भारत में ही कविता धर्म का भाग

अस्तित्व एक इकाई है। भारतीय दर्शन में इस अनुभूति को अद्वैत कहते हैं। अस्तित्व में दो नहीं हैं। यह एक है। यही एक भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होता है। ऋग्वेद के ज्ञान सूक्त में कहा गया है कि हमें पहले रूप दिखाई पड़ते हैं। हम प्रत्येक रूप का एक नाम रखते हैं। रूप नाम जोड़कर परिचय बनता है, लेकिन यह पूर्ण अस्तित्व एक है। उपनिषद ने उस एक को ब्रह्म कहा। ऋग्वेद के एक ऋषि ने उसका नाम अदिति कहा है। एक ने पुरुष भी कहा है। अदिति संपूर्ण दिक् काल को आच्छादित करती हैं। ऋग्वेद का कवि कहता है, धरती अंतरिक्ष अदिति है। माँ-पिता अदिति हैं। जो पीछे हो गया और जो आगे आने वाला है, वह सब अदिति ही है। पुरुषसूक्त में बताते हैं कि जो अब तक हो गया और आगे होने वाला है वह सब पुरुष है। अर्थात् एक है। अस्तित्व हमारे सामने है। आकाश ऊपर है। हम धरती पर खड़े हैं। अस्तित्व की अनंत अभिव्यक्ति है। अस्तित्व की अभिव्यक्ति पक्षियों के रूप में, फूलों कलियों के रूप में, आकाश, धरती के रूप में, नदी के रूप में, पर्वत के रूप में है। कवि की अनुभूति किसी एक रूप के प्रति होती है। रूप दिखाई पड़ता है। हमारी संवेदना को झकझोरता है।

अस्तित्व विराट है। इसी में मनुष्य जगत है। मनुष्य के इतर भी अन्य जगत हैं। अन्य प्राणी भी हैं। संपूर्णता ही रूप-रूप प्रतिरूप हैं। ऋग्वेद का कवि इंद्र के बारे में कहता है कि यह एक इंद्र है। यही रूप-रूप प्रतिरूप होता है। यही बात उत्तर वैदिक काल में कठोपनिषद् का ऋषि नचिकेता से कहता है - एक अग्नि ही रूप प्रतिरूप प्रकाशित है। भारतीय चिंतन, दर्शन में पांच महाभूत हैं। क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर। हमारे भीतर सारे भूत उपस्थित हैं। जागृत बोध में ये पाँच महाभूत भीतर अनुभूत भी हो जाते हैं। अनुभूत होते ही पूरा अस्तित्व बदल जाता है। गीत या काव्य जैसा। ईशावास्योपनिषद् का ऋषि कहता है; वह बहुत दूर है। बहुत निकट है। गतिशील है। चलता है। नहीं चलता है। मनुष्य जन्म के समय से ही अपनी भावना को प्रकट करता रहता है। सबको अपनी रुचि की अभिव्यक्ति वाला भाव अच्छा लगता है।

छात्र जीवन में मुझे कविता नहीं अच्छी लगती थी। मित्र कहते थे कि चलिए कवि सम्मेलन है। उन्नाव में कवि सम्मेलन था। हम छात्र लोग दूर खड़े थे। कवि डॉक्टर शिव बहादुर सिंह भदौरिया जी ने नदी वाली कविता सुनाई। पहली बार कविता मेरे भीतर गई। तब तक हमने रामचरितमानस अखंड रामायण में बैठकर ही पढ़ा था लेकिन मानस के शब्द तब तक मेरे अंतस्थल में अपना रैन बसेरा बनाने में सफल नहीं हुए थे। शब्द भीतर रहते हैं। कुछ शब्द बाकी शब्दों को धक्का देकर अपनी जगह बनाते हैं। हम अध्ययन करते थे। अध्ययन करते हुए समझ में आया कि भारत का धर्म, भारत की रीति, भारत की प्रीति, भारत का ज्ञान, भारत का विज्ञान, भारत के कर्मकांड सब कुछ भारत में कविता में ही गाए गए। गद्य में नहीं।

मैंने बहुत गद्य लिखा। 25-26 किताबें लिखी। कविता एक भी नहीं लिखी। भीतर से संगीत सुनाई पड़े तभी कविता। मेरे भीतर ऐसी अनुभूति नहीं आई। जो कुछ भी हुआ वह मस्तिष्क के तल पर हुआ। मस्तिष्क का काम ही है तर्क करना। मैंने इसी धारा में लिखने का काम किया लेकिन कविता नहीं उगी। कविता में ही भारत का धर्म मार्ग बना। अन्य किसी भी देश में कविता धर्म का भाग नहीं है। ऋग्वेद में कविता का घनत्व गाढ़ा है। वैदिक कविता प्राणवान है। काव्य रस का महा-आशय है। कविता या गीत पर्याप्त है। नवगीत आदि की व्याख्या अलग बात है। छायावाद, गीत, नवगीत आदि विभाजन काव्य संसार को विभाजित करते हैं। सौन्दर्य तोड़ने से गायब हो जाता है। हम जानते हैं कि ऋग्वेद से लेकर अब तक और आज के कवि और सृजनकर्ता किसी ना किसी रूप में भारत बोध को ही अपना विषय बना रहे हैं।

