दूध के नाम पर जहर पी रहें है देशवासी !

दूध के नाम पर जहर पी रहें है देशवासी !
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आप जिस दूध का सेवन कर रहे हैं, क्या वह पीने योग्य है? संभवत: नहीं। दरअसल आप और आपके परिवार के शेष सदस्य ही नहीं, लगभग सारा देश ही दूषित दूध पीने को अभिशप्त है। सबसे दु:खद स्थिति यह है कि जहरीले दूध से मुक्ति का कोई तत्काल उपाय भी फिलहाल समझ में नहीं आ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की ओर से हाल ही में भारत सरकार को एक एडवाइजरी नोट भेजा गया है। इसमें सरकार से कहा गया है कि यदि भारत में दूषित दूध और उससे बनने वाले उत्पादों पर तत्काल रोक न लगाई गई तो साल 2025 तक भारत की 87 फीसद जनसंख्या कैंसर जैसे जानलेवा रोगों की गिरफ्त में होगी। देखा जाए तो यह एक अत्यंत गंभीर और भयावह चेतावनी है। इसे कतई नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।

डब्लूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार, देश में फिलहाल 68 फीसद खराब, दूषित और जहरीला दूध बिक रहा है। यह आंकड़ा सरकारी है। सरकार ने लोकसभा में 17 मार्च, 2015 को माना था कि देश में बिकने वाला 68 फीसद दूध दूषित ही होता है। कुछ समय पहले केन्द्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने भी कहा था, "विगत 3 वर्षों में दुग्ध उत्पादन 137.7 मिलियन टन से बढ़कर 165.4 मिलियन टन हो गया है। वर्ष 2014 से 2017 के बीच वृद्धि 20 फीसद से भी अधिक रही है।" देश में दूध का उत्पादन बढ़ना तो सुखद है, पर अगर वह दूध शुद्ध नहीं होगा तो फिर उसका कोई लाभ नहीं, बल्कि हानि ही है।

अब आप ही बताएं कि एक आम नागरिक करे तो क्या करे? यानी देश के सामान्य शख्स के लिए अपने शरीर को स्वस्थ रखना अब बड़ी चुनौती हो चुका है। अभी तो आम आदमी दूध का गिलास पीकर सोचता है कि उसने कुछ पौष्टिक सामग्री ग्रहण कर ली।

अब यह कहना तो रस्मी ही होगा कि मिलावटी दूध की ब्रिकी रोकने के लिए व्यापक स्तर पर अभियान चले और दोषियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई हो। अब तो सरकार को मिलावटखोरों पर कसकर चाबुक चलानी ही होगी ताकि ये जहर बेचना तो बंद करें। ये आधुनिक युग के राक्षस ही तो हैं। इन मौत के सौदागरों को मौत की ही सजा भी मिलनी चाहिए। आखिर इन्हें क्यों न मिले मौत की सजा? सरकार को दूध में मिलावट पर कराए गए एक सर्वे से ये भी पता चला है कि उत्तर भारत के राज्यों में स्थिति वास्तव में खराब हो चुकी है। इनमें मिलावटी दूध देश के बाकी भागों या राज्यों की तुलना में अधिक बिक रहा है। उत्तर भारत के राज्यों का मतलब उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, उत्तराखंड वगैरह से है।

जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में बताया गया है कि मिलावटी दूध या उससे बने उत्पादों का सेवन करने से कैंसर जैसा असाध्य रोग का खतरा बढ़ जाता है। यह जहरीला दूध आंख से लेकर आंत तक, दिल से लेकर दिमाग तक और पेट से लेकर प्रजनन क्षमता तक, सब पर असर डालता है। इसके अलावा इंसान टायफाइड, पीलिया, अल्सर, डायरिया जैसी बीमारियों की चपेट में भी आ सकता है। ये अच्छे भले इंसान को गैस्टिक का रोगी बना सकता है। साफ है कि नकली दूध देश को बीमार बना रहा है। अब बताइए कि मिलावटखोरों को क्यों बख्शा जाए? अभी तक इन्हें क्यों दंड नहीं दिया जा रहा है? ये सवाल भी तो पूछा ही जाना चाहिए।

