सौन्दर्य प्रकृति की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति
प्रकृति प्रतिपल अभिव्यक्ति होती रहती है। सौन्दर्य प्रकृति की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है और सौन्दर्य का सरस कथन कविता है। कविता का उद्भव केन्द्र भाव है। विचार का केन्द्र बुद्धि है। बुद्धि से तर्क का जन्म होता है। तर्क अकेला नहीं होता। तर्क और प्रतितर्क साथ-साथ चलते हैं। जिज्ञासा उन्हें उकसाती रहती है। प्रश्न प्रेरित करते हैं। तब ज्ञान का जन्म होता है। बुद्धि का अंतिम परिणाम है ज्ञान। भाव हमारा प्राकृतिक अंतस है। वाह्य जगत में जो प्राकृतिक है वही अन्तर्जगत में स्वाभाविक है। स्वाभाविक का मूल स्वभाव है। स्वभाव के प्रभाव में गुनगुनाने का मन करता है। गीत काव्य की तरंगे उठती हैं। चित्त सरस होता है। कविता भावाभिव्यक्ति है और विचार है तर्क की परिणिति। भाव प्रधान जीवन एक सरल, तरल और सरस प्रवाह है। लेकिन बुद्धि प्रधान जीवन जटिल है। यहां तर्क हैं। प्रतितर्क हैं। एक चुनौतीपूर्ण यात्रा है। जीवन में दोनों है। कविता और तर्कपूर्ण ज्ञान साथ-साथ हैं। कविता आनंदवर्द्धन होती है और बुद्धि सतत् खोजी स्वयं विश्वासी संघर्षपूर्ण यात्रा। बुद्धि की पराकाष्ठा विज्ञान और दर्शन में प्रकट होती है और भाव की पराकाष्ठा प्रेम में।
प्राचीन भारतीय इतिहास के वैदिक काल में कविता और विज्ञान का मिथुन है। ऋग्वेद दुनिया की प्राचीनतम कविता है। इस कविता में रस है, प्रीति है, अस्तित्व का ज्ञान गान है। ऋग्वेद के रचनाकाल में ज्ञान और काव्य अलग-अलग नहीं है। तब सत्य और सौन्दर्य साथ-साथ हैं। ऋग्वेद के अनुसार पूर्वकाल में धरती आकाश भी मिले हुए हैं। दोनों का संयुक्त नाम 'रोदसी' है। पति-पत्नी का साझा नाम 'दंपति' है। अनेक विद्वानों ने लक्ष्य किया है कि पति- पत्नी को मिलाकर दंपति जैसा साझा नाम अन्य भाषाओं में नहीं है। ऋग्वेद का नासदीय सूक्त सुंदर कविता है। उस समय तक उपलब्ध सृष्टि सृजन की धारणा नासदीय सूक्त में है। रात, दिन, जीवन-मृत्यु और वायु सृष्टि के पूर्व नहीं थे। तब सृष्टि का संपूर्ण जड़-चेतन एक बिन्दु पर केन्द्रित है। यह कथन विज्ञान है। भाव पक्ष यह है कि 'वह एक' वायुहीनता की स्थिति में स्वयं की क्षमता से स्पंदित है। फिर वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले प्रश्न हैं कि कौन जानता है कि सृष्टि कैसे अस्तित्व में आई? फिर भाव पक्ष की शिखर ऊंचाई है कि परम आकाश में बैठा सृष्टि अध्यक्ष भी यह सब जानता है कि नहीं जानता? कौन जानता है? यहां जिज्ञासा है। न जानने की प्यास भी है।
कविता और विज्ञान की प्रीति से ऐसे ही छंद उगते हैं। तब दोनों की प्रणय लीला में कविता मंत्र बन जाती है। जल सृष्टि सृजन का मूल है। वैज्ञानिक भी यही बताते हैं। ऋग्वेद में इसी वैज्ञानिक तथ्य को बहुत सुंदर काव्यात्मक शैली में गाया गया है। जल यहां विश्व को जन्म देने वाली माताएं हैं - मातृतमा विश्वस्य स्थातुर्जगतो जनित्री। (6.50.7) वैज्ञानिक विवेचन में जल रस है, रसायन है, पदार्थ है। लेकिन ऋषियों के भाव बोध में यह माता है। जल से सभी जीवों का प्रेम सम्बंध है। प्रेम की अभिव्यक्ति कविता है लेकिन विज्ञान भी साथ-साथ है। सृष्टि का उद्भव जल से जुड़ा हुआ है। 