दिग्विजय : तुम्हें संघ से इतनी नफरत क्यों है ?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपना आदर्श मानकर, सतत प्रवाहित सनातन संस्कृति और त्याग का प्रतीक भगवा ध्वज एवं राष्ट्रध्वज तिरंगे से प्रेरणा लेकर भारत भर में लाखों की संख्या में आज स्वयंसेवक हैं जोकि सेवा के अनेक कार्यों में दिन-रात लगे हुए हैं। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन से लेकर स्वतंत्रता के पश्चात पिछले 75 सालों में अनगिनत स्वयंसेवक ऐसे हैं, जिनका संपूर्ण जीवन राष्ट्रदेव की आराधना में, भारत माता के चरणों में सेवा कार्य करते हुए उत्सर्ग हो चुका है।
कितनों को हम जानते हैं? हजारों-हजार हैं, जिन्हें न यश मिला न कीर्ति। कोई उनका नाम तक लेनेवाला नहीं बचा, किंतु भारतीय समाज, हिन्दू समाज के बीच समरसता की उनमें इस प्रकार की धुन सवार थी कि उन्होंने कभी समय नहीं देखा। बस, चलते रहे, काम करते रहे और अंत में चुपके से विदा हो लिए, लेकिन जब अपना सर्वस्व त्याग करनेवाले स्वयंसेवक एवं उनके श्रद्धा केंद्रों पर दिग्विजय सिंह जैसे नेता जूठ फैलाते हैं, तब देश भर के स्वयंसेवक उन जैसी सोच रखनेवालों से यही पूछना चाहते हैं कि आखिर तुम्हें संघ से इतनी नफरत क्यों है?
दिग्विजय जी, कम से कम सार्वजनिक मंच पर सोशल मीडिया में कोई बात लिखने के पिहले तथ्यों को ही जांच लेते, वे कितने सत्य हैं? मध्य प्रदेश में 10 वर्षों तक जो व्यक्ति लगातार मुख्यमंत्री रहा है, उनसे तो यह उम्मीद की ही जा सकती है वह सत्य साक्षी होगा । काश, दिग्विजय, संघ और संघ विचार पर लिखने या टिप्पणी देने से पूर्व थोड़ा इतिहास ही पढ़ लेते!
वे जो लिख रहे हैं या किसी किताब के पन्ने को साझा कर रहे हैं, दोनों ही स्थिति में आप देखें कि कैसे एक जूठ को समाज के बीच स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। दिग्विजय यहां वस्तुत: जूठ का नैरिटिव गढ़ रहे हैं। वो हवा दे रहे हैं उन बातों को जिससे कि हिन्दू समाज में संघ के प्रति नफरत फैलाई जा सके। जिस पुस्तक - ''we and our nationhood identified'' का हवाला दिग्विजय सिंह ने दिया है, वह कभी श्री गुरुजी द्वारा लिखी ही नहीं गई। वास्तव में उसकी ऐसी कोई पुस्तक है ही नहीं। श्री गुरुजी ने तो -''We or Our Nationhood Defined'' 'हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा' यह पुस्तक लिखी है। जिसे विशुद्ध राष्ट्रीय चेतना की भावभूमि पर लिखा गया है। पुस्तक में गुरुजी ने राष्ट्र और राज्य के अंतर को ही स्पष्ट नहीं किया, बल्कि उन्होंने इस पुस्तक में यहां तक लिखा है कि एक समय के बाद अल्पसंख्यक जोकि अपनी संस्कृति, भाषा और धर्म के संरक्षण के लिए विशेष सुरक्षा उपायों के साथ नागरिकता के सभी अधिकारों को अल्पसंख्यक के रूप में अलग रखने का प्रयास करते हैं, जब उनमें अपने राष्ट्र के लिए संपूर्ण समर्पण का भाव जागता है तो वे स्वयं की विशेष पहचान भूलकर राष्ट्रीयता के लिए बहुसंख्यक समाज के साथ ही समरस हो जाते हैं।
यहां तक कि इसी पुस्तक में श्रीगुरुजी उसी कांग्रेस की भी प्रशंसा करते दिखते हैं, जिसके कि दिग्विजय नेता हैं। उन्होंने लिखा- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना करने वाले, भारतीय देशभक्तों के विद्यालय थे, भारतीय राष्ट्रवाद के आंदोलन के अग्रणी थे।..कुछ नीतिगत महत्वपूर्ण समस्याओं, जैसे सांप्रदायिक आधार पर पुरस्कार और अन्य पर, आज के अग्रणी कांग्रेसियों के साथ मेरे सभी मतभेदों के बावजूद, मैं ज़ोर देकर कहना ज़रूरी समझता हूँ कि आज भारत में जो कुछ राष्ट्रवाद की भावना मौजूद है, वह उन दिग्गजों द्वारा किए गए कार्यों का परिणाम है, जिन्होंने पिछले पचास वर्षों और उससे भी अधिक समय से देश में कांग्रेस आंदोलन का नेतृत्व और संचालन किया है। श्रीगुरुजी तमाम मतभेदों के बावजूद यहां कांग्रेस की प्रशंसा कर रहे हैं। वास्तव में यह तथ्य यह बताने के लिए पर्याप्त है कि श्रीगुरुजी सिर्फ सत्य के पक्षधर थे।
क्या कोई साल 1947 के भारत विभाजन को भूल सकता है ? जिसमें कि संघ स्वयंसेवकों को गुरुजी ने बचाव और राहत कार्यों में लगा दिया था। उस समय क्या स्वयंसेवक यह देखकर सेवा कर रहे थे कि फलां दलित, पिछड़ा या अल्पसंख्यक है इसकी सेवा नहीं करनी ? यानी जब भी 20वीं शताब्दी का इतिहास लिखा जाएगा, उसमें साफ लिखा होगा कि संघ के स्वयंसेवकों ने विभाजन के समय अपना तन, मन, धन, सर्वस्व लगाकर पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों की खुलकर सहायता की थी, जिसमें कि कई स्वयंसेवकों को अपनी जान तक देनी पड़ी थी।
वस्तुत: यह सभी को जानना चाहिए कि संघ का मूल चिंतन अस्पृश्यता समाप्ति के लिए प्रेरित करता है, इसलिए अस्प्रश्यता के विरोध में श्रीगुरूजी ने सामाजिक समरसता की मुहिम चलाई। साधू संतों को एक मंच पर लाकर इस कार्य को आगे बढ़ाया गया । 1965 में संदीपनी आश्रम और वर्ष 66 में प्रयागराज तत्कालीन इलाहाबाद कुम्भ में उन्होंने आयोजित धर्म संसद में सभी शंकराचार्यों एवं साधू संतों की उपस्थिति में सफलता पूर्वक यह घोषणा करवाई कि ना हिन्दू पतितो भवेत । ऊंच-नीच अनुचित है, सभी हिन्दू एक हैं। यहां हिन्दू समाज में एक नए तरह के परावर्तन को भी मान्यता मिली ।
इसी तरह से आगे श्रीगुरुजी ने 1969 में उडुपी (कर्नाटक) में जैन, बौद्ध, सिख सहित समस्त धर्माचार्यों को एक मंच पर एकत्रित किया, यहां घोषणा हुई - ''हिन्दवः सोदरा सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत, मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र समानता'' इस प्रकार हिन्दू समाज की कमिययों को दूर करने एवं समरस समाज का प्रयत्न चलता रहा । फिर भी आश्चर्य है कि दिग्विजय जैसे वरिष्ठ नेता श्रीगुरुजी के बहाने संपूर्ण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी कार्यप्रणाली को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास करते हैं !
दिग्विजय जैसे लोग अपने ही उन महान नेताओं के संघ को लेकर समय-समय पर उत्पन्न श्रद्धाभाव को भूल जाते हैं जिसमें कश्मीर विलय के लिए तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल स्वयं श्रीगुरुजी की सहायता लेते हैं। कश्मीर के राजा को जब समझाने के सारे प्रयास विफल हो गए तब पटेल ने गुरुजी को एक जरूरी संदेश भेजा और उनसे हरि सिंह को समझाने का आग्रह किया। यह संदेश मिलते ही गुरुजी ने दूसरे सारे काम छोड़ दिए और तत्काल कश्मीर के लिए निकल पड़े। वहां जाकर उन्होंने हरि सिंह को भारत संघ में कश्मीर के विलय के लिए उन्हें राजी किया।
संदीप बोमज़ाई अपने एक लेख 'डिसइक्यिलीब्रियम : वेन गोलवलकर रेसक्यूड हरि सिंह' में लिखते हैं- 'सरदार पटेल के कहने और राज्य के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन के हस्तक्षेप के बाद गोलवलकर श्रीनगर गए और 18 अक्टूबर, 1947 को उन्होंने महाराजा हरि सिंह से मुलाकात की। इस बैठक के बाद ही कश्मीर को भारत में मिलाने का प्रस्ताव दिल्ली भेजा गया था। फिर भी श्रीगुरुजी को यह आभास था कि कश्मीर को भारत में मिलाना सरल न होगा, इसलिए उन्होंने जम्मू-कश्मीर के सभी संघ स्वयंसेवकों से कहा कि वे कश्मीर की सुरक्षा के लिए तब तक लड़ने को तैयार रहें, जब तक उनके शरीर में खून की आखिरी बूंद बचे।
1962 चीन के साथ युद्ध में वह संघ के ही स्वयंसेवक थे जोकि नीचे समाज और ऊपर सैनिकों के बीच जरूरी सहायता पहुंचाने में अपने जीवन को भी समर्पित करने से पीछे नहीं हटे। युद्ध समाप्ति के बाद नेहरू इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने आरएसएस की एक स्वयंसेवक टुकड़ी को पूरी यूनिफ़ॉर्म और बैंड के साथ 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने आमंत्रित किया था । वर्ष 1965 भारत-पाक युद्ध में भी गोलवलकर गुरुजी उन कुछ लोगों में से थे जिनसे तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री लगातार परामर्थ ले रहे थे। इन सभी बातों के तथ्य आज नेशनल आर्काइव्ज में मौजूद भी हैं।
इंदिरा गांधी गोलवलकर से कभी नहीं मिलीं। लेकिन उनकी मृत्यु पर उन्होंने भी यह स्वीकारा कि 'अपने व्यक्तित्व और विचारों की गहनता के कारण राष्ट्रीय राजनीति में उनकी एक ख़ास जगह थी'। यह श्रीगुरुजी की ही प्रेरणा है जो आज देश हित सर्वोपरि, इसी के लिए जीना और इसी के लिए मरना है के समर्पित भाव को लेकर अनेकों विविध क्षेत्र में सामाजिक संगठन कार्य कर रहे हैं। काश, दिग्विजय सिंह जैसे लोग उन संगठनों में जाकर देखें और भारत की विविधताओं के बीच सामाजिक समरसता में बहते हुए अपने को धन्य पाएं।