तो फिर कैसे रुके दूध में मिलावट का धंधा? उपभोक्ता मामलों को जानने वाले जानते हैं कि लगभग सभी राज्यों में खाद्य सुरक्षा विभाग बेहद कम स्टाफ के साथ काम कर रहे हैं। इनमें ज्यादा से ज्यादा 40-50 ही इंस्पेक्टर तैनात होते हैं। जरा सोचिए कि हमारे देश के लंबे-चौड़े राज्यों में इतने कम इंस्पेक्टरों से काम कैसे चलता होगा? सभी शहरों में दूध और दूध से जुड़े उत्पादों की बिक्री सैकड़ों-हजारों डेयरियां और अन्य स्टोरों से हो रही है। क्या 40-50 इंस्पेक्टरों से आप दूध में मिलावट के काम के गोरखधंधे को रोक सकते हैं? कतई नहीं। आखिरकार, इन इंस्पेक्टरों को खाद्य पदार्थ, सब्जी, फल, तेल, घी, होटल, रेस्टोरेंट, चिकेन, मटन की दुकानें आदि भी तो देखनी होती हैं। इसलिए इस मिलावट के कारोबार पर तगड़ा हल्ला बोलने के लिए ईमानदार और दीर्घकालीन योजना बनाने की जरूरत है।

उच्चतम न्यालाय ने दूध में मिलावट को रोकने के लिए साल 2015 में एक अहम फैसला सुनाया था। उसने माना था कि देश में मिलावटी दूध बिक रहा है और ऐसे में आवश्यक है कि कानून में कड़े प्रावधान किये जाएं। तब सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने मिलावट को गंभीर मुद्दा बताते हुए निर्देश दिए थे कि केंद्र और राज्य सरकारें 'फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स एक्ट 2006' को सख्ती से लागू करने के लिए असरदार कदम उठाएं। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का किस हद तक पालन हुआ? अगर नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ? कौन जवाब देगा इसका?

यहां पर यह भी समझना आवश्यक होगा कि दूध उत्पादन को बढ़ाने का लाभ ही क्या है, अगर हम मिलावटी दूध के कारोबर पर रोक न लगा सकें। इस डेयरी व्यवसाय से कई करोड़ किसान अपना परिवार चलाते हैं। एक बात यह भी समझ आ रही है कि दूध के क्षेत्र मे प्रोसेसिंग संयंत्रों का टोटा है। दूध को सही-सुरक्षित रखने के लिये ठंडा तापमान एवं सही हाईजिनिक ढंग से प्रोसेसिंग आवश्यक होता है। गांवों में छोटे-छोटे प्रोसेसिंग प्लांट लगने चाहिए और कलेक्शन सेंटर होने चाहिए, जिससे किसानों को भी दूध के अच्छे दाम भी मिल सकें और दूध को जहरीला होने से बचाया जा सके। अभी तो मोटा-मोटी यही माना जा सकता है कि सिर्फ गुजरात राज्य में ही कॉपरेटिव बेहतर तरीके से काम कर रही है, जिससे किसानों को लाभ भी मिल रहा है। अन्य राज्यों में तो अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।

अब तो त्योहारों के दिन शुरू हो चुके हैं। इस समय मिलावटी दूध की सप्लाई खुलेआम और धड़ल्ले से होती है। यानी सफेद जहर बेचकर कुछ लोग पैसा कमाने से पीछे नहीं हटते। ये पैसे की खातिर अपना जमीर तक बेच देते हैं। ये मिलावटी दूध से निर्मित मिठाइयां किसी को भी अस्पताल पहुंचा सकती हैं। कौन सा भारतीय है जिसे सुस्वादु मिष्टान्न नापसंद है? पर त्योहारों पर ये अधिकतर मिलावटी ही मिलती हैं। मिलावटी मावे और दूध में सबसे ज्यादा खतरनाक कास्टिक सोडा और यूरिया की बड़ी मात्रा में मिलावट होती है। इस तरह के मावे या दूध से बनीं मिठाइयों के सेवन से शुरुआती तौर पर पेचिश हो सकती है। बेशक, अगर मिठाई अत्यधिक मिलावटी है तो उसमें कास्टिक सोडा और यूरिया की मात्रा भी ज्यादा होती है। इससे गुर्दे से रक्तस्राव होने का खतरा बढ़ जाता है। यानी त्योहारी मौसम में मिठाई खाना संकट को खुला आमंत्रण देना हो गया है।

