पुलिस ने इन सत्याग्रहियों को गिरफ्तार कर लिया। इनके साथ क्या व्यवहार किया होगा, इसकी भयानकता को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।

प्रेस का भी गला घोंट दिया -

सरकार ने प्रेस की आजादी का गला घोंटकर आपातकाल से सम्बंधित सभी प्रकार की खबरों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। जिन अखबारों तथा पत्रिकाओं ने आपातकाल की घोषणा का समाचार छापा, उन पर तुरन्त ताले जड़ दिए गये। राष्ट्रभक्त अथवा प्रखर देशभक्त पत्रकारों को घरों से उठाकर जेलों में बंद कर दिया गया। जनता की आवाज पूर्णत: खामोश कर दी गयी। सत्याग्रह की सूचना और समाचारों को जनता तक पहुँचाने के लिए संघ के कार्यकर्ताओं ने लोकवाणी, जनवाणी, जनसंघर्ष इत्यादि नामों से भूमिगत पत्र पत्रिकाएं प्रारंभ कर दी। इन पत्र पत्रिकाओं को देर रात के अँधेरे में छापा जाता था। देश भर में छपने और बंटने वाले इन पत्रों ने तानाशाही की जड़ें हिलाकर रख दी।

भूमिगत बैठकों में बनती थी योजना -

जनांदोलन को संचालित करने से सम्बंधित प्रत्येक प्रकार की व्यवस्था के लिए बैठकों का आयोजन होता था। ये बैठकें मंदिरों की छतों, पार्कों, जेल में जा चुके कार्यकर्ताओं के घरों, शमशान घाटों इत्यादि स्थानों पर होती थीं। भूमिगत कार्यकर्ताओं ने अपने नाम, वेशभूषा, यहाँ तक कि अपनी भाषा भी बदल ली थी। पुलिस द्वारा पकड़े जाने अथवा सत्याग्रह करके जेलों में जाने वाले अनेक स्वयंसेवकों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। परिवार में एक ही कमाने वाला होने के कारण दाल रोटी, ब'चों की फीस, मकान का किराया इत्यादि संकट आते थे। संघ की ओर से एक सहायता कोष की स्थापना की गयी। संघ के धनाढ्य स्वयंसेवकों ने इस अति महत्वपूर्ण कार्य को संपन्न करने का बीड़ा उठाया। ऐसे परिवार जिनका कमाने वाला सदस्य जेल में चला गया, उस परिवार की सम्मानपूर्वक आर्थिक व्यवस्था कर दी गयी। ऐसे भी परिवार हैं जिनके बच्चोंने स्वयं मेहनत करके पूरे 19 महीने तक घर में पिता की कमी महसूस नहीं होने दी। इधर पुलिस ने ऐसे लोगों को भी पकड़कर जेल में ठूंस दिया जो इन जरूरतमंद परिवारों की मदद करते थे।

आंतरिक आपातकाल की आवश्यकता नहीं -

आज देश में 1977 के बाद जन्मे लोगों का प्रभुत्व है। इस पीढ़ी को अपने देश के इतिहास और खास कर आपातकाल के कारणों और उसके दुष्परिणामों से अवगत होने की जरूरत है। बाहरी आपातकाल पहले से लागू था तो आंतरिक आपातकाल की आवश्यकता नहीं, तत्कलीन रक्षा मंत्री की इस दलील को भी नहीं माना गया। आपातकाल का समर्थन न करने वाले कलाकारों को आल इंडिया रेडियो से समय मिलना बंद हो गया, जिसमें किशोर कुमार जैसे संगीतकार भी थे।

संघ पर प्रतिबंध - 

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक बाला साहब देवरस समेत तीन लाख से अधिक लोगों को जेल में डाल दिया गया और संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। उस समय दिल्ली में लगभग सभी प्रेस कार्यालय बहादुर शाह जफर मार्ग पर थे। उसकी 25 जून को बिजली काट दी गयी ताकि समाचार पत्र न छप सकें। वर्तमान में सरकार की नीतियों का समर्थन करने वाले समाचार पत्र को सोशल मीडिया पर तुरंत ही गोदी मीडिया कह कर प्रचारित किया जाता है। इन लोगों को शायद आपातकाल के हालात की जानकारी नहीं।

लोकतांत्रिक संरचना हिली - 

आपातकाल की घोषणा ने देश की लोकतांत्रिक संरचना को हिला कर रख दिया। लोकतांत्रिक व्यवस्था के कमजोर पक्षों पर व्यापक विचार विमर्श हुआ और देश ने दोबारा कभी भी इसे नहीं लगाए जाने का प्रण किया। यह प्रतिज्ञा तभी बनी रहेगी, जब देश बार बार उस आपातकाल से मिलने वाले सबक को याद करता रहेगा। खास कर, युवाओं को आजाद भारत के उस काले अध्याय की जानकारी और उससे मिले सबक को जानना होगा।

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