युवा भारत में फफक रहे वृद्ध

युवा भारत में फफक रहे वृद्ध
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माता-पिता को देवता जानने वाले इस देश में ऐसे विधेयक की आवश्यकता पर मैं व्यक्तिगत रूप से आहत था। तबसे बहुत समय बीत गया है। बूढ़ों के अपमान बढ़े हैं।

जीवन की सांझ आ रही है। श्रम गीत मद्धिम हो रहे हैं। गहन विश्राम की तैयारी है, लेकिन अपने परिजन डांट रहे हैं। भारत के करोड़ों वृद्ध अपने परिजनों से पीड़ित हैं। वृद्धों की आंखें सजल हैं। शरीर से अशक्त हो रहे हैं। देखने और सुनने की क्षमता घट रही है। पुत्र और परिजन ध्यान नहीं देते। यह युवा भारत है। युवा 'समझदार' हो गए हैं। वे इंटरनेट जानते हैं। ह्वाट्सअप के विशेषज्ञ हैं। उनकी दृष्टि में हरेक वस्तु की उपयोगिता और अनुपयोगिता की समझदारी है। माता-पिता उपयोगी नहीं रहे। वे 'आउट आॅफ डेट' हो चुके हैं। वे डांटे जाने के पात्र हैं। वरिष्ठों के आदर वाली संस्कृति और सभ्यता के देश में वरिष्ठों का अपमान समाज विज्ञान और मनोविज्ञान की भी चुनौती है। भारत सरकार 2005-06 के आसपास इस समस्या पर सजग हुई थी। तब 'माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण विधेयक' आया था। माता-पिता को देवता जानने वाले इस देश में ऐसे विधेयक की आवश्यकता पर मैं व्यक्तिगत रूप से आहत था। तबसे बहुत समय बीत गया है। बूढ़ों के अपमान बढ़े हैं। सरकारों के सामने परिजनों से भी वृद्धों की रक्षा की चुनौती है। भारतीय परंपरा में वृद्धों का अतिरिक्त सम्मान रहा है।

महाभारतकार ने वृद्धों से रहित सभा को सभा मानने से इनकार किया था। महाभारत युद्ध का एक प्रसंग बहुत ध्यान देने योग्य है। अर्जुन तमाम युद्ध कौशल के बाद कर्ण को नहीं मार पाए। युधिष्ठिर ने उन्हें डांटा। प्रतिक्रिया में अर्जुन भी युधिष्ठिर से भिड़ गए। श्रीकृष्ण बीच में पड़े। उन्होंने अर्जुन से कहा, तुमने वृद्धों की सेवा नहीं की। इसीलिए तुमको कुसमय क्रोध आया है। यहां वृद्धों की सेवा को महत्वपूर्ण बताया गया है। वृद्धों की सेवा न करने से अकारण क्रोध आता है। भारतीय संस्कृति दर्शन के जन्मकाल से ही वृद्ध आदरणीय थे। ऋग्वेद में माता-पिता की तुलना धरती आकाश से की गई है। महाभारत के यक्ष प्रश्नों में पिता आकाश से ऊंचा है और माता पृथ्वी से भारी। अथर्ववेद सांसारिक सरोकारों से भरापूरा है। अथर्ववेद में पुत्र को पिता का अनुव्रती बताया गया है। पुत्र पिता की काया का विस्तार है। उसे पिता के संकल्प व्रत को पूरा करना चाहिए। यहां पुत्र को माता की इच्छानुसार चलने की घोषणा है। अथर्ववेद में माता-पिता को जीवन प्राप्ति का आधार बताया गया है। इसमें माता-पिता, दादा, चाची, मौसी, ताई आदि को नमस्कार किया गया है। समूचा प्राचीन भारतीय साहित्य वृद्धों के आदर को मूल कर्तव्य बताता है, लेकिन वृद्ध फफक रहे हैं।

