बाबरी के पैरोकारों का अंत भी राम-राम कहते होगा?
न्यायालय के निर्णय पर अक्सर चर्चा होती है आम लोग इस बारे में टिप्पणी भी करते है। 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया। बहुमत से निर्णय सुनाया कि विवादित भूमि को रामजन्म भूमि की मान्यता है इसलिए इसे रामजन्म भूमि न्यास को सौंप दिया जाय। यह निर्देश भी दिया कि रामलला की मूर्ति को नहीं हटाया जाय। सीता रसोई और राम चबूतरा आदि भागों पर निर्मित अखाड़े का अधिकार है, इसलिए यह जिम्मा निर्मोही अखाड़े के पास ही रहेगा। इस भूमि के एक तिहाई हिस्से को मुस्लिमों को दे दिया जाय। यह इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ के बहुमत का निर्णय था, मुस्लिम जज ने अलग मत दिया। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया। इस निर्णय के सात वर्ष बाद अगस्त 2017 को सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आया कि तीन न्यायाधीश की पीठ इस मामले की सुनवाई प्रतिदिन करेगी। बाद में 5 दिसंबर को एवं 5 फरवरी 2018 से सुनवाई करने का निर्देश दिया। कुल मिलाकर रामजन्म भूमि के पक्ष में हिन्दू संगठन एवं बाबरी पक्ष में मुस्लिम खड़े रहे। लम्बे समय तक मामले को लटकाने और न्यायिक प्रक्रिया धीमी और लम्बी चलाने के दबाव और राजनैतिक कारणों की चर्चा होती रही, कांगे्रस की कथित सेक्यूलर सरकारे बाबरी पक्ष के साथ खड़ी दिखाई दी, क्योंकि इस मामले का सरोकार मुस्लिम वोट बैंक से था। 1528 में हमलावर बाबर ने इस्लाम के नाम पर हिन्दुओं की आस्था को लहूलुहान करने के लिए रामजन्म भूमि के मंदिर को नष्ट किया। 1853 में भी इस स्थान को लेकर हिन्दू मुस्लिमों के बीच विवाद हुआ। 1949 में जिला न्यायाधीश के आदेश से रामलला की मूर्ति जन्म स्थान पर रखी गई। तनाव की स्थिति में गेट पर ताला लगा दिया। 1986 में हिन्दुओं की पूजा के लिए रामलला मंदिर का ताला खोला गया। इसके विरोध में मुस्लिमों ने बाबरी मस्जिद एक्सन कमेटी गठित की। 1989 में हिन्दुओं की ओर से विश्व हिन्दू परिषद ने राम मंदिर निर्माण का अभियान प्रारंभ किया। 6 दिसंबर 1992 को इतिहास का चक्र ऐसा घूमा कि जो हिन्दू अति सहिष्णु होने से मरने, पिटने वाले की छवि का उसमें सांस्कृतिक चेतना जागृत हुई। अयोध्या में लाखों रामभक्त कार सेवक एकत्रित हुए। इसके पूर्व भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की राम रथ यात्रा से पूरे देश में सांस्कृतिक चेतना जागृत हुई। हर गांव, शहर के गली मोहल्ले में यही नारा गूंज रहा था, रामलला हम आयेंगे मंदिर वहीं बनायेंगे। बाबरी ढांचे के खिलाफ लोगों का आक्रोश था। 6 दिसंबर 1992 को लाखों कारसेवक अयोध्या में एकत्रित हुए, जब कार सेवकों को कार सेवा की भी अनुमति नहीं मिली तो आक्रोशित कार सेवकों के समूह ने बाबरी ढांचे को ध्वस्त कर दिया। उस समय नरसिंहराव की कांगे्रस सरकार थी। उत्तर प्रदेश के साथ मप्र, राजस्थान और हिमालय की राज्य सरकारों को इसलिए भंग किया गया कि वे भाजपा की थी। यह भी स्पष्ट हो गया कि मुस्लिम पक्ष के साथ कांग्रेस और उसकी कांग्रेस सरकारें खड़ी थी जो बाबरी ढांचे की मौत पर आंसू बहा रही थी, दूसरी ओर हिन्दू पक्ष और भाजपा की सरकारें थीं, जिन्होंने रामजन्म भूमि के लिए अपनी सरकारों का बलिदान दे दिया। इस मामले की जांच के लिए 16 दिसंबर 1992 को लिब्रहान आयोग गठित किया गया। तीन माह में आयोग से रिपोर्ट देने के लिए कहा।
आयोग ने 17 वर्ष बाद रिपोर्ट तैयार की, 30 जून 2009 को 700 पृष्ठों की रिपोर्ट प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को सौंपी गई। आयोग का कार्यकाल 48 बार बढ़ाया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने 5 फरवरी 2018 को अंतिम सुनवाई शुरू करने का निर्देश दिया। इस स्थिति के आधार पर यह समझना कठिन नहीं है कि बहुसंख्य हिन्दुओं की अटूट भावना से जुड़े इस मामले को लटकाने, भटकाने और अटकाने का दोष केवल न्यायालय के ऊपर नहीं डाला जा सकता। इसके पीछे राजनैतिक कारणों के साथ कट्टरपंथी मजहबी नेता भी रहे है। वोट बैंक राजनीति का ही परिणाम है कि कांग्रेस के वकील कपिल सिब्बल ने मामले को 2019 के चुनाव के बाद सुनवाई प्रारंभ करने की दलील दी। 