यह तो हुई 68 फीसद मिलावटी दूध की बात। अब जरा, बाकी के 32 फीसद की भी बात कर लें। इनमें भी अधिकांश दूध जोलिस्टियन, फ्रीजियन आदि दोगली किस्म की गायों की हैं, जो वास्तव में गाय हैं ही नहीं। वे तो जंगली सूअर और नीलगाय को क्रॉस कर बनी एक ऐसे जानवर हैं जिन्हें गोरी चमड़ी वाले उनके मांस को अपने भोजन के लिए इस्तेमाल करते हैं। अब इनके ऊपर शोध पत्र पकाशित हो चुके हैं कि इन गायों (या पशुओं का) दूध जिसे "ए-1" की संज्ञा दी जाती है इनमें "बीटा मॉरफीन" नाम का जहर है, जो डा/बिटीज, ब्लड प्रेशर, हृदय रोग, मानसिक रोग और गर्भस्थ शिशुओं में होने वाली मानसिक या शारीरिक विकलांगता (ऑटिज्म) जैसी पांच बड़ी बीमारियों का मुख्य कारण है। अब इसके बाद बचा क्या बताइए।

आधुनिकतम रिसर्च यह है कि विश्व भर में भारत, पाकिस्तान, बर्मा, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश में पायी जाने वाली देसी गाय का दूध, जिसे "ए-2" नस्ल की संज्ञा अंग्रेजों ने दे रखी है, मां के दूध के समान है। "ए-2" नस्ल की गाय की सामान्य पहचान "कंधे पर उभार या पुट्ठा" और गले के नीचे का झालर है। दुर्भाग्यवश ऐसी अधिकांश गाएं अब तो ज्यादातर ब्राजील, कनाडा, अमेरिका, स्विटजरलैंड, स्वीडेन, डेनमार्क, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को हमने निर्यात कर दिया और विदेशों से ज्यादा दूध के नाम पर दोगली गायों को ले आये, जिनके दूध में "बीटा मॉरफीन" होता है। यानि, अब विदेशी हमारी "गौ माता" का दूध पी रहे हैं और हम जहर पीने को मजबूर हैं।

यहां यह बता दें कि भैसों का दूध भी "ए-2" होता है। यानि वह पानी मिलाकर पतला करके पीने लायक तो है, लेकिन, सुपाच्य नहीं है। क्योंकि, "ए-2" यानि देसी गायों के दूध का "मेल्टिंग तापमान" 37 डिग्री सेल्सियस होता है, जबकि, मनुष्य के शरीर का तापमान 37.2 डिग्री सेल्सियस होता है जिससे "ए-2" गाय का दूध आमाशय में जाते ही पच जाता है, जबकि, भैंस के दूध का मेल्टिंग तापमान 40 डिग्री सेल्सियस होता है, अतः यदि भरपूर शारीरिक परिश्रम न किया जाए तो उसके पचने में परेशानी होती है जिससे कि उसकी चर्बी धमनियों में जमा हो जाती है और हृदय रोग का कारण बनती हैं।

देखिए, अब दूषित दूध के बिकने पर रोक लगाए बिना कोई बात नहीं बनेगी। सिर्फ सांकेतिक कदम उठाने का वक्त तो अब निकल चुका है। अब आप ही तय कर लीजिए कि देश को आप स्वस्थ देखना चाहते हैं या बीमार।

(लेखक राज्यसभा सदस्य हैं)

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