घाटी में शांति बहाली के कदम

घाटी में शांति बहाली के कदम
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जम्मू - कश्मीर में राष्ट्रपति शासन जल्दीबाजी में लिया गया निर्णय नहीं था। केंद्र ने कुछ महीने पहले दिनेश्वर शर्मा को दूत बनाकर भेजा था।

जम्मू - कश्मीर में राष्ट्रपति शासन जल्दीबाजी में लिया गया निर्णय नहीं था। केंद्र ने कुछ महीने पहले दिनेश्वर शर्मा को दूत बनाकर भेजा था। वह घाटी के सभी पक्षों से मिलकर रिपोर्ट बना रहे थे। पीडीपी से समर्थन वापसी के कुछ समय पहले ही केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह जम्मू कश्मीर गए थे। वहां उन्होंने सभी पक्षों से मिलकर हालात का जायजा लिया था। राष्ट्रपति शासन लगने के बाद राजनाथ पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत अपने निर्वाचन क्षेत्र लखनऊ आये थे। इस दौरान उनके बयानों से स्पष्ट हुआ कि सरकार वह कदम भी उठा सकती है , जो महबूबा मुफ्ती के साथ गठबन्धन में संभव नहीं थे। चुनाव का समय करीब आते ही महबूबा की अलगाववादियों, आतंकवादियों, और पाकिस्तान के प्रति हमदर्दी बढ़ गई थी। वह प्रत्येक हिंसक गतिविधि के बाद वार्ता की आवश्यकता बताने लगी थी।

इससे भारत वीरोधी तत्वों के हौसले बुलंद हो रहे थे। महबूबा का यह रुख न्यूनतम साझा कार्यक्रम के विरुद्ध था। ऐसे में भाजपा के सामने समर्थन वापस लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। राष्ट्रपति शासन के साथ ही बड़े बदलाव की आहट सुनाई देने लगी है। चर्चा है कि केंद्र यहां शांति बहाली के लिए कठोर कदम उठाने का मन बना चुका है। उसकी तैयारी इसी दिशा में बढ़ रही है। राजनाथ सिंह ने कहा कि सरकार आतंकवाद बर्दाश्त नहीं करेगी। और जल्दी आंतकी सगठनों पर शामत आने वाली है। इसके लिए अभियान चलाया जाएगा। राज्य में शांति बहाल करना मोदी सरकार के शीर्ष एजेंडे में शामिल है। आतंकवादी संगठनों को किसी भी तरह की अप्रिय घटना को लेकर चेतावनी दी गई है। यह भी कहा गया कि सुरक्षाबल ऐसे किसी भी प्रयास को विफल करने के लिए तैयार हैं।

इसके अलावा राज्यपाल के स्वर भी बदले है। उन्होंने भी आतंकियों के साथ सख्ती की बात कही है। वीरप्पन को मारने वाले पुलिस अधिकारी विजय कुमार को राज्यपाल का सलाहकार बनाया गया है। आॅपरेशन आलआउट अभियान चलता रहेगा। नेशनल सिक्युरिटी गार्ड को पहली बार आतंक वीरोधी ग्रिड में शामिल किया जा रहा है। यह अन्य सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण भी देगा। कभी कभी खंडित जनादेश धुर विरोधियों को भी साथ आने पर विवश कर देते है। जम्मू कश्मीर में भाजपा और पीडीपी का गठबन्धन ऐसा ही था। दोनों ने विधानसभा चुनाव एक दूसरे के खिलाफ लड़ा था। लेकिन खंडित जनादेश में इनके गठबन्धन से सरकार बनाने का एक मात्र विकल्प यही बचा था। इसे अपरिहार्य गठबन्धन कहा जा सकता था।

इसके लिए भाजपा को आलोचना भी सहनी पड़ी। लेकिन यह समझना होगा कि यह ऐसा गठबन्धन नहीं था जैसा आजकल भाजपा या नरेंद्र मोदी के खिलाफ बनाने का दावा किया जा रहा है। इसमें भी सपा बसपा मिल रही है, कर्नाटक में जेडीएस की सरकार बन गई , प.बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी तृणमूल के पीछे खड़े हो गए। इन सभी की तुलना भाजपा और पीडीएफ गठबन्धन से नहीं हो सकती। इन्होंने तो बिना लड़े ही हिम्मत छोड़ दी है, न कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम है , न कोई नेतृत्व, इन्हें भी केवल मोदी, मोदी करना होगा। कर्नाटक में सरकार बनाने की इतनी जल्दी थी कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम का नाम ही नहीं लिया गया। आधी संख्या वाला मुख्यमंत्री बन गया। अनेक विधायक कोप भवन में है।

