कैसे हों आईएएस-आईपीएस अफसर ?
हम अपने सरकारी बाबुओं से बेखौफ होकर काम करने की उम्मीद करते हैं तो हमें उन्हें उसके लिए आवश्यक माहौल भी देना होगा।
हाल ही में यूपीएससी 2020 की सिविल सर्विस परीक्षा के नतीजे आए हैं। इन परीक्षाओं में जो अभ्यार्थी सफल हो गए हैं वे आईएएस, आईपीएस और आईएफएस आदि केन्द्रीय सेवाओं के तमाम कैडरों के क्लास-1 श्रेणी के अफसर बनेंगे। इन पर ही तमाम सरकारी कार्यक्रमों और केंद्र सरकार की योजनाओं को लागू करने की अंततः जिम्मेदारी होगी। किसी भी लोकतांत्रिक देश की जान होती है उसकी नौकरशाही। अगर ये अपने कामों को सही ढंग से करें तो देश विकास के रास्ते पर चल पड़ता है। और, यदि अगर ये भ्रष्ट और काहिल हों जायें तो देश को भारी हानि होती है। यह बात सब जानते हैं।
फिलहाल तो नये सफल अभ्यार्थियों को बधाई देने का सिलसिला चल रहा है। लेकिन, देखा जाए तो इनके लिए असली चुनौती आने वाले समय में तब शुरू होगी जब ये ट्रेनिंग के बाद जिलों में या अपने विभागों में तैनात होंगे।
भारत में ब्रिटिश काल के दौर में जब सिविल सर्विसेज की संकल्पना की गई थी तो उसका मुख्य उद्देश्य यह था कि ये अधिकारी ब्रिटिश राज को मजबूत करने व ब्रिटिश नीतियों को सख्ती से लागू करने में सहायता करेंगे। इसलिये उन्होंने सारे उच्च पदों पर शुरू में तो गोरों को ही तैनात करने की नीति बनायी थी, यहां तक कि शुरुआत में अधिकतर गोरों को ही आईसीएस और आईपी में चुना जाता था। कहा जाता है कि गोरे अफसर जिस जिले में जिलाधिकारी के तौर पर तैनात होते थे, उस जिले की एक-एक इंच जगह से अच्छी तरह वाकिफ होते थे। उन्हें पता होता था कि जिले में कृषि भूमि कितने प्रकार की है। कितनी उपजाऊ है, कितनी बंजर है, कितनी सिंचित है, कितनी असिंचित है, कौन कौन से प्रकार के पेड़-पौधे हैं, किस गाँव की कितनी आबादी है, उसकी सामाजिक और आर्थिक संरचना क्या है, जिले में कितनी नदियां और नाले हैं, जिले में कितनी औसत वर्षा होती है ? अब आज के कितने अफसरों को इन सब बातों की जानकारी होगी। जिले को तो छोड़ो जिस नगर में तैनात हैं उस नगर में कितने मोहल्ले हैं, यह तक उन्हें ठीक से पता नहीं होता है।
पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि आजाद भारत में कुशल और योग्य अफसर हुए ही नहीं। देश ने आजादी के बाद अनेक काबिल सरकारी अफसरों को देखा है। इस लिहाज से जगमोहन से लेकर के.सुब्रमण्यम और ए.के.दामोदरन से लेकर एल.पी. सिंह और टी.एन. शेषन, जे.एन. दीक्षित जैसे सैकड़ों ज्ञानी और सक्षम अफसरों का नाम लिया जा सकता है। पर बहुत सारे अफसर काहिल भी साबित हुए हैं। वे करप्शन में भी आकंठ लिप्त रहे हैं।
देखिए एक बात तो समझ ली जाए कि अगर हम अपने सरकारी बाबुओं से बेखौफ होकर काम करने की उम्मीद करते हैं तो हमें उन्हें उसके लिए आवश्यक माहौल भी देना होगा। उन्हें सुरक्षा देनी होगी। सत्य के रास्ते पर चलने वाले अफसरों को ही अवरोध ही अवरोध झेलने पड़ते हैं। क्या इन्हें समाज या सरकार पर्याप्त सुरक्षा या आदर देते हैं ? ईमानदार अफसरों को तो जीवन भर भटकना ही पड़ता है। उन्हें प्रमोशन से अकारण वंचित किया जाता है, साथ ही ट्रांसफर की तलवार तो उन पर हमेशा लटकी ही रहती है। हरियाणा कैडर के आईएएस अफसर अशोक खेमका को अपनी ईमानदारी की खूब कीमत चुकानी पड़ चुकी है। इस देश में बहुत सारे खेमका जैसे अफसर रहे हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि कड़वी दवा और कड़क ईमानदार अफसरों को कम लोग ही पसंद करते हैं । सभी को बिकने वाले सरकारी बाबू चाहिए जो उनके हिसाब से ही काम करें।
