दर्शन का मूल उद्देश्य विश्व में 'आनंद'

संसार हमारा आश्रय है। हम संसार के भाग हैं और संसार में हैं। इसका ज्ञान स्वाभाविक ही सामान्य जिज्ञासा है। संसार को समझने में दर्शन और विज्ञान की भूमिका है। इनमें न्याय और वैशेषिक दर्शन महत्वपूर्ण हैं। 'न्याय' का आधार संशय, तर्क, प्रमाण और अनुमान आदि उपकरण हैं। संसार को नैतिक बनाना दर्शन का उद्देश्य नहीं। दर्शन नीति शास्त्र नहीं है। नीति शास्त्र सामाजिक नियमन की आचार संहिता है। दर्शन का मूल उद्देश्य संसार समझना और विश्व को आनंद से भरना है। उपलब्ध विज्ञान के तथ्य दर्शन के मुख्य उपकरण बनते हैं। न्याय दर्शन में ज्ञान यात्रा के 16 मजेदार सूत्र हैं। प्रमाण पहला है। ज्ञान का विषय या 'प्रमेय' दूसरा है। संशय तीसरा सूत्र है। प्रयोजन चौथा है। पांचवा दृष्टांत है। छठा सिद्धांत या सर्वमान्य सत्य है। सातवां 'अवयव' और आठवां तर्क है। नौवां निर्णय है। दसवां वाद विवाद है। 11वां निरर्थक कथन या जल्प है। 12वां वितण्डा या खण्डशः आलोचना है। 13वां दोषपूर्ण युक्ति या हेत्वाभास है। 14वां 'छल' और 15वां जाति है। डाॅ. राधाकृष्ण ने न्यायदर्शन की व्याख्या में जाति का अर्थ 'निरर्थक' बताया है। सूची में बाद के 7 सूत्र भ्रममूलक ज्ञान को काटने के लिए हैं, जबकि प्रथम 9 का सार तर्क और ऐसे ही उपकरण हैं।

सभी सूत्र अंधविश्वास से मुक्त हैं। भारतीय चिंतन अंधविश्वासी नहीं है। न्याय और वैशेषिक विश्व को सूक्ष्मता में जांचते हैं। वैशेषिक नाम 'विशेष' का ही बोधक है। इस दृष्टि में सभी पदार्थों व परमाणुओं में विशेष पृथकत्व है। आत्मा की सत्ता को द्रव्य रूप में बताया गया है। इस मत में जीवात्माएं अलग अलग हैं। परमाणु और आत्मा पृथक हैं। यह दर्शन सृष्टि को एक सत्ता नहीं मानता। वैशेषिक दृष्टि का आधार विश्लेषण है। इस दर्शन को कणाद ने सूत्रबद्ध किया था। इसमें द्रव्य, गुण, क्रिया, सामान्य तथा विशेष पांच पदार्थों का विवेचन है। यहां आत्मा, मन, इन्द्रिय विषय और अनुमान का भी विश्लेषण है। इसके अनुसार विश्व की रचना परमाणुओं ने की। विवेचकों का कहना है कि वैशेषिक सूत्र न्याय सूत्र से पहले रचे गए थे। इन्हें 300 ई. पूर्व के आसपास का माना जाता है। कौटिल्य ने आन्वीक्षकी में वैशेषिक का उल्लेख नहीं किया। ये कौटिल्य के बाद माने जा सकते हैं। संभव यह भी है कि कौटिल्य को ये सूत्र महत्वपूर्ण न लगे हों। लेकिन चरक संहिता में वैशेषिक को महत्व मिला है। जैसे आयुर्वेद का वेद अथर्ववेद है, वैसे ही वैशेषिक आयुर्वेद का दर्शन है।

वैशेषिक और न्याय दोनों में तर्क की महत्ता है। ज्ञान तर्क की समस्या है। तर्क से निस्संदेह ज्ञान मिलता है, लेकिन तर्क अंतहीन होते हैं। 'द्रव्य' इस दर्शन का आधार है। तर्क और संदेह की विवेचन प्रणाली न जानने वाले साधारण जन भी द्रव्य से परिचित हैं। द्रव्य एक तथ्य है। इसका प्रमाण है। इस दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, समय, दिशा, आत्मा और मन नौ द्रव्य हैं। इन नौ में पृथ्वी, जल, वायु, आत्मा और मन इनके अनेक रूप हैं। आकाश, दिक् और काल सर्वव्यापी हैं। धर्म के सम्बन्ध में वैशेषिकों का मत रोचक है, "यह स्वरूप से इन्द्रीयतीत कहा गया है। सत्य का ज्ञान धर्म का अंत करता है।" धर्म से अभ्युदय होता है, लेकिन मुक्ति नहीं मिलती। मुक्ति के लिए धर्म का नष्ट हो जाना जरूरी बताया गया है। धर्म अपरिमित नहीं है। धर्म की अति उन्नत अवस्था भी स्थाई शान्ति नहीं देती। पूर्ण ज्ञान में ही स्थाई सुख है। धर्म भारतीय जीवनशैली है। इसका अनुपालन तमाम सुख देता है। वैशेषिक दर्शन की यह स्थापना उचित है कि धर्म असीम नहीं है। सत्य बोध धर्म से बड़ा है।

