श्रीवृंदावन में नित्य प्रकट हो रहे हैं श्री चैतन्य के दर्शन-सिद्धांत

-पिछले 70 वर्षाे से ब्रज संस्कृति का प्रचार कर रही श्रीगौरांग लीला -प्रति वर्ष सावन के महीने में होता है लीला का मंचन

Update: 2018-08-23 03:00 GMT
वृंदावन में श्रीगौरांग लीला का मंचन करते स्वामी फतेहकृष्ण जी की रासमंडली के कलाकार।

मधुकर चतुर्वेदी/आगरा। सतयुग में ध्यान के द्वारा, त्रेता में यज्ञ द्वारा, द्वापर में अर्चना के द्वारा जो पुरुषार्थ लाभ होता है वह अब कलियुग में श्री हरिकीर्तन द्वारा प्राप्त हो सकता है। यह अमूल्य, उन्नत और उज्जवल श्रीकृष्ण प्रेमामृत रूपी सम्पत्ति जिसे हमें नाम संकीर्तन कहते हैं, संसार को इसका प्रबोध कराने वाले कोई और नहीं, युगदृष्टा श्री चैतन्य महाप्रभू ही थे। श्री चैतन्य भले ही 15 वीं शताब्दी में उत्पन्न हुए हों लेकिन, उनकी लीला-दर्शन और शिक्षाएं आज भी हमारी सांसारिक दावालन से रक्षा करते हुए श्री वृंदावन धाम में नित्य प्रकट हो रहीं हैं।


जी हां, ब्रज की अनन्य रसभूमि जिसे हमें श्रीवृंदावन के नाम से जानते हैं, बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी है कि वर्तमान वृंदावन के स्वरूप और इसके लुप्त तीर्थो को श्री चैतन्य ने ही प्रकट किया था। श्री चैतन्य के दर्शन-सिद्धांतों को जीवंत बनाए रखने के लिए श्रीवृंदावन स्थित 'श्रीचैतन्य प्रेम संस्थान' की भ्रमरघाट स्थित मनोरम रास-स्थली में प्रतिदिन गौरांग लीला का मंचन प्रसिद्ध 'रासाचार्य श्री स्वामी फतेहकृष्ण जी' की रास मंडली द्वारा किया जा रहा है। जिसमें बिना किसी आधुनिक आडंबर के केवल विनय भाव से हजारों की संख्या में देश के अनेंकों प्रांतों से आए श्रद्धालु 'श्रीगौरांग' लीला मंचन का आस्वादन कर श्री चैतन्य को अपने भाव में धारण कर रहे हैं। हरियाली अमावस्या से रक्षाबंधन तक आयोजित इस लीला मंचन के बारे में स्वदेश से विशेष वार्ता में उत्सव समिति के प्रमुख व ब्रज के अनन्य संत व श्री राधारमणलाल जी मंदिर के सेवायत 'आचार्य श्रीवत्स गोस्वामी' जी ने बताया कि बंगाल के नवद्वीप में जन्में श्री चैतन्य महाप्रभू का लक्ष्य समाज में भक्ति व भारतीय संस्कृति का प्रचार व स्थापना करना था। जिस समय श्री चैतन्य का प्रादुर्भाव हुआ था, उस समय सत्ता भारतीयों के हाथ में ना थी।

वर्तमान वृंदावन के स्वरूप को किया प्रकट

श्रीवत्स गोस्वामी जी बताते हैं कि जब भारत की अस्मिता खंडित हो रही थी, उस समय श्री चैतन्य ने अपने 6 गोस्वामी शिष्यों के साथ सनातन धर्म का प्रचार किया और ब्रज में आकर वृंदावन को प्रकट किया। चूंकि उस काल में मुगलों को इतना अधिक आतंक था कि कोई भी ब्रज में आता ही नहीं था। इसलिए श्री रामानुजाचार्य ने श्री रंगपल्ली, श्री माध्वाचार्य ने उडुपी, श्री निंबाकाचार्य ने बरसाना के पास नीमगांव व श्रीबल्लभाचार्य ने गोवर्धन के पास चंद्रसरोवर को वृंदावन घोषित किया। लेकिन, मुगलों से डरे बिना धर्म की स्थापना के लिए श्री चैतन्य ने वर्तमान वृंदावन को प्रकट किया और लुप्त तीर्थो का प्रबोध कराया।

केवल संत ही नहीं, कुशल राजनीतिज्ञ भी थे चैतन्य

श्री वत्स गोस्वामी ने बताया मुगलों के समय में वैदिक सनातन धर्म का प्रचार करना कोई साधारण काम नहीं था। कोई भी सभ्यता बिना शक्ति व राजनीतिक हस्तक्षेप के खड़ी नहीं हो सकती। श्रीचैतन्य ने इस बात को समझा और राजपूत राजाओं के पास अपने शिष्यों को भेजा और उनका विश्वास प्राप्त किया। फलतः बादशाह अकबर एक बार नहीं बार-बार वृंदावन आया। इतना ही नहीं जिस सोशल इंजीनियरिंग की आज बात की जा रही है। श्री चैतन्य ने धर्म की स्थापना में जिन प्रमुख शिष्यों को लगाया, उसमें सभी धर्म व जातियां शामिल थीं। इतना ही नहीं श्री चैतन्य ने अपना कार्यभार एक महिला को सौंप नारी स्वतंत्रता के विचार को भी बल दिया।

सुविधा के नाम पर मर्यादा नहीं करनी चाहिए

श्री गौरांग लीला पंडाल में कहीं पर भी प्लास्टिक के प्रयोग पर प्रतिबंध हैं। प्रसाद भी दौन-पत्तलों में दिया जा रहा है। लीला मंचन के बाद श्रद्धालुओं को बताया जा रहा है कि सुविधा के नाम पर मर्यादा को नष्ट नहीं करना चाहिए।


श्रीवृंदावन स्थित श्रीचैतन्य प्रेम संस्थान की भ्रमरघाट स्थित मनोरम रास-स्थली में प्रति वर्ष श्री गौरांग लीला का मंचन पिछले 70 वर्षो से किया जा रहा है। श्री चैतन्य संप्रदायाचार्य पुरूषोत्तम गोस्वामी व बाबा प्रेमानंद जी द्वारा इस लीला को शुरू किया था। रास की मर्यादा व ब्रज की संस्कृति के साथ भारतीय रागों पर आधारित संगीत पर श्रीचैतन्य के दर्शन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जाता है। लीला मंचन का उद्देश्य ब्रज की कला संस्कृति को विश्व पटल पर स्थापित करना है।

-आचार्य श्रीवत्स गोस्वामी, सेवायत श्री राधारमण मंदिर, श्रीवृंदावन। 

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