आज कितने लोगों को याद है सत्येंद्र दुबे और मंजूनाथ की कहानी ? सत्येंद्र दुबे नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया में प्रोजेक्ट डायरेक्टर थे। उन्होंने प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी सड़की योजना स्वर्णिम चतुर्भज सड़क योजना में फैले भ्रष्टाचार को नजदीक से देखा। उन्होंने तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वापजेयी को एक सीलबंद चिट्ठी लिखी जिसमें योजना में करप्शन का पूरा कच्चा चिट्ठा था। ताकतवर भ्रष्ट अफसरों, इंजीनियरों, ठेकेदारों के नाम थे। दुबे ने लिखा था कि भ्रष्ट लोगों के उस गठजोड़ से वे अपने दम पर नहीं निपट सकते। इसलिए वे प्रधानमंत्री को खत लिख रहे हैं। उनकी इस पत्र को लिखने के कारण ही हत्या हो गई थी।
अब बात एस. मंजुनाथ की। वो उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में इंडियन ऑयल कारपोरेशन में कार्यरत थे। 13 सितंबर 2005 को पेट्रोल पंप मित्तल ऑटो मोबाइल का निरीक्षण करने के दौरान गड़बड़ियां मिलीं। उनकी शिकायत पर पेट्रोल पंप निलंबित कर दिया गया। 19 नवंबर को मंजुनाथ ने फिर वहां का निरीक्षण किया। लेकिन पेट्रोल पंप मालिक के बेटे ने अपने साथियों के साथ मिलकर उनकी गोली मारकर हत्या कर दी। यानी इसी प्रकार से बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है ईमानदार और कर्तव्य परायण अफसरों को।
राजधानी के सिविल लाइंस क्षेत्र में स्थित मेटकाफ हाउस का भारत की शिखर नौकरशाही के लिए बेहद खास स्थान है। लौह पुरुष सरदार पटेल ने इधर ही 21 अप्रैल, 1947 को स्वतंत्र भारत के पहले बैच के आईएएस-आईपीएस अफसरों को स्वराज और सुराज के महत्व पर भाषण दिया था। इसलिए 21 अप्रैल को लोक सेवक दिवस के रूम में मनाया जाने लगा। इसी मेटकाफ हाउस में 1947 से पहले इंडियन सिविल सर्विसेज (आईसीएस) की परीक्षाएं आयोजित की जाती थी। इधर ही 1958 तक सिविल सर्विसेज की परीक्षाएं, इंटरव्यू और सफल अभ्यार्थियों की ट्रेनिंग होती थी। उसके बाद उनकी यह ट्रेनिंग मसूरी में होने लगी। सरदार पटेल ने अपने वक्तव्य में देश के अफसरों से कहा था कि वे जनता के हितों के लिए काम करें और उसमें किसी तरह की कोताही ना बरतें। क्या आज के दिन सभी सरकारी बाबू सरदार पटेल के बताए रास्ते पर चलते हैं ?
क्या यह सच नहीं है ये बाबू जब जिलों में तैनात होते हैं तो आम जनता से जितना इन्हें करीब होना चाहिये, उलटे ये उनसे बहुत दूर हो जाते हैं। ये अपने महलनुमा सरकारी बंगलों में रहते हैं और इनका जनता से कोई सरोकार ही नहीं रहता। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। सरकार को चाहिए कि वह उन अफसरों पर कठोर एक्शन लें जो अपने दायित्वों का सही से नहीं अंजाम नहीं देते। जिन अफसरों पर करप्शन के केस साबित होते हैं उन्हें तो कठोर दंड दिया ही जाए। यह भी देखने में आता है कि बहुत से सरकारी बाबू जीवन भर मलाईदार पोस्टिंग पाने की फिराक में ही बिजी रहते हैं। इस क्रम में वे नेताओं और मंत्रियों के तलवे चाटने से भी परहेज नहीं करते हैं। यह सब कतई स्वीकार न किया जाए तभी ये सरकारी अफसर अपने लोक सेवक के दायित्व को निभा पायेंगे।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)