प्रसंगवश : भारत राष्ट्र नही तो क्या है राहुल जी!
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'भारत एक राष्ट्र नही है'लोकसभा में राहुल गांधी का यह बयान उनकी भारत के प्रति समझ को लेकर उठने वाले सवालों और संदेह को फिर प्रमाणित कर गया। जिस संविधान के हवाले से राहुल ने राष्ट्र के रूप में भारत को खारिज किया है वही संविधान राष्ट्रीय एकता और अखंडता के तमाम प्रावधानों एवं आह्वानों से भरा पड़ा है लेकिन राहुल गांधी को शायद इनकी समझ ही नही है।उनका राजनीतिक दुराग्रह राष्ट्र शब्द को लेकर इतना कलुषित हो चुका है कि वे अब राष्ट्र की अवधारणा को ही मानने के लिए तैयार नही है।
संविधान के भाग एक में लिखा है 'भारत अर्थात इंडिया,राज्यों का संघ होगा। राहुल गांधी इस विषय को अमेरिकी संघीय व्यवस्था के साथ जोड़कर राष्ट्र अवधारणा को खारिज करने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि अमेरिका में फेडरेशन ऑफ स्टेट के तहत राज्यों ने एक अनुबंध कर संयुक्त राजअमेरिका को बनाया है।वहाँ सभी राज्य सम्प्रभु है लेकिन भारत मे ऐसा नही है डॉ बीआर अंबेडकर ने भारत को 'फेडरेशन ऑफ स्टेटस' के स्थान पर 'यूनियन ऑफ स्टेटस' रखने के दो कारण बताए थे पहला भारत अमेरिकी राज्यों के आपसी एग्रीमेंट का कोई फेडरेशन या संघ नही है, दूसरा भारत के किसी राज्य देश से अलग होने का अमेरिका की तरह अधिकार नही है।संविधान के जिस भाग का उल्लेख राहुल गांधी कर रहे है उसी संविधान की प्रस्तावना में लिखा है कि "राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए ...."।
प्रस्तावना संविधान की आत्मा है और यहां राष्ट्र शब्द साफ साफ लिखा हुआ है इसलिए राहुल अगर भारत को राष्ट्र नही मानते है तो उन्हें बताना चाहिये कि आखिर इन शब्दों का क्या अर्थ है?भारत अगर राष्ट्र नही है तो उन्हें यह भी बताना चाहिये कि महात्मा गांधी को वे राष्ट्रपिता कैसे स्वीकार करते है?सच्चाई यह है कि भारत राष्ट्र के रूप में एक कालजयी अवधारणा है।अटल जी ने कहा था कि भारत कोई जमीन का टुकड़ा नही है यह एक जीवित राष्ट्र है,हजारों बर्षों से भारत एक राष्ट्र के रूप में सभ्यता की चेतना का स्थाई तत्व रहा है,इतिहास के किसी भी कालखंड में भारत की राष्ट्रीय अवधारणा तिरोहित नही की जा सकी है।जिस संवैधानिक शब्दावली का सहारा लेकर राहुल भारत को राष्ट्र के तौर पर नकार रहे है उसी संविधान को उनकी दादी ने बंधक बनाकर आपातकाल और प्रस्तावना को बदलने के अक्षम्य पाप कारित किये है।इंदिरा जी के तानाशाह आचरण ने संविधान में जिस सेक्युलरिज्म को स्थापित किया है उसकी दूषित उपज आज संसदीय राजनीति में खरपतवार की तरह खड़ी है।
सेक्युलरिज्म की इस राजनीति ने राष्ट्र और राष्ट्रवाद के विरुद्ध एक सशक्त वातावरण खड़ा किया जो राष्ट्र की उस एकता और अखंडता को चोट करता रहा है जिसे संविधान ने सबसे पवित्र माना है।संसदीय राजनीति में राष्ट्र की स्वीकार्यता के बढ़ते फलक ने राहुल गांधी को राजनीतिक रूप से विपन्न कर दिया है।ताजा बयान यह भी प्रमाणित करता है कि राहुल के नेतृत्व वाली इस पार्टी के लिए उन सभी शब्दों और आग्रहों से नफरत हो चुकी है जो भाजपा और मोदी से किसी भी तरह से संयुक्त है।राष्ट्र की कालजयी और मृत्युंजयी संस्कृति को नकारने के पीछे राहुल की मानसिकता को राजनीतिक दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता भी है।
असल में राष्ट्र शब्द के साथ भारत की संस्कृति का अकाट्य संबंध है और राहुल की पूरी राजनीति संस्कृति के उलट ही रही है वे हिन्दू, हिंदुत्व और हिन्दूवादी को लेकर जिस प्रतिक्रियावादी मानसिकता से बातें करते है उसके मूल को समझने का प्रयास करें तो स्पष्ट होता है कि वे उस राष्ट्र तत्व की मार से पीड़ित है जो पिछले कुछ दशकों में भारत की चुनावी राजनीति में राष्ट्रीयता के तौर पर उभरकर आई है।वस्तुतः राष्ट्र और भारत एक ही है ,जिसे सेक्युलरिज्म औऱ तुष्टीकरण की राजनीति ने लंबे समय तक अलग अलग बनाये रखा है।कांग्रेस और राहुल दोनों इस राष्ट्रभाव के आगे लगातार राजनीतिक रूप में पिट रहे है। वे राजनीतिक लाभ के लिए भारत के राष्ट्र स्वरूप को खारिज कर प्रांतवाद और अल्पसंख्यकवाद को जिंदा करना चाह रहे है।
लोकसभा में तमिलनाडु, सिक्किम, जम्मू कश्मीर का जिस भाव के साथ उन्होंने जिक्र किया है उसके बहुत ही खतरनाक निहितार्थ है। वे यह सन्देश देने की कोशिश कर रहे है कि राज्यों को केंद्र के प्रति एक अलगाव का रुख अपनाना चाहिए! यह संवैधानिक रूप से भी एक खतरनाक आह्वान है क्योंकि भारत का यूनियन होने का मतलब यह नही है कि कोई राज्य भारत से अलग हो सकता है। जिस भाव से इस बात को उठाया गया है अगर यह प्रांतवाद और अलगाव नही है तो क्या है ? कभी देश की स्वाभाविक शासकर ही कांग्रेस की यह वैचारिक कृपणता भारत के संसदीय लोकतंत्र के लिये भी बड़ा खतरा है।बेहतर हो राजस्थान में हिन्दू होने का दावा करने वाले राहुल अपने दत्तात्रेय ब्राह्मण गोत्र पर अमल करते हुए संस्कृति और भारत को भी समझने की कोशिश करें।
वस्तुतः राष्ट्र ही वह अमूर्त चेतना है जो हजारों सालों से भारत की विविधवर्णी संस्कृति को एक इकाई के रूप में जीवित रखती है। सरकार और सत्ता तो आती जाती रहती है अटल जी ने इसी लोकसभा में कहा था कि सरकारें आएंगी जायेंगी लेकिन राष्ट्र बना रहना चाहिये।अपनी अगली विदेश यात्रा में राहुल गांधी किसी अंग्रेजी उपन्यास की जगह"जम्बूदीपे भारतबरषे ...को पढ़ने की कोशिश करेंगे तो उन्हें राष्ट्र और भारत शायद समझ आ जाये।