2019 का मुद्दा विघटन या विकास

2019 का मुद्दा विघटन या विकास
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पूर्व प्रधानमंत्री हरदनहल्ली डोडेगौड़ा देवेगौड़ा ने जिनके पुत्र कुमार स्वामी कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने हैं

पूर्व प्रधानमंत्री हरदनहल्ली डोडेगौड़ा देवेगौड़ा ने जिनके पुत्र कुमार स्वामी कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने हैं, कहा है शपथ ग्रहण समारोह के अवसर पर बंगलूरू के मंच पर निवासित विभिन्न नेताओं ने जो एकजुटता प्रदर्शित की है उसे भविष्य में भारतीय जनता पार्टी के विरूद्ध एकजुट होकर चुनाव लड़ने की सहमति के रूप में देखना नहीं चाहिए। कर्नाटक विधानसभा में अधिक संख्या होने के बावजूद कम संख्या वाले जनता दल यूनाइटेड के कुमार स्वामी को मुख्यमंत्री बना कर कांग्रेस ने यह संकेत देने का प्रयास किया है कि वह अन्य दलों के साथ सामंजस्य करने के लिए तैयार है। अपने नेताओं को शपथ ग्रहण के मंच पर एकत्रित करने में भी उसका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

कांग्रेस शायद यह अपेक्षा करती है कि यदि वह गैर भाजपाई दलों में सबसे बड़ी संख्या वाला दल होता है तो उसके नेता को प्रधानमंत्री के रूप में अन्य दल स्वीकार कर लेंगे। लेकिन देवगौड़ा के कथन और कर्नाटक में चल रही खींचतान तथा मुख्यमंत्री के इस बयान से कि उनकी सरकार का भविष्य लोकसभा चुनाव परिणाम पर निर्भर करता है। यह नहीं कहा जा सकता कि 2019 के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की योजना को कोई स्वरूप मिल सका। जहां भारतीय जनता पार्टी विभिन्न राज्यों में अपने संगठनात्मक स्वरूप को सुदृढ़ करने में लगी है वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी विदेशों में छुट्टियां मनाने को प्राथमिकता दे रहे हैं।

पिछले दिनों यह समाचार प्रकाशित हुआ कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी दो दिवसीय उत्तर प्रदेश के दौरे पर आ रहे हैं। विस्तृत कार्यक्रम के बारे में समाचार में जानकारी दी गयी उसके अनुसार अमित शाह मिर्जापुर और आगरा में पूूरे उत्तर प्रदेश से मतदान स्थल प्रमुखों के साथ संवाद करेंगे। और वाराणसी में दो हजार सोशल मीडिया में सक्रिय लोगों के साथ चर्चा करेंगे। राहुल गांधी के दो दिवसीय कार्यक्रम के बारे में सिर्फ इतना विवरण दिया गया था कि वह अपने निर्वाचन क्षेत्र अमेठी में रहेंगे। आम चुनाव को छोड़कर पिछले एक डेढ़ दशक में राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने शायद ही कभी रायबरेली अथवा अमेठी के बाहर उत्तर प्रदेश के किसी जनपद का दौरा किया हो। उनका उत्तर प्रदेश दौरे का तात्पर्य अपने निर्वाचन क्षेत्र में आना होता है।

कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में ब्लॉक स्तर पर सम्मेलन करने की घोषणा की है लेकिन वह इसलिए संभव नहीं हो सका क्योंकि नेता समझा जाने वाला कोई भी कांग्रेसी वहां जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। 2019 का निर्वाचन जहां भारतीय जनता पार्टी के लिए 2014 की पुनरावृत्ति करने के लिए चुनौती भरा है वहीं कांग्रेस के लिए 2014 की दुर्गति से उबरने के लिए है। भाजपा जहां सारे देश में अपनी संगठनात्मक क्षमता को सुदृढ़ करने में लगी है वहीं कांग्रेस महागठबंधन के जरिए हैसियत सुधारने की उम्मीद कर रही है। कुछ राज्यों में कांग्रेसी उन दलों से समझौता करने की कोशिश में लगे हैं जो उनसे अलग होकर शक्तिमान बने हैं।

बंगाल कांग्रेस ममता बनर्जी से समझौता चाहती है तो महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चौहान गैर भाजपाई दलों का गठबंधन बनाने का आह्वान कर रहे हैं। जबकि उससे अलग हुए राकांपा के नेता शरद पवार महागठबंधन के प्रति उत्साहित नहीं हैं। पिछले दिनों बिहार में जनता दल यूनाइटेड के प्रवक्ताओं ने अगले चुनाव में अधिक स्थान पाने की जो अभिव्यक्ति की उससे कांग्रेस नीतीश कुमार के फिर से महागठबंधन में शामिल होने की जो उम्मीद कर रही थी उनके द्वारा लालू प्रसाद यादव का हाल चाल लेने के लिए की गयी भेंट से हवा मिली थी, को तेजस्वी और तेजप्रताप दोनों भाइयों ने घर के दरवाजे तक नीतीश कुमार को न फटकने देने की घोषणा कर विराम लगा दिया है।