ऋग्वेद में ऋचा कविता है। ऋचा को लेकर भी एक कविता है। इसमें प्राण है। अन्य कविताओं में भी प्राण है। ऋग्वेद का ऋषि कहता है कि ऋचाएं परम व्योम में रहती हैं। वह परम में रहती है। परम के भीतर जहाँ देवता रहते हैं वहां। बड़ी मजेदार बात है कि कविता रहती है देवताओं के साथ। उससे मजेदार बात यह है कि वह इस धरती पर जागते हुए लोगों के चित्त में उतरने की कामना रखती है। इसका क्या मतलब हुआ? मतलब यह हुआ कि ऋचा परम में रहती है। वहाँ देवता रहते हैं। देवता जहाँ-जहाँ होंगे वहाँ सब सुविधाएं होती हैं। देवता हमारे यहाँ पहले से बहुत आदरणीय रहे हैं। वहाँ रहती हैं ऋचाएं लेकिन उनको देवता पसंद नहीं है। जागृत भाव वाले धरती के लोग उन्हें पसंद हैं। कविताएं आकाश में फैली हैं। ऋग्वेद के ऋषियों ने देखा। उन्हें मंत्र दृष्टा कहा गया।

सृष्टि का विकास सूक्ष्म से स्थूल की ओर हुआ है। यह सृष्टि वापस होगी, तो स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाएगी। आकाश का गुण दर्शन में शब्द बताया गया है। सूक्ष्म आकाश का विकास वायु में होता है। ऋग्वेद के ऋषि वायु के प्रति आश्चर्य प्रकट करते हैं। कहते हैं आपको नमस्कार। आप दिखाई नहीं पड़ते, लेकिन छूकर निकल जाते हैं। वायु को अपने पूर्वज आकाश से शब्द गुण मिला है। स्पर्श गुण उसका है। उससे स्थूल अग्नि। अग्नि का गुण ताप है। अग्नि को अपने पूर्वजों से शब्द स्पर्श गुण भी मिले हैं। शब्द गुण आकाश से आया है। फिर जल है। उसे अग्नि से ताप गुण मिला है। वायु से स्पर्श, आकाश से शब्द, लेकिन उसका गुण रस है। फिर पृथ्वी पाँचवीं है और स्थूल है। इसका गुण गंध है। कविता को महकना चाहिए। कविता में रस चाहिए। रस जल से संबंधित है। शब्द भी चाहिए उसके लिए आकाश से संवाद जरूरी है। भावों की अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त शब्द प्रयोग जरूरी है। यह सब प्यार से मिलते हैं। शब्द लहकते हैं। यही कविता है। प्रेय की अभिव्यक्ति कविता है। भारत की कविता के 3 घटक हैं - प्रेय, श्रेय और गेय। श्रेय लोकमंगल है। भारत की कविता को श्रेय के लिए प्रकट होना चाहिए। उसे गेय होना चाहिए। अर्थात् उसकी शब्द संपदा भाव सहित बहुत दूर-दूर चलती रहनी चाहिए।

भारत का आयुर्वेद, न्याय शास्त्र, वैदिक साहित्य, भारत का सारा ज्ञान, प्राचीन और उत्तर वैदिक काल, उसके बाद का भी सब कुछ कविता है। अच्छे लोगों की राजनीति भी कविता होती है। जैसे अटल बिहारी वाजपेई जी की। अच्छे पति भी अपने परिवार में, अपने जीवन सम्बंधों में कविता सृजित करते हैं। अच्छे अध्यापकों का पढ़ाना भी सुंदर कविता है। इस संसार का सब कुछ चरम पर अपनी सुंदरता में, सत्य और शिव में कविता है। कविता हाईएस्ट डिग्री है अभिव्यक्ति की। फूल खिलें। पूरी आभा में खिलें। अपनी संपूर्णता में। अपने चरम पर खिल जाएं, तो कविता। हम-आप भी अपनी पूरी आभा में, पूरे प्राण में होते हैं, तब कविता। तब भाषा प्रियतमा हो जाती है। कभी-कभी अनायास हमारे-आपके जीवन में आनंद का क्षण खिलता है। हम परिपूर्ण होकर आनंद मगन होते हैं। न क्लेश। न सुख, न दुःख। हमें इनके आगे जाना है, हमारा मन परिपूर्ण हो जाए। नाचने का मन करे। हमारा मन आनंदित हो जाए। मन पुलकित हो जाए। आह्लादित हो जाए। तब कविता। हम आप सब कविता हो सकते हैं। सर्वोत्तम जीवन की सर्वोत्तम गंध, जीवन के सर्वोत्तम शब्द। जीवन का सर्वोत्तम सुख। सर्वोत्तम आनंद। तैतरियोपनिषद् के ऋषि ने कहा था कि परम सत्ता रस है। शब्द जीवन को मधुरस से भर दें, तब कविता। (हिंस)

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)

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