'जल माताएं' भी हैं। इसलिए माताओं से संरक्षण की प्रार्थना है। जल आकाश से आते हैं। नदियों में प्रवाहित है। ऋग्वेद में कहते हैं, जो जल भूमि खोदने से प्राप्त होते हैं, ऐसी स्वयं प्रवाहमान जलमाताएं हमारी रक्षा करें- आपो देवीरिह मामवंतु। ऋग्वेद में एक पूरा सूक्त (10.9) जल से स्तुति है 'हे जल देव! आप सुखों के मूल स्रोत हैं। आप पोषक रस दें। जैसे माताएं बच्चों को दूध पिलाती हैं, आप हमे वैसे ही रस पोषण दें।' (वही 1 व 2) यहां ज्ञान और कविता साथ साथ हैं। आगे कहते हैं 'आप संरक्षक औषधियां (वनस्पतियां) प्रदान करें। हम निरोगी रहें, दीघार्यु प्राप्त करें।' यहां जल का विज्ञान है लेकिन आगे सदाचरण की स्तुति है। कहते हैं 'आप हमारे अंतःकरण के द्वैषभाव व विकार दूर करें। हमें पवित्र करें।' (वही 8) यहां लोकमंगल से जुड़ी कविता है।
सृष्टि सृजन की जानकारियों पर वैज्ञानिक व ऋग्वेद के ऋषि लगभग एक मत हैं। दोनों के कथन का ढंग स्वाभाविक ही भिन्न-भिन्न है। भौतिक विज्ञान के बिंग बैंग सिद्धांत के अनुसार महाविस्फोट हुआ था। विस्फोट की ऊर्जा से ऊर्जाकण सब तरफ फैल गए थे। ऋग्वेद के अनुसार सृष्टि के पहले देवता नहीं थे। सृष्टि प्रकट हुई तो देवता प्रकट हुए। देवता प्रकृति की सूक्ष्म शक्ति हैं। जैसे वैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार ऊर्जाकण तीव्र गतिशील हुए, वैसे ही ऋग्वेद के अनुसार देवों के नर्तन से तीव्र रेणु प्रकट हुए- 'नृत्यभिव तीव्र रेणुर पायत।' (10.72.6) देवता और नृत्य शब्द का प्रयोग काव्यात्मक है। कविता है। शेष तथ्य वैज्ञानिक है। ऋग्वेद दुनिया का पहला ज्ञान-गान है। ऋग्वेद में विश्वामित्र के सूक्त में नदी और ऋषि का संवाद है। नदी से वार्ता को वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता। लेकिन ऋग्वेद की कविता कपोल कल्पना नहीं है। विश्वामित्र नदी तट पर हैं। नदी उफनाकर बह रही है। विश्वामित्र ने नदी से कहा 'आप नीचे होकर बहें। हम आपके उस पार जाना चाहते हैं।' उन्होंने नदी की स्तुति की। नदी ने कहा कि 'आप हमारी प्रशंसा न करें। हम वैसे ही झुककर नीचे जाते हैं जैसे माता स्तनपान कराने के लिए अपने शिशु के ऊपर झुक जाती है।' यहां काव्य-भाव का चरम है। नदी प्रवाह सत्य है। वैज्ञानिक तथ्य भी है और नदी का माता की तरह झुकने का आश्वासन है भावप्रवण कविता।
विश्वामित्र ऋग्वेद के अनेक मंत्रों के द्रष्टा कवि हैं। वे वैदिक काल में थे। ऋग्वेद साक्ष्य है। वे रामकथा में हैं और पुराणों में भी। विश्वविख्यात गायत्री मंत्र 'तत्सवितुर्णरेण्यं' के द्रष्टा कवि ऋषि भी वही हैं। भारतीय परंपरा ने विश्वामित्र को अनवरत प्यार दिया। विश्वामित्र ऋग्वैदिक काल में ही संस्था हो गए थे। वे ऋग्वेद में ब्रह्मेदं-तत्ववेत्ता हैं। उनके सूक्त मंत्र काव्य भारत जनों के संरक्षक हैं- विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनं। (3.53.12)
ऋग्वेद का काव्य विश्वमानवता का प्रथम इतिहास है। इस काव्य में ऋग्वेद के उदय के पूर्व का इतिहास बोध है। काव्य सृजन अन्य देशों में भी हुआ है। वह भी आदरणीय है लेकिन प्रकृति के अंतरंग रहस्यों पर काव्य सृजन का ऋग्वेद जैसा उदाहरण अन्यत्र नहीं है। यह बुद्धि से बुद्धि का संवाद है लेकिन जिज्ञासा बनी रहती है। लेकिन यह हृदय से हृदय का संवाद भी है। ऐसे संवाद को कविता कहने से बात पूरी नहीं होती। इसीलिए यह ऋचा है और आनंदवर्द्धन ज्ञानवर्द्धन मंत्र भी। यहां कविता का चरम ही मंत्र है। प्रत्येक कविता मंत्र नहीं होती। लेकिन प्रत्येक मंत्र कविता होता है। ऋग्वेद कविता के मंत्र हो जाने का ज्ञान गान है।
(लेखक उत्तरप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।)