जबकि जम्मू कश्मीर के गठबन्धन में ऐसा उतावलापन नही था। पहली बात यह कि भाजपा और पीडीएफ दोनों एक दूसरे के खिलाफ जम कर लड़ी थी। उस समय वहां नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की गठबन्धन सरकार थी। लेकिन पीडीएफ और भाजपा ने यह नहीं कहा कि इन्हें हटाने के लिए तालमेल कर लें । इन्होंने बिना लड़े हार नहीं मानी। नरेंद्र मोदी के विरोध में तो ऐसे लोग भी साथ आ गए जिन्हें बाईस वर्षो तक एक दूसरे की शक्ल देखना गवारा नहीं था। भाजपा और पीडीएफ जम कर लड़े , एक दूसरे पर आरोपो की बौछार की। खंडित जनादेश आया ,तब भी सरकार बनाने की जल्दीबाजी नहीं दिखाई गई। पूरा समय लेकर पहले न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया गया । बड़ी पार्टी के कारण मुख्यमंत्री का पद पीडीएफ और उप मुख्यमंत्री का पद भाजपा को मिलना तय हुआ। मंत्रालय भी पहले तय हो गए। इसके बाद सरकार बनाई गई। यह गठबन्धन की मिसाल थी। जब अपरिहार्य स्थिति आ जाये तब न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर सरकार बनाई जा सकती है।

ऐसे में पहली बात यह कि इसकी तुलना नरेंद्र मोदी विरोधी कथित मोर्चे से किसी भी दशा में नहीं हो सकती। दूसरा यह कि भाजपा और पीडीएफ सरकार अब तक उसी साझा कार्यक्रम के तहत ही चली , जिसे व्यापक विचार और सहमति के बाद बनाया गया था। दिसंबर 2014 में विधानसभा चुनाव में खंडित जनादेश मिलने के बाद राज्य में राज्यपाल शासन लगाया गया था। जनवरी 2016 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद राज्य में फिर से राज्यपाल शासन लगाया गया था क्योंकि उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती के साथ भाजपा का न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार नहीं हुआ था। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा की सत्तासी सीटों पर चुनाव होते हैं. सरकार बनाने के लिए किसी भी दल को चवालीस सीटों का बहुमत चाहिए. मौजूदा समय में पीडीपी के पास अट्ठाईस और भाजपा की पच्चीस नेशनल कॉन्फ्रेंस के पास पन्द्रह कांग्रेस के पास बारह और अन्य के खाते में नौ सीटें थी।

जाहिर है कि भाजपा को यहां सरकार बनाने की कोई हड़बड़ी नहीं थी। अब तक उसने न्यूनतम साझा कार्यक्रम के अनुरूप ही कार्य किया। भाजपा कोटे के मंत्रियों ने अलग ध्वज के प्रयोग को नहीं माना। राष्ट्रीय ध्वज को ही अपनाया। जनसेवा के कार्यो में भी इनका रिकार्ड बेहतर रहा है। राष्ट्रीय पार्टी के रूप में भाजपा की एक समस्या भी थी। उसे जम्मू के हिन्दू इलाको में खूब समर्थन मिला ,जबकि पीडीएफ को घाटी में सीट मिली थी। नरेंद्र मोदी ऐसे किसी विभाजन को भी रोकना चाहते थे। घाटी में आई भीषण बाढ़ के समय मोदी ने इसका प्रमाण भी दिया था तब स्थानीय प्रशासन के लोग भी नदारत हो गए थे। सेना के जवानों ने वहां राहत पहुंचाई थी। भाजपा कोटे के मंत्रियों द्वारा लिए गए कुछ निर्णयों को न्यायपालिका ने भी सही माना था।

लेकिन यह भी सही था कि महबूबा मुफ्ती अलगाववादी हुर्रियत नेताओं , पाकिस्तान व पत्थरबाजो से वार्ता की हिमायत करने लगी थी। जबकि भाजपा की रणनीति इन्हें दरकिनार करने की थी। यह ऐसा मसला था जिस पर गठबन्धन के टूटने की नौबत आ गई। यह सराहनीय है कि भाजपा ने इस दबाव को नामंजूर किया। वह महबूबा के दबाव को मानकर सरकार चला सकती थी। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। महबूबा की नाराजगी के बावजूद हुर्रियत के सरगनाओं की नजरबंदी कम नही हुई। इन्हें न तो वार्ता के लिए बुलाया गया, न इन्हें कोई अहमियत दी गई। यह कहना भी गलत है कि संघर्ष विराम का निर्णय महबूबा के दबाव में किया गया था। वस्तुत: यह तो भारतीय विचारों के अनरूप था। जिसमें सभी मजहबो का सम्मान किया जाता है। रमजान पर संघर्ष विराम के पीछे यही सोच थी। केंद्र सरकार अपनी जिम्मेदारियों को समझती है। यह उम्मीद करनी चाहिए कि वहाँ स्थिति जल्दी है सामान्य होगी और नए चुनाव से सरकार का गठन होगा।

( लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं )


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