2014 के लोकसभा चुनाव में जनता द्वारा बुरी तरह नकारा जाने के बाद कांग्रेस को इस सच्चाई का पता चला कि श्रीराम के साथ हिन्दुओं की भावना जुड़ी है। अब हिन्दू एकजुट होकर राजनैतिक निर्णय लेने की स्थिति में आ गये है। इसलिए किसी तरह हिन्दू होने और हिन्दुत्व का ढोंग किया जाय। मंदिर-मंदिर जाना, जनेऊधारी शिवभक्त हिन्दू होने का दिखावा करने के पीछे वोट बैंक का स्वार्थ है। इस संदर्भ में उल्लेख करना होगा कि समाजवादी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव चाहे रामजन्म भूमि का मामला हो या हिन्दू भावना का सवाल हो, उनका साम्प्रदायिक कह कर विरोध करते थे, उनके पिता मुलायम सिंह यादव की सरकार ने तो कार सेवकों और साधू संतों का खून बहाने में भी संकोच नहीं किया। अब अखिलेश यादव भगवान कृष्ण की प्रतिमा खड़ी कर रहे है। हिन्दू विरोधी राजनीति में जो बदलाव हो रहा है इसके मूल कारण में है कि हिन्दू अपनी अस्मिता, धर्म, संस्कृति पर लगातार होने वाले आघातों का प्रतिकार करने की स्थिति में है। हिन्दू एकजुटता के साथ हिन्दू चेतना जितनी जागृत होगी, उतना ही राजनीतिक नेतृत्व की सोच में भी बदलाव होगा। इस सच्चाई को राजनैतिक नेतृत्व नकार नहीं सकता कि हिन्दू चेतना के सामने सेक्यूलर राजनीति टिक नहीं सकती। तुष्टीकरण को भी हिन्दू बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है। हिन्दू चेतना के कारण ही कम्युनिस्टों का त्रिपुरा जैसा मजबूत किला भी ध्वस्त हो गया। केरल भी उसके हाथ से निकल सकता है। हिन्दू विरोध का ही परिणाम है कि कांग्रेस के सदस्यों की संख्या लोकसभा में सिमटकर 440 से 44 हो गई। हिन्दू के बिना किसी को सफलता नहीं मिल सकती। इस स्थिति का मनोवैज्ञानिक बदलाव मुस्लिमों में भी हो रहा है। उनको इस सच्चाई से साक्षात्कार होने लगा है कि उनके पूर्वज भी राम-कृष्ण है, उनकी संस्कृति भी हिन्दू संस्कृति है। भारत के हिन्दू मुस्लिमों के बीच खून के रिश्ते है। किसी कारण तीन-चार पीढ़ी ने इस्लाम स्वीकार किया लेकिन मुस्लिम होने से पूर्वज, संस्कृति नहीं बदलती। इस सच्चाई को मुस्लिम व्यक्त करने भी लगे है। बुर्का पहने कुछ मुस्लिम महिलाएं श्रीराम की आरती करती है, गणेश पूजन करती है, सर्वोच्च न्यायालय के हाल ही के निर्णय के बाद सोशल मीडिया की चर्चा में कई मुस्लिम यह कहते दिखाई दिये कि श्रीराम उनके पूर्वज है, कुछ ने यह भी कहा कि हमारे पैगम्बरों में एक पैगम्बर श्रीराम है। हम कह सकते है कि न केवल राजनीतिक बदलाव हो रहा है बल्कि मुस्लिमों के कट्टर नेतृत्व से मुस्लिम भी परेशान हो चुके है। तीन तलाक और हलाला मामले को लेकर मुस्लिम महिलाएं कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवियों के खिलाफ बोलने लगी हैं।
श्रीराम के जीवन का मानवीय दृष्टि से आंकलन करें तो चौदह वर्षों के वनवास, वनवासियों को संगठित कर, रावण के राक्षसी साम्राज्य को नष्ट कर रामराज्य का आदर्श मॉडल प्रस्तुत करना। इतिहास दोहराता है, चाहे रामलला अपनी जन्म भूमि में टाट से ढंके मंदिर में हो, लेकिन श्रीराम जन्म भूमि को लेकर जो संघर्ष गत साढ़े चार सौ वर्षों से चल रहे, उससे बदलाव भी हुए है। मामले की लम्बी न्यायिक प्रक्रिया ने सांस्कृतिक चेतना जागृत की। जो इस मामले को लम्बा खींचना चाहते है उन्हें ध्यान रखना होगा कि यह स्थिति उनके भविष्य के लिए ही घातक हो सकती है। रामजन्म भूमि का मामला केवल अयोध्या और वहां के लोगों से सरोकार रखने वाला नहीं है। यह सवा सौ करोड़ की जनशक्ति के विशाल भारत की संस्कृति, राष्ट्रीयता और हिन्दू भावना से जुड़ा सवाल है। जन्म भूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण तो किसी भी स्थिति में होगा। राम विरोधी ताकतें न केवल परास्त होंगी बल्कि रावण जैसा ही उनका अंत होगा।
(लेखक - वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं)