आप कलेक्टर हैं, गली के गुंडे नही
मैं स्वयं यह मानता हूँ कि शीर्षक कुछ अधिक सत है। यह भी सही है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के कई अधिकारी ऐसे हैं जिन्होंने विगत इतिहास में भी और आज भी यह प्रमाणित किया है कि योग्यता, क्षमता के मापदंड में वह वाकई श्रेष्ठ हैं पर दुर्भाग्य से यह भी एक तथ्य है कि जिले में तैनात कलेटर ऐसे आचरण कर रहे हैं जिनके लिए शीर्षक की उपमा ही सर्वथा योग्य है। यह समय है केंद्र स्तर पर एक बार फिर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की सेवा शर्तों पर पुन: विचार किया जाए साथ ही इनको मिले असीमित अधिकारों की भी समीक्षा की जाए। यह प्रश्न इसलिए कि हाल ही में छाीसगढ़ के सूरजपुर जिले के कलेटर रणवीर शर्मा का एक वीडियो इन दिनों जमकर वायरल हो रहा है, जिसमें वह एक युवक का न केबल मोबाइल नीचे पटक देते हैं बल्कि उसमें एक थप्पड़ भी मारते हैं। वीडियो वायरल होने के बाद कलेटर ने माफी भी मांग ली और राज्य सरकार ने उन्हें तत्काल पद से भी हटा दिया।
कुछ दिनों पूर्व ऐसा ही एक वीडियो त्रिपुरा के कलेटर का वायरल हुआ था जिन्होंने लॉकडाउन में एक शादी समारोह में जाकर जमकर बवाल मचाया था और दूल्हा-दुल्हन व उनके परिजनों को अपमानित करने के साथसाथ शादी करा रहे पंडित जी में भी थप्पड़ मारा था। आश्चर्य की बात यह भी है कि ऐसी घटनाओं से सबक लेने की वजाय उच्च अधिकारी ऐसी ही गलती को दोहराते नजर आ रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण शाजापुर की अपर कलेटर मंजूषा विक्रांत राय हैं, जिनके थप्पड़ का वीडियो भी वायरल हो रहा है। कलेटरों द्वारा सार्वजनिक रूप से थप्पड़बाजी की यह कोई नई घटनाएं नहीं हैं। इससे पूर्व मध्यप्रदेश के राजगढ़ की कलेटर निधि निवेदिता भी सार्वजनिक रूप से भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से झूमा झटकी करते हुए कैमरों में कैद हुई थीं। कलेटरों के आचरण और व्यवहार के यह तो वह चंद उदाहरण हैं जो कैमरों में कैद होने की वजह से सार्वजनिक हो गए वरना ना जाने कितने कलेटर हर रोज आम नागरिकों पर अपनी खींज उतारते हैं। जन सामान्य के साथ जब इनका यह व्यवहार रहता है तो बंद कमरों में यह अपने अधीनस्थों से किस तरह पेश आते होंगे इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। कई बार तो इनके निशाने पर बुजुर्ग अधिकारी, कर्मचारी या महिलाएं तक आ जाती हैं।
शासकीय बैठकों और बहुतेरे साहबों के चेंबर में असर गूंजने वाले जुमले कुछ इस तरह के होते हैं 'उल्टा टांग दूंगा' 'खाल खींच लूंगा', मूर्खहो या, अंधे हो या, बुड्ढे समझ नहीं आ रहा या, मैडम मेकअप पर कम ध्यान दिया करो काम पर ज्यादा आदि इत्यादि । सवाल यह नहीं है कि कलेटरों को गुस्सा यों आता है? सवाल यह है कि यदि इसी तरह से कलेटर सार्वजनिक रूप से हाथापाई करते रहे या सडक़ छाप जुमलेबाजी करते रहे तो फिर इन जिलाधीश और सडक़ छाप गुंडों में या फर्क बचेगा? यह घटनाएं ना केवल कुछ व्यतियों की मनोदशा से संबंधित हैं बल्कि एक पूरी व्यवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह लगाती हैं यों और कैसे, इसे समझने से पहले जरा कलेटरी के इतिहास और वर्तमान को समझने की जरूरत है। यह समझना होगा कि आजादी से पहले यह सेवा आई सी एस के तहत थी। कारण अंग्रेजों के लिए यह एक उपनिवेश था और सात समुद्र पार कोई यों आये इसलिए अंग्रेजों ने शानदार सुविधाओं और खूब अधिकारों के साथ भारत मे अपने सिपहसालार तैनात किए और उन्हें कलेटर कहा गया। इंनके लिए भारत की जनता गुलाम ही थी। संवेदना का प्रश्न ही नहीं था। आजादी के बाद हमने सिर्फ नाम बदला, भाव नहीं परिणाम सामने है। भारत में केवल तीन अखिल भारतीय सेवाएं मान्य की गई हैं।
इनमें सर्व प्रमुख आईएएस है, आईएएस यानि कि Indian Administrative Service यानी कि भारतीय प्रशासनिक सेवा। भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन के लिए अखिल भारतीय स्तर पर एक ही परीक्षा आयोजित की जाती है जिसे संवैधानिक संस्था संघ लोक सेवा आयोग आयोजित करता है। प्रारंभिक परीक्षा उसके बाद मुय परीक्षा और उसके बाद साक्षात्कार की कड़ी प्रतिस्पर्धा से निकलकर एक प्रतिभागी आईएएस के लिए चुना जाता है। इस परीक्षा में भी वही परीक्षार्थी आईएएस के लिए चयनित होते हैं जो प्रावीण्य सूची में उच्च क्रम पर होते हैं। हर वर्ष देशभर में लाखों परीक्षार्थी इस परीक्षा की तैयारी करते हैं। कई आंखों में यह सपना पलता है लेकिन चंद खुश किस्मत ही परीक्षा में अंतिम रूप से चयनित हो पाते हैं।
भारत में आईएएस बनना इतना प्रतिष्ठा पूर्ण माना जाता है कि कई आईआईटियन और प्राइवेट सेटर में लाखों के पैकेज प्राप्त कर रहे छात्र-छात्राएं भी अपनी नौकरी छोड़ कर आईएएस बनने का सपना संजोते हैं। आईएएस बनने संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षा में इतनी बहुआयामी पढ़ाई करना पड़ती है कि कोई भी विद्यार्थी इतिहास, राजनीति, संविधान, भूगोल, विज्ञान, अर्थशास्त्र और ऐसे कई विषयों का सामान्य से कहीं अधिक ज्ञान प्राप्त कर लेता है। बार-बार समीक्षाओं में यह बात भी सामने आई है कि आईएएस बनने वाला सिर्फ रटकर परीक्षा उाीर्ण ना कर ले इसलिए एप्टिट्यूड टेस्ट के प्रश्न-पत्रों के द्वारा उसका मानसिक व तार्किकता का परीक्षण भी किया जाता है। साक्षात्कार के दौरान भी इस बात की पूरी कोशिश की जाती है कि कहीं से भी संवेदना रहित और विकृत मानसिकता का कोई व्यति गलती से भी कलेटर ना बन जाए। सिर्फ चयन ही नहीं चयन के बाद एक सुव्यवस्थित प्रशिक्षण के द्वारा भी आईएएस में चयनित प्रतिभागी को शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और नैतिक रूप से तराशा जाता है।
लाल बहादुर शास्त्री अकादमी मसूरी में प्रतिभागी को कलेटर ही नहीं अपितु जिलाधीश बना कर निकाला जाता है। पिछले कुछ कलेटरों ने अपनी और अपने सरकार की छवि तो धूमिल की ही है इस प्रशिक्षण व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत को भी रेखांकित किया है। आखिर एक कलेटर जो जिले का मुखिया होता है और जो शिक्षा का उच्च स्तर प्राप्त कर भली-भांति प्रशिक्षित होता है, कैसे सार्वजनिक स्थान पर किसी आम नागरिक के साथ हाथापाई करने की गलती कर सकता है? जबकि वह यह जानता है कि कैमरों की उपस्थिति और उपलधता आज सार्वभौमिक हो गई है। यह भी उल्लेखनीय है कि यह सर्वशतिमान सिंघम किसी बड़े राजनेता या बड़े माफिया के आगे दबंगई नहीं दिखाते। वहाँ यह शीर्षासन करने में भी संकोच नहीं करते। इनका सारा रुतबा आम और निरीह पर ही उतरता है। यही कारण है कि कई प्रदेशों में जिलाधीश को जिला दंडाधिकारी की हैसियत से मिले अधिकारों को समाप्त कर पुलिस आयुत प्रणाली लागू की गई है जिसका ये अधिकारी पूरी ताकत से विरोध भी करते हैं। हालांकि यह भी पूर्ण समाधान नहीं है और इसके भी खतरे हैं।
तातपर्य यह अब गंभीर विमर्श का विषय बनना ही चाहिए कि आजादी के बाद जो हमने नोकरशाही का तंत्र विकसित किया उसकी कठोर समीक्षा की जाए। कारण इसके चलते एक और खतरा है कि आज इसरो सहित विज्ञान एवं अनुसंधान के क्षेत्र में प्रावीण्यता के स्तर पर तीसरे स्तर का युवा जा रहा है। वैज्ञानिक अद्भुत कर रहे हैं पर अगर यह क्रम बदला तो कितने चमत्कारिक परिणाम आएंगे समझा जा सकता है। दूसरे स्तर के मेधावी युवा विदेशी कम्पनी पैसों के लिए तलाश रहे हैं और जो सर्वाधिक योग्य हैं वह इंजीनियरिंग करके, प्रबंधन की विशेषज्ञता लेकर, डॉटर बन कर प्रयास कर रहे हैं कि कलेटर बन जाएं। यह प्रतिभा के साथ भी अन्याय हो रहा है। समीक्षा करनी ही होगी कि सारे अधिकार, के बावजूद देश ने इन सात दशकों में जो प्रगति की उसमें इनका कितना योगदान है। ऐसा नहीं है इस की मांग आज ही उठी हो। पूर्व मुयमंत्री कमलनाथ ने पद नाम बदलने की बात की थी। उत्तरप्रदेश से भी यह आवाज आई थी कि राज्य प्रशासनिक अधिकारियों को जवाबदेह बनाया जाए। ऐसा भी नहीं है कि इनकी योग्यता पर कोई प्रश्न चिन्ह है। पर इनकी मानसिकता बदलने की आवश्यकता है। यह कोई एक अलग ही वर्ग है यह नहीं होना चाहिए। जिलाधीश से जो ईश्वर का भाव आता है वह नहीं होना चाहिए। यद्यपि ईश्वर ऐसा नहीं होता पर ये सेवक हैं यह इनको समझना चाहिए और इन्हें समझाना भी होगा। इसके लिए आवश्यक है कि इंनके अधिकारों की समीक्षा की जाए। महलों की जो आवास के नाम पर सुविधा है उस पर विचार किया जाए। कारण यह सिर्फ भारत मे ही है। नौकरशाही इतनी मजबूत है कि देश की राजनीति भी इंनके आगे नतमस्तक हैं। मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री भी इंनके आगे विवश ही हैं और वे इसी में घिरे रहते हैं। परिणाम जिनको सेवा करनी चाहिए वह सडक़ों पर गुंडागर्दी करते हैं।