ऋग्वेद के एक सुंदर मंत्र में ऋषियों, पूर्वजों और पूर्वभ्यों-अग्रजों को नमस्कार किया गया है। सुदूर इतिहास नहीं अभी 20-25 बरस पहले तक वृद्धों का आदर था। दादा पितामह के आदेश उच्चतम न्यायालय से ज्यादा प्रभावी थे। दादी कथा सरित सागर थी। उनकी कथाएं प्रेरणादायी संस्कार देती थीं। हंसते हंसाते परिवार थे। पिता घोड़ा बनते थे झुककर। बच्चे पीठ पर किलकारी मारते खिलखिलाते थे। तब पिता बच्चे की खुशी के लिए घोड़ा बनते थे। अब बच्चे अपनी नाखुशी में उन्हें गधा बनाने को तैयार हैं। लेकिन उनकी रीढ़ काम नहीं करती। गांठे पोली हो गई हैं। आदर्श परिवारों में भी उनसे कोई बात नहीं करता। बेशक दवा, चाय आदि की किल्लत नहीं है, लेकिन उन्हें दुलार चाहिए। वैसा ही प्यार और दुलार चाहिए, जैसा उन्होंने अपने बच्चों को दिया था, लेकिन तरूण भारत-यंग इंडिया का बड़ा भाग इसे बकवास मानता है। सो समाज कल्याण से जुड़ी संस्थाएं वृद्धाश्रम खोल रही हैं। सरकारें भी आगे आ रही हैं, लेकिन ऐसी संस्थाएं वृद्धों की व्यथा नहीं रोक सकतीं। संस्कृति चक्र का पहिया उपभोक्तावाद के दल दल में फंस गया है।

बूढ़ों की प्रकृति अभी भी पुत्र प्रेम से सराबोर है। एक सही घटना हृदय विदारक है। पुत्र से पीड़ित एक पिता मुझसे मिले। उन्होंने थानेदार के लिए लिखी अर्जी मुझे दी। मुझसे कहा कि मेरा पुत्र बहुत परेशान करता है। वे रोने लगे- "मैंने उधार लेकर पढ़ाया। शादी विवाह किया। यह बीमार था। खेत बेचकर दवाई की। अब मुझे पीट देता है।" मैंने आश्वासन दिया, "जाओ इंस्पेक्टर से कहूंगा। उसका दिमाग ठीक हो जायेगा।" बुजुर्ग पलट गए। नहीं पंडित जी। दरोगा से कहना कि उसे मारे न, सिर्फ समझाए ही। मैनें पूछा, "वह मारता है, तो वह भी मार खाए।" उन्होंने कहा कि वह मूर्ख है। मेरा पुत्र है। मैं अपने जीवन में उसको कष्ट नहीं दूंगा। बुजूर्ग ने शिकायती प्रार्थना-पत्र वापिस ले लिया। बच्चे उस पर चढ़े रहते हैं। वह शिकायत नहीं करता। ऐसे प्रसंग भयावह है। मैं जानता हूं कि हमारी संस्कृति में पुत्र से जीतना अच्छा नहीं होता, लेकिन वृद्ध क्या करे? वे पुत्र को कष्ट नहीं देना चाहते। वे जीवन की सांझ को घिसटते हुए पार करना चाहते हैं। नियति उन्हें ऐसा मौका भी नहीं देती तो ईश्वर पर क्रोध आता है। ईश्वर होता होगा तो निश्चित ही उसके पास भी ऐसे आंकड़ों की भरमार होगी।

भारत दुर्भाग्यपूर्ण चुनौती का सामना कर रहा है। परिवार संस्था टूट रही है। जीवनमूल्य बिखर गये हैं। बाजार मूल्यों का अंधा युग है। इस चुनौती का सामना सरकारें नहीं कर सकतीं। वे वृद्धाश्रम खोल सकती हैं। वे पेंशन दे सकती हैं, लेकिन परिवार से प्यार नहीं दिला सकतीं। सांस्कृतिक समस्या का समाधान राजनैतिक नहीं हो सकता। मेरे अंतरंग मित्र के पिता जी का निधन हो गया था। मई का महीना। कड़ाके की धूप। अन्त्येष्टि स्थल पर लू के थपेड़े थे। उनके पिता ने मुझे भी बहुत प्यार दिया था। मैं उनकी स्मृति में दुखी था। मित्र ने कहा-धूप बहुत है। लू भी तेज है। पंडित चिता जला लेगा। आइए हम आप यहां से चलें। मैं काठ हो गया। उनके पिता संपन्न थे। उन्होंने पुत्र के लिए बहुत संपदा छोड़ी थी, लेकिन पुत्र उनकी अंतिम विदाई के समय भी थोड़ी देर रुकने को तैयार नहीं था । मैंने कहा तुम जाओ। मैं शवदाह की क्रिया के बाद ही चलूंगा। मैं सोच रहा था लगातार। जीवन क्या है? पिता क्या है? पुत्र क्या है? इनके सम्बन्ध कैसे हैं? तरूण जीवन की गति पिता विरोधी क्यों है? फिर मेरे सोचने की गति थम गई। मित्र के एक और मित्र आ गए। बोले-यार हमारी ट्रेन लेट हो गई। फिर हंसते हुए कहा कि चलो अच्छा रहा सब ठीक ठाक निपट गया। काफी उम्र हो गयी थी उनकी।

मेरे पिता का निधन 92 वर्ष की वय में हुआ। उन्होंने अपने जीवन को सश्रम स्वैच्छिक गरीबी में जिया था। संसार छोड़ते समय भी अस्वस्थ नहीं थे। मित्रों को चाय पिला रहे थे, गप्पबाजी में ही लुढ़क गए। मैं 300 किलोमीटर दूर प्रवास में था। घर आया तो बहुत रोया। भारी भीड़ थी। एक मित्र ने मेरा ढांढस बंधाया - 'आपका दुख सही है। वे घर बैठे तमाम काम कर रहे थे। अब आपकी जिम्मेदारी बढ़ गयी।' मैं क्षुब्ध हो गया। साहस बटोरकर मैंने कहा कि हमारे दुख का कारण उनका घर बैठे काम करने की प्रवृत्ति नहीं है। हमने पिता खोया है। पितृहीन होने के दुख में ही मैं व्यथित हूं। काम करने वाले 100-200 रुपये में मिल जाएंगे। लेकिन कई बार के विधायक पूर्व मंत्री को डांटने वाला संरक्षक कहां से लाऊंगा। उनकी स्मृति में बहुधा गला रूंध जाता है। हम उनका विस्तार हैं। वे न होते तो हम न होते। वे नहीं है तो हम कितने बचे? हमारे व्यक्तित्व का एक बड़ा भाग अब मेरे पास नहीं है। दुख का कारण यही है।

पिता-माता नाम की दो महाशक्तियों का आदर समाप्त हो रहा है। मेरी अभिलाषा है कि सभी पुत्र अपने पिता माता के प्रति आदर और श्रद्धा रखें। भारत की संस्कृति को फिर से वरिष्ठों के आदर भाव से भर दें। वे वृद्ध पिता को ध्यान से देखें। वृद्धों का सौन्दर्य और आशीष अद्वितीय होता है। उनकी बातों में बीते इतिहास का काव्य होता है। उनके अनुभव जीवंत होते हैं। वे बच्चों को सुप्रतिष्ठित यशस्वी देखना चाहते हैं। उनकी प्रत्येक गतिविधि में बच्चों के सुंदर भविष्य की कामनाएं होती हैं। वृद्धों का सौन्दर्य सांझ विदाई को जाते सूर्य जैसा अरूण होता है। वे संपूर्णता का अविस्मरणीय देवभाग हैं।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार व उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं)

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