प्रशासन और आर्थिक मोर्चे पर नरेन्द्र मोदी सरकार को घेरने की जितनी भी कोशिश की जा रही है उसके उल्टे घेरने वाले ही घिर रहे हैं। सबसे ज्यादा विपक्ष आक्रामक है जीएसटी को लेकर किन्तु वह इस बात का संज्ञान नहीं ले रहा है कि जीएसटी का फैसला सर्व सम्मति से होता है जिसमें सभी राज्यों के मुख्यमंत्री शामिल हैं। भाजपा ने तीन तलाक पर लंबित विधेयक को राज्यसभा में लाने का फैसला किया है और सर्वोच्च न्यायालय में हलाला निकाह पर हो रहे विचार में अपना अभिमत इसके विरूद्ध देने का ऐलान किया है। इन दोनों मसलों और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय तथा जामिया मिलिया विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा न दिये जाने के सरकार के रूख को मुस्लिम समुदाय के उत्तेजनात्मक रूप कोे विपक्ष उभार रहा है। इसी के साथ कतिपय हत्याओं की घटनाओं कोे भाजपा के विरूद्ध प्रयोग करने की कोशिश हो रही है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जबकि भाजपा को मुस्लिम विरोधी संगठन करार देकर उस समुदाय को वोटबैंक के रूप में प्रयोग करने की कोशिश न की गयी हो। इस कोशिश की सदैव हिन्दू एकजुटता के रूप में प्रतिक्रिया होती रही है और भाजपा के आगे बढ़ने में यह एकजुटता महत्वपूर्ण योगदान करती रही है। आगे ऐसा नहीं होगा ऐसा मानना वास्तविकता से इन्कार करना होगा।

देश में एक बहस यह भी चल रही है कि क्या चुनाव सरकार के क्रिया कलापों पर होना चाहिए या भावनात्मक मुद्दों पर आधारित। प्राय: अभी तक के जो निर्वाचन हुए हैं उसमें भावनात्मकता का अधिक प्रभाव दिखाई पड़ता आया है। सार्वदेशिक और सार्वभौतिक मुद्दे बहुत कम प्रभावी रहे हैं। 2014 का निर्वाचन सार्वदेशिक मुद्दे पर हुआ था क्योंकि इसके पूर्व की एक दशक चलने वाली सरकार भ्रष्टाचार अंतर विरोध और गैर संवैधानिक बोझ से बोझिल होकर अपनी साख खो चुकी थी। ऐसी साख खोई सत्ता के लिए एक जुट होकर जो प्रयास चल रहा है उसमें भावनाओं को चाहे वह जातीय हो या साम्प्रदायिक अथवा भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने वाली हो, भावनात्मक मुद्दा बनाकर किये जा रहे उभार कभी-कभी मतदाताओं की प्रतिक्रिया में हावी होते दिखाई पड़ने लगते हैं।

शायद इसका कारण यह है कि साफ नीयत और संतुलित विकास का नारा और उसके अनुरूप पिछले चार वर्षों में अपनायी गयी नीतियां और कार्यक्रमों की सकारात्मकता के विश्वास की पैठ बनाने में जैसी सफलता की अपेक्षा सत्ताधारी पक्ष कर रहा है उसके अनुरूप सक्रियता का अभाव रहा है। 2014 के बाद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पहली सरकार जिसके विरूद्ध भ्रष्टाचार के कोई आरोप नहीं लगे हैं। जिसमें क्षोभ उत्पन्न होने की संभावना के बावजूद आर्थिक सुधारों की दिशा में सराहनीय कदम उठाये हैं। पहली बार भारत को विश्व में इतना सम्मान मिला है। इसके बावजूद विविधता युक्त भारतीय समाज में विभिन्नता की खाई चौड़ी करने में लगी हुई देशी और विदेशी ताकतों की हरकतों का प्रभाव कम नहीं हो रहा है। शायद भाजपा को भी विभिन्नता की खाई चौड़ी करने के इस प्रयास को पाटने के लिए वर्गीय और क्षेत्रीय हितों के साथ सामंजस्य स्थापित करने की प्राथमिकता महसूस होने लगी है। इसीलिए उसमें भी एक व्यापक सम्पर्क अभियान और सहयोगियों के साथ समझदारी बढ़ाने की दिशा में कदम उठाया है। जिसकी अब तक उपेक्षा की गयी थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि समाज में नकारात्मकता का प्रभाव अभी बहुत ज्यादा है।

शायद इसी कारण कुछ लोग यह मानते हैं कि 2014 का चुनाव परिणाम नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता नहीं अपितु मनमोहन सिंह की10 वर्षीय सरकार की असफलता का परिणाम रहा। पिछली सरकार के प्रति आक्रोश का परिणाम था। देश में दो प्रकार की भावनाएं काम कर रही हैं एक के पीछे नेताओं का हुजूम है जो देश को खण्ड-खण्ड करने या देश विरोधी गतिविधियों में संलग्न लोगों की हौसला अफजाई से गुरेज नहीं करता और इसके लिए वह सेना तक को फर्जिकल या गुण्डागर्दी करने वाली फोर्स कहने में संकोच नहीं करता। जो प्रत्येक सरकारी निर्णय का विरोध करना ही अपना धर्म समझता है और यह सोचता है कि इस माध्यम से सरकार के प्रति लोगों में क्षोभ पैदा कर सके।

दूसरी ओर वह फोर्स है जो यह समझती है कि एक देश एक जन की अवधारणा के साथ सबकी भलाई तुष्टीकरण किसी का नहीं नीति के साथ गरीबी उन्मूलन की दिशा में सकारात्मक कदम उठाते हुए आगे बढ़ रही है। 2019 में देश की जनता को इन्हीं दोनों पक्षों में से किसी एक का चुनाव करना है। जहां तक महागठबंधन का सवाल है उसका स्वरूप 2019 के बाद ही यदि भाजपा को बहुमत नहीं मिला तो सरकार बनाने के लिए समझौते के रूप में अल्पकालिक अस्तित्ववान हो सकता है और अब तक की समझौतावादी सरकारों का जो हश्र हुआ है जिसका संकेत कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने अपनी सरकार के संदर्भ में दिया है वही फिर होगा।

( लेखक पूर्व राज्यसभा सदस्य हैं )


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