ठोकरें खाकर न संभले तो फिर ये जनता का नसीब, वर्ना पत्थरों ने अपना फर्ज निभा ही दिया

ठोकरें खाकर न संभले तो फिर ये जनता का   नसीब, वर्ना पत्थरों ने अपना फर्ज निभा ही दिया
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सुबोध अग्निहोत्री - प्रसंगवश

लगभग 75 घंटे बीत जाने के बाद भी अभी तक किसी मंत्री को कोई विभाग न मिल पाना कांग्रेस की हताशा को प्रदर्शित करता है। प्रदेश की जनता समाचार-पत्रों, न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर नजरें गढ़ाए इस बात का इंतजार कर रही है कि किस मंत्री को कौन सा विभाग मिला। अफसोस! कि अभी तक गुटीय राजनीति के चलते सारे मंत्री हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। कमलनाथ जी एक लाचार मुख्यमंत्री के रूप में नजर आ रहे हैं। विभागों का बंटवारा यूं तो मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार होता है परंतु यहां तो सत्ता की छीना-झपटी मची हुई है। कौन सा विभाग कौन हथियाए। इसी ऊहा-पोह में कांग्रेस के वे दिग्गज लगे हुए हैं जो चुनाव से पहिले एकता का राग अलाप कर गलबहियां डाले घूम रहे थे। आज वे मलाई वाले विभागों को लेकर एक-दूसरे पर दबाव बना रहे हैं। सारे नेता अच्छे विभागों में अपने मोहरों को काबिज करने में लगे हैं। ऐसे में चुस्त प्रशासन का दावा करने वाले मुख्यमंत्री सारा मामला दिल्ली दरबार को सौंप रहे हैं। विचारणीय प्रश्न हैं कि जब टिकटों की मारामारी में दिल्ली को निर्णय लेना पड़े, मुख्यमंत्री दिल्ली में तय हो। कैबिनेट का गठन भी तीन से चार दिन में कांग्रेस का नेतृत्व ही करेगा और मंत्रियों के विभागों का वितरण भी दिल्ली से ही होना है तो फिर क्या सरकार भी दिल्ली से ही चलेगी। प्रदेश की जनता असमंजस में है। कभी कमलनाथ को देखती है, कभी दिग्विजय सिंह को तो कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया को। कांग्रेस जिस दिखावी एकता को आधार बनाकर, जनता में परिवर्तन का भ्रम फैलाकर सत्ता के जादुई आंकड़े के करीब तो पहुंची पर वह उन कहारों को भी भूल गई जिन्होंने डोली को सत्ता के दरवाजे तक पहुंचाया। रंगमंच में सूत्रधार अपना काम बखूबी कर रहे हैं और सत्ता की बंदरबांट में कथित एकता चकनाचूर हो रही है।

यूं तो कांग्रेस की कथित एकता में फूट की लकीरें टिकट वितरण से ही प्रारंभ हो गई थीं। मंच के नायक रंगमंच की साज-सज्जा में ही लगे रहे तब तक नेपथ्य से आकर राजा साहब ने रंगमंच पर ही कब्जा कर लिया। यहां तक भी ठीक था। फिर परिणाम आए 11 दिसम्बर को। बहुमत किसी को नहीं मिला पर संख्या बल के आधार पर कांग्रेस को वह संजीवनी मिली जिसका उसे पन्द्रह साल से इंतजार था। तमाम माथापच्ची और रस्साकशी के बीच एकता उधडऩे लगी और वही हुआ जिसका आम आदमी को अंदेशा था। ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनों के द्वारा, अपनों के बीच, अपनों से ही छले गए-यह लोकतंत्र की वास्तविक परिभाषा भी है। कमलनाथ के सिर पर मौर बांधने का काम नेपथ्य में रहकर राजनीति के चतुर खिलाड़ी द्वारा किया गया। जैसे-तैसे मंत्रिमण्डल तो कांग्रेस ने बना लिया लेकिन जिन बैसाखियों पर कांग्रेस टिकी है उसे भी तवज्जो देना कांग्रेस ने उचित नहीं समझा और फिर....

नामकरण कुछ और खेल का, खेल रहे दूजा।

प्रतिभा करती गई, दिखाई लक्ष्मी की पूजा।।

उधर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही विवेक तनखा ने अपने चहेतों को उपकृत करने के अनुक्रम में जबलपुर, दिल्ली, इंदौर व ग्वालियर में अपने साथियों की नियुक्तियां करा दी। रातों रात प्रशासनिक अफसरों के तबादले ऐसे हुए जैसे वे कलेक्टर नहीं भाजपा के एजेंट हों।संतरे की तरह ऊपर से एक दिखने वाले कांग्रेसी सत्ता हाथ आते ही अपनों को उपकृत करने में लग गए। इस उठा पटक में वे यह भी भूल गए किसे केबिनेट मंत्री बनाना है और किसे राज्यमंत्री। एक ओर से सभी 28 मंत्रियों को कैबिनेट की शपथ दिला दी गई। न वरिष्ठता को देखा गया और न कनिष्ठता को। दो बार के मंत्री भी केबिनेट मंत्री और चार, पांच, छह, सात बार जीतने वाले भी केबिनेट मंत्री। मंत्रिमण्डल के गठन के बाद से सपा, बसपा, जयश, निर्दलीय तो रूठकर बैठे ही है। साथ ही कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक भी अपने क्रोध को शांत नहीं कर पा रहे हैं। आदिवासी नेता बिसाहूलाल सिंह रो-रो कर कह रहे हैं कि मुझे विधायक नहीं रहना तो केपी सिंह और ऐंदल सिंह भी अपनी ताल ठोक कर खड़े हो गए हैं। नकली एकता और गलबहियों का छद्म स्वरूप अब जनता को अपनी पैनी नजर से भरपूर देखने को मिल रहा है।

अब लोकसभा चुनाव की भैरवी बज चुकी है। जनता को निर्णय लेना है, कि सत्ता की बंदरबांट में निमग्न नेताओं से आखिर जनता ही छली जाना है।

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