लोक संसार, भाषा और राम
डॉ विजया सिंह, असिस्टेंट प्रोफेसर, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
वेब डेस्क। शास्त्रों में ‘राम’ शब्द कहते ही वाल्मीकि के राम, तुलसी के राम का आध्यात्मिक रूप उभर कर सामने आता है। लेकिन लोक में जब ‘राम’ आते हैं तब वे जीवन-व्यापार का हिस्सा बन जाते हैं। कभी दुख में कही जाने वाली भाषा के साथ कभी खुशी में उजास भाव के साथ।
दरअसल लोक के राम भाषा के माध्यम से लोगों की दिनचर्या का हिस्सा हैं। ये हिस्सा ऐसा भाग है जो लोकमानस के भीतर पानी की धार की तरह बह रहा है। यह हम सब जानते और मानते भी हैं कि भाषा संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। संस्कृति के मूल्यों को, विश्वासों को, परंपरा को और रीति- रिवाजों को अपने भीतर सँजो कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुंचाने का काम करती है भाषा। यह वह साधन है जिसके द्वारा संस्कृति पल्लवित होती है। अब भाषा भी कई स्तरों को अपने अंदर समाहित करके चलती है। भाषा के अंग के रूप में जहां शब्द होते हैं, वहीं शब्दों का मर्म और उन शब्दों को जीवित करने की ज़िम्मेदारी अर्थ की होती है। शब्द गढ़े जाते हैं संबंधित समाज द्वारा और उसमें अर्थ भरता है लोक। लोक मानस में जो कथा, चरित्र जिस रूप में बैठ जाता है, शब्दों के अर्थ उसमें उसी तरह से भरने का काम करते हैं। यहाँ हम बात कर रहे हैं शब्द ‘राम’ की। राम लोक मानस में तो हैं ही, साथ ही लोक- व्यवहार का एक अभिन्न हिस्सा भी हैं। बात जब लोक व्यवहार की हो रही है तब जाहिर सी बात है, यह बात लोक व्यवहार की भाषा की हो रही है। भाषा में ‘राम’ शब्द की उपस्थिति कहाँ- कहाँ है, इसको देखा जा सकता है। लोक मानस शास्त्र के नियम से बिलकुल अलग है।
लोक जगत में शब्दों के नये अर्थ गढ़े जाते हैं। और शब्दों के अर्थ का विस्तारीकरण भी किया जाता है। कई बार विस्तार यहाँ तक हो जाता है कि पारंपरिक लोकाचार- व्यवहार में शब्द रच-बस जाते हैं। लोक के ‘राम’ की बात करें तो यहाँ के राम भगवान के रूप से भी आगे उनके जीवन-मरण का वा। यहाँ शिशु को राम ही माना जा रहा है। गीतों की भाषा में एक संसार है जहाँ जनम देने वाली माँ कौशल्या मानी जा रहीं हैं और शिशु तो राम है ही। अब जीवन चक्र में थोड़ा आगे आते हैं। यानि उपनयन संस्कार में। यहाँ फिर से राम उस बालक के साथ समाहित हो जाते हैं। राम बरवा गोदिया लेले/ जेकर जनेववा होवे। इस तरह विवाह के गीतों की भाषा में भी दूल्हे में राम को देखा जाता हैं। जैसे- मिथिला के गीतों में हर दामाद राम का स्वरूप है। उसे राम कह कर ही संबोधित किया जा रहा है। एक बानगी देखिये-‘बता द बबुआ लोगवा देत काहे गारी/ एक भाई गोर कहे एक भाई कारी।
संस्कारों- रिवाजों से इतर हर दिन की भाषा संसार में भी राम उपस्थित हैं। जैसे अभिवादन में राम- राम/ जय रामजी की। आगे देखें, जीवन- दर्शन की बात होती है तब कहा जाता है राम जी की माया, कहीं धूप कहीं छाया। त्योहारों में भी भाषायी आरोपण के जरिये होली खेले रघुवीर… खेतों में लगी फसल को जब पक्षी खाये तो उसमें भी ‘रामजी की चिरई’ यानि ये चिड़ियाँ राम जी की है। हर संज्ञा के साथ विशेषण के रूप में भी राम हैं। एक और उदाहरण- पहले जब खास कर ग्रामीण इलाकों में जब कोई गिनती कर सामान देना होता था तब रामे एक/ रामे दो.... करके सामान को गिना जाता था। निश्चित रूप से ‘राम’ लोकजीवन में लोकधर्मिता के रूप में अधिक उपस्थित हैं। कहने का आशय है कि राम शब्द लोकजीवन, लोकभाषा का हिस्सा हैं। लोक की व्यंजनात्मक भाषा यानि लोकोक्तियों में तो राम शब्द की जैसे भरमार है। मुंह में राम बगल में छुरी/ राम- राम जपना पराया माल अपना/ जिनके राम धनी उनके कोई न कमी/ राम भरोसे आदि- आदि। कुल मिला कर देखा जाए तो भाषा में राम शब्द बहुलता के साथ अपनी धाक जमाये हुए हैं। राम शब्द को हटा कर अगर भाषा के लोक- व्यवहार की बात की जाए तो शायद तियांश यानि पूरे अंश का तीसरा भाग ही बचा रह जाएगा।