उपनिषद् साहित्य में भी धर्म और अधर्म से ऊपर स्थित तत्व की अभिलाषा है। वृहदारण्यक उपनिषद् में सीधे धर्म को ही सत्य बताया गया है। भारतीय धर्म का विकास सत्य के अनुसंधान का फल है। इस अनुसंधान में न्याय दर्शन व वैशेषिक सहित सभी दर्शनों की भूमिका है। भारत का धर्म विश्वास या पंथ नहीं है। यहां सत्य शोध और बोध जीवन मार्ग है। कणाद के दर्शन में ईश्वर का उल्लेख नहीं है। कणाद वेदों को ईश्वर प्रदत्त नहीं मानते थे। वे वैदिक सूक्तों को ऋषियों की रचना जानते थे। वेदांत सूत्रों के भाष्य में शंकराचार्य ने कहा है कि "वैशेषिक दर्शन में ईश्वर का स्थान नहीं है।" न्याय दर्शन में भी ईश्वर का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है। तब भूत, भविष्य और वर्तमान के अस्तित्व पर भी रोचक विवाद थे। एक पक्ष के अनुसार भूत और भविष्य से अलग वर्तमान की सत्ता नहीं है। भूतकाल की परिभाषा की गई कि वह वर्तमान के पहले आता है। इसी तरह भविष्य वर्तमान के बाद आता है। इसलिए भूत और भविष्य से अलग वर्तमान का कोई अस्तित्व नहीं है। तर्क में एक वस्तु के गिरने का उदाहरण था। वस्तु गिरती है। दूरी पार करने में थोड़ा समय लगा है। शेष दूरी में उसे थोड़ा समय और लगेगा। पार की गई दूरी भूतकाल है, शेष बची दूरी भविष्य। इसमें वर्तमान नहीं है। वात्स्यायन ने न्याय सूत्रों के भाष्य में इसका स्पष्टीकरण दिया है। उनका कहना है कि ऐसा दिक्काल के मिश्रण से दिखाई पड़ता हैं। वात्स्यायन का तर्क है कि काल की अभिव्यक्ति दूरी से नहीं क्रिया से होती है। वस्तु का गिरना बंद हो जाना भूतकाल है। वस्तु के गिरने की क्रिया होने वाली होती है तब भविष्यकाल है। जब वस्तु गिर रही है, गिरने की प्रक्रिया जारी है तब वर्तमान काल है। गिरते समय वस्तु का सम्बंध क्रिया से है। वात्स्यायन कहते हैं कि क्रिया रूप वर्तमान न होता तो क्रिया समाप्ति का खण्ड भूत न होता और आगे क्रिया जारी रखने वाला भविष्य भी नहीं होता।

भारतीय दर्शन ने इस उपमहाद्वीप के लोगों की सोंचने की शैली पर प्रभाव ड़ाला। राष्ट्रजीवन तार्किक होता रहा। अंधविश्वास को प्रमाण और तर्क से काटने की परंपरा का विकास हुआ। दर्शन का अध्ययन बेशक रूखा होता है लेकिन यह हमारे मस्तिष्क को बार-बार किसान की तरह जोतता है। मस्तिष्क उर्वर बनता है। पूर्वजों ने यह कठिन श्रम सत्य की खोज के लिए ही किया था। हम भारतवासी परस्पर बातचीत में अपनी बात ही सही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। ईश्वर आस्थालु भी अपनी बात के समर्थन में तमाम तर्क देते हैं। वे ईश्वर पर ही सब कुछ नहीं छोड़ते। अपनी समझ को ही उचित ठहराते है। ऐसी प्रकृति आधुनिक काल की ही देन नहीं है। सोच, विचार विवेचन हम भारतवासियों को पूर्वज पंरपरा से ही मिले हैं। इस्लाम के भारत में आने के बाद हमारी सोच में ईश्वर विषयक धारणा में थोड़ा परिवर्तन हुआ। भारतीय विचार का ईश्वर करूणानिधान दयानिधान कहा जाता था। इस्लाम आने के बाद तमाम भारतवासियों का ईश्वर दण्डकर्ता भी हो गया। अंग्रेजी सत्ता के समय हमारे विचार पर ईसाइयत का प्रभाव पड़ा और परदेशी आधुनिकता का भी। भारत का सामना दो नये पंथों ईसाइयत व इस्लाम से हुआ। धर्म भारत के दर्शन का सुफल था। ईसाइयत और इस्लाम रिलीजन व मजहब थे। विदेशी विद्वानों ने भारत के धर्म को अंग्रेजी में रिलीजन कहा। भारत में भी हिन्दू, इस्लाम व ईसाइयत को क्रमशः हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म व ईसाई धर्म कहा गया।

इस्लाम और ईसाइयत का मूल विश्वास है। हिन्दू धर्म का मूलतत्व दर्शन है। दर्शन का मूल तत्व तर्क है। तर्क का मूल संशय है। चिन्तन का मूल जिज्ञासा है। न्याय व वैशेषिक दर्शन में तर्क और संशय की महत्ता है। कपिल के सांख्य, पतंजलि के योग व जैमिनी के पूर्व मीमांसा दर्शन मस्तिष्क की कोशिकाएं खोलते हैं। उपनिषद् तर्क का उपकरण लेकर विश्व सृष्टि की पड़ताल करते हैं। ब्रह्मसूत्र में एकात्म दर्शन का निरूपण है। ब्रिटिश सत्ता के दौरान मजेदार घटनाएं घटीं। हम भारतवासियों ने उनके प्रभाव में सेकुलर विचार के प्रति मोह दिखाया। अनेक यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय दर्शन की प्रशंसा की थी। सेकुलर विचार पंथिक विश्वास से अलग राजसत्ता चलाने का विषय था। भारत में पंथिक विश्वास का कब्जा नहीं था। प्राचीन भारत में 8 तार्किक विचारधाराएं थी, बावजूद इसके हमारी सोचने की शैली में यूरोपीय प्रतीकों ने काफी जगह बनाई। अच्छा हो कि हम अपने दर्शन, तर्क और संशय के आलोक में यूरोपीय धारणाओं पर पुनर्विचार करें। नए पुराने भारतीय आग्रहों को भी तर्क की मशीन से तराशने का काम करें।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार व उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

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